29 दिसंबर 2019

हमें क्या

इतवार के दिन
न मैं उठूँ जल्दी
न तुम

सूर्य उठे केवल
काम पर अपने लगना होगा उसे
दहके कहीं
हमें क्या

आते खिड़की तक हमारी
ठिठुरना ही है उसे

--- अनिरुद्ध उमट

28 दिसंबर 2019

काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए

काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए
मैं सोचने लगा हूँ मुझे मार दीजिए
है एहतिराम-ए-हज़रत-ए-इंसान मेरा दीन
बे-दीन हो गया हूँ मुझे मार दीजिए

मैं पूछने लगा हूँ सबब अपने क़त्ल का
मैं हद से बढ़ गया हूँ मुझे मार दीजिए
करता हूँ अहल-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार से सवाल
गुस्ताख़ हो गया हूँ मुझे मार दीजिए

ख़ुशबू से मेरा रब्त है जुगनू से मेरा काम
कितना भटक गया हूँ मुझे मार दीजिए
मा'लूम है मुझे कि बड़ा जुर्म है ये काम
मैं ख़्वाब देखता हूँ मुझे मार दीजिए

ज़ाहिद ये ज़ोहद-ओ-तक़्वा-ओ-परहेज़ की रविश
मैं ख़ूब जानता हूँ मुझे मार दीजिए
बे-दीन हूँ मगर हैं ज़माने में जितने दीन
मैं सब को मानता हूँ मुझे मार दीजिए

फिर उस के बा'द शहर में नाचेगा हू का शोर
मैं आख़िरी सदा हूँ मुझे मार दीजिए
मैं ठीक सोचता हूँ कोई हद मेरे लिए
मैं साफ़ देखता हूँ मुझे मार दीजिए

ये ज़ुल्म है कि ज़ुल्म को कहता हूँ साफ़ ज़ुल्म
क्या ज़ुल्म कर रहा हूँ मुझे मार दीजिए
ज़िंदा रहा तो करता रहूँगा हमेशा प्यार
मैं साफ़ कह रहा हूँ मुझे मार दीजिए

जो ज़ख़्म बाँटते हैं उन्हें ज़ीस्त पे है हक़
मैं फूल बाँटता हूँ मुझे मार दीजिए
बारूद का नहीं मिरा मस्लक दरूद है
मैं ख़ैर माँगता हूँ मुझे मिरा दीजिए

---अहमद फ़रहाद

18 दिसंबर 2019

Write me down I am an Indian

Write me down
I am an Indian
Write it down
My name is Ajmal
I am a Muslim
and Indian citizen
We are seven at home
all are Indian by birth
Do you want documents?

Write me down
that I am an Indian
I am a Moplah
My ancestors were untouchables
Hindus in your language
Slapped on the face of Manu
they changed their names
when they were given dignity
centuries ago
before forefathers of your ideologues were born
Are you suspicious?

Write me down
I am an Indian
My ancestors tilled the soil here
They lived here
and died
Their roots are deeper than the roots of these Banyan and Coconut trees
Though they weren’t land lords
but only peasants
this land is their root
The scent of their root is the scent of this land
The colour of their skin
is the colour of this land
Do you want documents?

Write me down
I am an Indian
Do you still need documents?
Then I will dig the graves in Malabar
and many others
I want to show you the boot and bullets on their chests
when they fell down with the British bullets
Do you still need documents?
I know
What documents you have
The copy of a confession at Cellular Jail
And
The blood stains of Gandhi on your hand
Do you want me to remind you more those ?
I say
Shut the fuck up
If you ask me for documents.

Write me down
I am an Indian
Remember
I have not forgotten
that you sent people to demolish Masjid
But now
you have demolished the constituion
the soul of this land
I am angry
How dare you?
How dare you?

Write me down
I am Indian
This is my land
If I have born here
I will die here
There for
Write it down
Clearly
In bold and capital letters
On the top of your NRC
that I am an Indian.

***

Ajmal Khan is a poet and researcher. He teaches at Ashoka University and Ambedkar University.
Source: https://www.groundxero.in/2019/12/15/write-me-down-i-am-an-indian/

16 दिसंबर 2019

The Night of the Scorpion

I remember the night my mother
was stung by a scorpion. Ten hours
of steady rain had driven him
to crawl beneath a sack of rice.

Parting with his poison - flash
of diabolic tail in the dark room -
he risked the rain again.

The peasants came like swarms of flies
and buzzed the name of God a hundred times
to paralyse the Evil One.

With candles and with lanterns
throwing giant scorpion shadows
on the mud-baked walls
they searched for him: he was not found.
They clicked their tongues.
With every movement that the scorpion made his poison moved in Mother's blood, they said.

May he sit still, they said
May the sins of your previous birth
be burned away tonight, they said.
May your suffering decrease
the misfortunes of your next birth, they said.
May the sum of all evil
balanced in this unreal world

against the sum of good
become diminished by your pain.
May the poison purify your flesh

of desire, and your spirit of ambition,
they said, and they sat around
on the floor with my mother in the centre,
the peace of understanding on each face.
More candles, more lanterns, more neighbours,
more insects, and the endless rain.
My mother twisted through and through,
groaning on a mat.
My father, sceptic, rationalist,
trying every curse and blessing,
powder, mixture, herb and hybrid.
He even poured a little paraffin
upon the bitten toe and put a match to it.
I watched the flame feeding on my mother.
I watched the holy man perform his rites to tame the poison with an incantation.
After twenty hours
it lost its sting.

My mother only said
Thank God the scorpion picked on me
And spared my children.

--- Nissim Ezekiel

14 दिसंबर 2019

Nostalgia

When I was a boy
Nostalgia was a tiny stamp
I was at this end
My mother at that

When I grew up
Nostalgia was a slim steamer ticket
I was at this end
My bride at that


Years later
Nostalgia was a squatty tomb
I was out
My mother was in


But now
Nostalgia is a shallow strait
I am at this shore
The mainland is at that

--- Yu Guangzhong

13 दिसंबर 2019

गामा और लामा

गामा आए गाम पर !

जन-गण जय-जयकार मचाते
भारत-भाग्य-विधाता गाते
पत्रकारगण धाते आते
फोकस देते चाम पर !

लामा उतरे लाम पर !

हन-हन-हन हथियार चलाते
विरोधियों के किले ढहाते
ह्त्या करते, खून बहाते
धरम-करम के नाम पर !

लहू दामनेदाम पर !
लहू दामनेबाम पर !
कवि-कोकिल-कुल चाय चुसकते
कविता करते शाम पर !

--- राकेश रंजन

8 दिसंबर 2019

जब मैं ज़िंदा हूँ

मरने को चे ग्वेरा भी मर गए,
और चंद्रशेखर भी,
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है।
सब ज़िंदा हैं,
जब मैं ज़िंदा हूँ,
इस अकाल में।
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में।
अनेकों बार मुझे मारा गया है,
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अख़बारों में, पत्रिकाओं में,
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं, मैं ज़िंदा हूँ,
और गा रहा हूं!

--- रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’

4 दिसंबर 2019

नयी-नयी आँखें हों

नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।

मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।

मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।

चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं
जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है ।

हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।

--- निदा फ़ाज़ली

2 दिसंबर 2019

नयी हँसी

महासंघ का मोटा अध्यक्ष
धरा हुआ गद्दी पर खुजलाता है उपस्थ
सर नहीं,
हर सवाल का उत्तर देने से पेश्तर

बीस बड़े अख़बारों के प्रतिनिधि पूछें पचीस बार
क्या हुआ समाजवाद
कहे महासंघपति पचीस बार हम करेंगे विचार
आँख मारकर पचीस बार वह, हँसे वह पचीस बार
हँसे बीस अख़बार
एक नयी ही तरह की हँसी यह है

पहले भारत में सामूहिक हास परिहास तो नहीं ही था
लोग आँख से आँख मिला हँस लेते थे
इसमें सब लोग दायें-बायें झाँकते हैं
और यह मुँह फाड़कर हँसी जाती है।
राष्ट्र को महासंघ का यह सन्देश है
जब मिलो तिवारी से-हँसो-क्योंकि तुम भी तिवारी हो
जब मिलो शर्मा से-हँसो-क्योंकि वह भी तिवारी हो
जब मिलो शर्मा से- हँसो- क्योंकि वह भी तिवारी है

जब मिलो मुसद्दी से
खिसियाओ
जातपाँत से परे
रिश्ता अटूट है
राष्ट्रीय झेंप का।
---रघुवीर सहाय

1 दिसंबर 2019

The Interrogation

for Witek Piatkowski

They beat him all day, and the next. Nothing doing.
They beat him 'round the clock, all week.
'Talk, talk,' they shouted, 'we know everything!
We know your alias! And your name!'
They showed his ID, banged his head on the table.
'Say just one sentence! just one word!'
They showed him his passport, foreign visas,
books and secret documents from the lining of his suitcase,
but then when they showed him his English tommy gun
he said, 'take away the tablecloth, I'm going to throw up.'
That's all he said. He was black and blue.
They took him to Majdanek, locked him behind the wire.
At night he cut the wire, escaped right under the sentries' eyes.
What use is glory if this memory dies?

---Tadeusz Borowski

23 नवंबर 2019

विचार आते हैं

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
बोझ ढोते वक़्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चांद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
...पत्थर ढोते वक़्त
पीठ पर उठाते वक़्त बोझ
साँप मारते समय पिछवाड़े
बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं
नक्शे बनते हैं भौगोलिक
पीठ कच्छप बन जाती है
समय पृथ्वी बन जाता है...

---गजानन माधव मुक्तिबोध

22 नवंबर 2019

'शायरी मैंने ईजाद की'

काग़ज़ मराकेशों ने ईजाद किया
हुरूफ़ फ़ोनेशनों ने
शायरी मैंने ईजाद की

क़ब्र खोदने वाले ने तंदूर ईजाद किया
तंदूर पर क़ब्ज़ा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई
रोटी लेने वाले ने क़तार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा

रोटी की क़तार में जब चींटियाँ आ कर खड़ी हो गईं
तो फ़ाक़ा ईजाद हो गया
शहतूत बेचने वाले ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिए लिबास बनाया
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महलसरा ईजाद की
जहाँ जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया

फ़ासले ने घोड़े के चार पाँव ईजाद किए
तेज़ रफ़तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ़्तार रथ के आगे लिटा दिया गया

मगर उस वक़्त तक शायरी मुहब्बत को ईजाद कर चुकी थी
मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने ख़ेमा और कश्तियाँ बनाईं
और दूर-दराज़ के मक़ामात तय किए

ख़्वाजासरा ने मछली पकड़ने का कांटा ईजाद किया
और सोये हुए दिल में चुभोकर भाग गया
दिल में चुभे हुए कांटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद हुई

और
जब्र ने आख़री बोली ईजाद की
मैंने सारी शायरी बेच कर आग ख़रीदी
और जब्र का हाथ ज़ला दिया
--- अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

15 नवंबर 2019

Mimesis

My daughter
wouldn't hurt a spider
That had nested
Between her bicycle handles
For two weeks
She waited
Until it left of its own accord

If you tear down the web I said
It will simply know
This isn’t a place to call home
And you’d get to go biking

She said that’s how others
Become refugees isn’t it?

--- Fady Joudah

14 नवंबर 2019

The Average Child

I don’t cause teachers trouble;
My grades have been okay.
I listen in my classes.
I’m in school every day.
My teachers think I’m average;
My parents think so too.
I wish I didn’t know that, though;
There’s lots I’d like to do.

I’d like to build a rocket;
I read a book on how.
Or start a stamp collection…
But no use trying now.

’Cause, since I found I’m average,
I’m smart enough you see
To know there’s nothing special
I should expect of me.

I’m part of that majority,
That hump part of the bell,
Who spends his life unnoticed
In an average kind of hell.

~ Mike Buscemi

9 नवंबर 2019

मैं यह कविता तुम्हें सौंपता हूं

मैं यह कविता तुम्हें सौंपता हूं
चूंकि मेरे पास देने को और कुछ नहीं
इसे एक गर्म कोट की तरह रखना
जब ठंड तुम्हें जकड़ने आए
या एक जोड़ी मोटे जुराबों की तरह
जिनके पार नहीं जा सकती है ठंड,

मैं तुम्हें प्यार करता हूं,

मेरे पास तुम्हें देने को और कुछ नहीं
इसलिए यह मक्के से भरा हुआ बर्तन लो
ठंड में तुम्हारे पेट को उष्ण रखने के लिए
तुम्हारे सिर के लिए स्कार्फ है यह,
जिसे तुम बांध सकती हो अपने केशों पर
अपने चेहरे के चारों तरफ लपेट सकती हो,

मैं तुमसे प्यार करता हूं,

रखो इसे, संभालो इसे जब तुम खो जाओगी
हो जाओगी दिशाहीन जीवन के वन में,
जब जीवन होगा गंभीर
अपने दराज के कोने में रखो इसे
जैसे हो यह कोई शरणस्थली या
घने जंगल के बीच एक झोंपड़ी
आना द्वार पर तुम और मैं दूंगा तुम्हें उत्तर, दूंगा दिशाज्ञान,
और तुम्हें सेंकने दूंगा जलती हुई आग,
आराम करो और स्वयं को समझो सुरक्षित,

मैं तुमसे प्यार करता हूं,

मेरे पास देने को इतना ही है
और इतना ही जीने के लिए चाहता है कोई
और अंतर तुम्हारा जीवित रहे
भले ही बाहर की दुनिया
न करे परवाह कि तुम जिंदा हो कि मर गई
रखना याद,

मैं तुम्हें प्यार करता हूं.

--- Jimmy Santiago Baca, अनुवादक: उपासना झा

12 अक्तूबर 2019

जो हुआ सो हुआ

उठ के कपड़े बदल
उठ के कपड़े बदल
घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ॥

जब तलक साँस है
भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के कांधे पे हल
खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ॥

खून से तर-ब-तर
कर के हर राहगुज़र
थक चुके जानवर
लड़कियों की तरह
फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ॥

जो मरा क्यों मरा
जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम
इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ॥

मंदिरों में भजन
मस्ज़िदों में अज़ाँ
आदमी है कहाँ
आदमी के लिए
एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ।।

--- निदा फ़ाज़ली

8 अक्तूबर 2019

सावधानी

जो बहुत बोलता हो,
उसके साथ कम बोलो l
जो हमेशा चुप रहे,
उसके सामने हृदय मत खोलो l

--- रामधारी सिंह दिनकर

2 अक्तूबर 2019

ऐ शरीफ़ इंसानो

खून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का खून है आखिर
जंग मशरिक में हो कि मगरिब में
अमने आलम का खून है आखिर

बम घरों पर गिरें के सरहद पर
रूहे तामीर जख्म खाती है
खेत अपने जलें कि औरों के
जीस्त फाकोंसे तिलमिलाती है

टैंक आगे बढ़ें के पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है
फतह का जश्नहो कि हार का सोग
जिंदगी मीयतों पे रोती है

जंग तो खुद एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
आग और खून आज बख्शेगी
भूख और ऐतजाज़ कल देगी

इस लिऐ ऐ शरीफ इन्सानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आंगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है

---साहिर लुधियानवी

30 सितंबर 2019

एक पूरी उम्र

यक़ीन मानिए
इस आदमख़ोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
लगता है कि अभी बस अभी
ठकुराइसी मेड़ चीख़ेगी
मैं अधशौच ही
खेत से उठ आऊँगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी से भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खाँसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बाँध मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा

---मलखान सिंह

18 सितंबर 2019

कोसल में विचारों की कमी है!

महाराज बधाई हो!
महाराज की जय हो।
युद्ध नहीं हुआ
लौट गए शत्रु।

वैसे हमारी तैयारी पूरी थी!
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएँ,
दस सहस्र अश्व,
लगभग इतने ही हाथी।

कोई कसर न थी!
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता।

न उनके पास अस्त्र थे,
न अश्व,
न हाथी,
युद्ध हो भी कैसे सकता था?
निहत्थे थे वे।

उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है!

जो भी हो,
जय यह आपकी है!
बधाई हो!
राजसूय पूरा हुआ,
आप चक्रवर्ती हुए

वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह :

कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!

--- श्रीकांत वर्मा

15 सितंबर 2019

कितना चौड़ा पाट नदी का

कितना चौड़ा पाट नदी का,
कितनी भारी शाम,
कितने खोए–खोए से हम,
कितना तट निष्काम,
कितनी बहकी–बहकी सी
दूरागत–वंशी–टेर,
कितनी टूटी–टूटी सी
नभ पर विहगों की फेर,
कितनी सहमी–सहमी–सी
जल पर तट–तरु–अभिलाषा,
कितनी चुप–चुप गयी रोशनी,
छिप छिप आई रात,
कितनी सिहर–सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात,
चार नयन मुस्काए, खोए,
भीगे, फिर पथराए,
कितनी बड़ी विवशता,
जीवन की, कितनी कह पाए!

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

14 सितंबर 2019

सरकारी हिन्दी

डिल्लू बापू पंडित थे
बिना वैसी पढ़ाई के
जीवन में एक ही श्लोक
उन्होंने जाना
वह भी आधा
उसका भी वे
अशुद्ध उच्चारण करते थे
यानी ‘त्वमेव माता चपिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश चसखा त्वमेव’
इसके बाद वे कहते
कि आगे तो आप जानते ही हैं
गोया जो सब जानते हों
उसे जानने और जनाने में
कौन-सी अक़्लमंदी है ?
इसलिए इसी अल्प-पाठ के सहारे
उन्होंने सारे अनुष्ठान कराये
एक दिन किसी ने उनसे कहा:
बापू, संस्कृत में भूख को
क्षुधा कहते हैं
डिल्लू बापू पंडित थे
तो वैद्य भी उन्हें होना ही था
नाड़ी देखने के लिए वे
रोगी की पूरी कलाई को
अपने हाथ में कसकर थामते
आँखें बन्द कर
मुँह ऊपर को उठाये रहते
फिर थोड़ा रुककर
रोग के लक्षण जानने के सिलसिले में
जो पहला प्रश्न वे करते
वह भाषा में
संस्कृत के प्रयोग का
एक विरल उदाहरण है
यानी ‘पुत्तू ! क्षुधा की भूख
लगती है क्या ?’
बाद में यही
सरकारी हिन्दी हो गयी

---पंकज चतुर्वेदी

8 सितंबर 2019

Preface

"चुटकुलों, भँड़ैती, विद्रूप से मज़ेदार बनी
कविता अब भी ख़ुश करना जानती है।
तब उसकी श्रेष्ठता को बहुत सराहा जाता है।
किन्तु जहाँ ज़िंदगी दाँव पर लगी हो ऐसी संगीन लड़ाइयाँ
गद्य में लड़ी जाती हैं। ऐसा हमेशा नहीं था।

और हमारा पछतावा अनक़ुबूला रह गया है।
उपन्यास और निबन्ध काम आते हैं, लेकिन टिकेंगे नहीं।
एक साफ़ छन्द ज़्यादा वज़न सँभाल सकता है
जटिल गद्य के एक समूचे मालगाड़ी के डिब्बे की बनिस्बत।"

--चेस्वाव मिवोश ('प्राक्कथन' शीर्षक कविता से)

{अनुवाद : विष्णु खरे}

"First, plain speech in the mother tongue.
Hearing it, you should be able to see
Apple trees, a river, the bend of a road,
As if in a flash of summer lightning.

And it should contain more than images.
It has been lured by singsong,
A daydream, melody. Defenseless,
It was bypassed by the sharp, dry world.

You often ask yourself why you feel shame
Whenever you look through a book of poetry.
As if the author, for reasons unclear to you,
Addressed the worse side of your nature,
Pushing aside thought, cheating thought.

Poetry, seasoned with satire, clowning,
Jokes, still knows how to please.
Then its excellence is much admired.
But serious combat, where life is at stake,
Is fought in prose. It was not always so.

And our regret has remained unconfessed.
Novels and essays serve but will not last.
One clear stanza can take more weight
Than a whole wagon of elaborate prose."

--Czeslaw Milosz {from 'Preface'}

5 सितंबर 2019

दस्तूर

दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से

ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो

चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
---हबीब जालिब

4 सितंबर 2019

तैयार रहे…...

तैयार रहे…...

हिंसक भीड़ के हाथों,
पीटे जाने के लिए.
बार-बार,
बहानों से घेरे जाने के लिए,
असहमतियों के चलते,
मारे जाने के लिए,
तैयार रहें.

तैयार रहें
क्योंकि
धर्म,संस्कृति,सभ्यता पर,
चढांई जाती है,
धार.

तैयार रहे कि
आबादी के बिना भी,
बनाए जा सकतेे है देश.

शिक्षा-अध्यापकों के बिना,
महज टैंक खड़े करके भी,
बनाए जा सकते है विश्वविद्यालय.

उसी तरह जैसे,
अफवाहों, मिथकीय परिकल्पनाओं,
श्रद्धा और भावनाओं पर,
बिजूके की तरह ,
खड़ा किया जा सकता है,
कलफ लगा इतिहास.

तैयार रहो,
कि लोक को मिटा कर भी,
खड़ा किया जा सकता है तन्त्र.

तैयार रहो कि ,
एक दशक पहले तक,
जिनसे बचते चलते थे तुम.
आज उन्होंने तुम्हें भी समेट लिया है.

इसलिए,
पंखनुचे फड़फडा़ते परिन्दों की तरह,
अर्थ विहीन शब्दों से कामचलाने के लिए,
तैयार रहें.

अब इंसान ही नही,
संस्थाओं, संकल्पनाओं और
संस्कृतियों की हत्याएं भी मुमकिन हैं.
इसलिए अलग-अलग मौकों पर,
अलग-अलग बहानों से,
मारे जाने के लिए,
तैयार रहें.

तैयार रहें
कि अगली माबलिंचिंग,
किसी सड़क,गली या कस्बे में नही,
किसी सदन में भी मुमकिन है,
जहां पूरे के पूरे देश को ,
पीट-पीट कर बेदम किया जा सकता है.

आप बस अच्छे नागरिक बने,
सवाल ना करें और,
तैयार रहें...

---Ashrut Parmanand

2 सितंबर 2019

अंत्येष्टि से पूर्व

अंत्येष्टि से पूर्व
हे देव,
मुझे बिजलियाँ, अँधेरे और साँप
डरा देते हैं
मुझे घने जंगल की नागरिकता दो
मेरे भय को मित्रता करनी होगी जंगल से
रहना होगा साहसी!

हे देव,
मैंने एक जगह रुक वर्षों आराम किया
मुझे वायु बना दो
मैं कृषकपुत्रों की गीली बनियानों
और रोमछिद्रों में
समर्पित करूँ स्वयं को!

हे देव,
मैं अपने माता-पिता की सेवा न कर सकी
मुझे सुशीतल ओस बना दो
मैं गिरूँ वृद्धाश्रम के आँगन की घास पर
वे रखें मुझ पर पाँव और
मैं उन्हें स्वस्थ रखूँ

हे देव,
मैं कभी सावन में झूली नहीं
मुझे झूले की मज़बूत गाँठ बना दो
मैं उन सभी स्त्रियों और बच्चों को सुरक्षित रखूँ
जो पटके पर खिलखिलाते हुए बैठें
और तृप्त हो उतरें!

हे देव,
कुछ लोगों ने छला है मुझे
मुझे वटवृक्ष बना दो
सैकड़ों पक्षी मेरे भरोसे भरें भोर में उड़ान और
रात भर करें मुझमें विश्राम
मैं उन्हें विश्वसनीय और सुरक्षित नींद दूँ!

हे देव,
मेरा सब्र है एक संपन्न नवजात शिशु
वह प्रतिपल देखभाल माँगता है
मुझे एक हज़ार आठ मनकों वाली
रुद्राक्ष की माला बना दो
मेरे सब्र को होना होगा अनगढ़!

हे देव,
मुझे पत्रों की प्रतीक्षा रहती है
मुझे घाटी के प्रहरियों की
प्रेमिकाओं का दूत बना दो
उन्हें भी होता होगा संदेशों का मोह
मैं दिलासा दे उन्हें व्योम कर सकूँ!

हे देव,
मैंने प्रश्नों के बीज बोए
वे कभी फूल बन न खिल सकें
मुझे भूरी संदली मिट्टी बना दो
मैं तप कर और भीग कर रचूँ
अनेकों खलिहान!

हे देव,
मैं धरती और सितारों के बीच
बेहद बौनी लगती हूँ
मुझे पहाड़ बना दो
मैं बादल के फाहों पर आकृतियाँ बना
उन्हें मनचाहा आकार दूँ!

हे देव,
मैं अपनी पकड़ से फिसल कर
नहीं रच पाती कोई दंतकथा
मुझे काँटेदार रास्ता बना दो
मेरे तलवों को दरकार है अनुभव
टीस और मवाद और ठहराव के!

हे देव,
चिकने फ़र्श पर मेरे पैर फिसलते हैं
मुझे छिले हुए पंजे दो
मेरे पंजों की छाप
सबको चौराहों का संकेत दे
और बताए रास्ता!

हे देव,
मेरे आँसू घुटने पर बहने को तत्पर रहते हैं
मुझे मरुस्थल बना दो
सूखी धरा और उसकी वीरानियों को
यह हक़ है कि
मेरे आँसुओं को वे दास बना लें!

हे देव,
प्रेम मेरी नब्ज़ पकड़
मेरी तरंगें नापता है
मुझे बोधिसत्व का ज़ख़ीरा बना दो
त्याग मेरा कर्म हो
मुझे अस्वीकार का अधिकार चाहिए!

हे देव,
मेरे कुछ सपने अधूरे रह गए हैं
मुझे संभव और असंभव के बीच की दूरी बना दो
मैं पथिकों का बल बनूँ
उनकी राह की
बनूँ जीवन-कथा!

हे देव,
मैंने अब तक
पुलों पर सफ़र किया है
शहर के पुल बेहद कमज़ोर हैं
मुझे तैराक बना दो कि
मैं हर शहरी बच्चे को तैरना सिखा सकूँ!

हे देव,
मेरे बहुत से दिवस बाँझ रहे हैं
मुझे गर्भवती बना दो
मेरी कोख से जन्मे कोई इस्पात
जो ढले और गले केवल संरक्षण करने को
सभ्यताओं को जोड़े रखे!

हे देव,
मैं अपनी
कविताओं की किताब न छपवा सकी
मुझे स्याही बना दो
मैं समस्त कवियों की लेखनी में जा घुलूँ
और रचूँ इतिहास!

--- जोशना बैनर्जी आडवानी

23 अगस्त 2019

उपचार

बेवफ़ा प्रेमिका से तुम्हारे टूटे हुए दिल का उपचार
तुम करो तीन प्रक्रियाओं से आबद्ध
पहला कि उसे जाने दो
दूसरा कि करो स्वीकार कि तुम्हारी जगह किसी और को लाएगी
अपने बिस्तर पर सजाएगी
और तीसरा कि करो कल्पना वास्तविक
कि वह रही नहीं
वह मर गई पिछले वर्ष सितंबर में
हो एक सड़क हादसे का शिकार

--- Shayak Alok

21 अगस्त 2019

Poetry and prose

Sometimes I am caught
between poetry and prose, like two lovers
I can't decide between.

Prose says to me, let's build
something long and lasting.
Poetry takes me by the hand,
and whispers, come with me,
let's get lost for awhile.

--- Lang Leav

19 अगस्त 2019

औरतें हैं हम

औरतें हैं हम
खाना नहीं हैं
मेज़ पर धरा हुआ
छिलो, हड्डियाँ निकालो
भर लो अपना पेट
कूड़ा नहीं है कूड़ेदान में समा जाने के लिए

औरतें हैं हम
गुड़ियाँ नहीं
जिनसे खेलो, उतार दो कपड़े
तैयार करो, क़ैद करो
एक पालने में और सजा दो
एक शेल्फ पर

औरतें हैं हम
ज़मीन नहीं हैं जिसे खोदोगे ताम्बे
रत्न और स्वर्ण के लिए
उगाओ और परती छोड़ दो
फसल के बाद

गीली मिट्टी सा उसे
रौंदो या बना दो
एक गोद कंकालों के लिए

औरतें हैं हम
मनुष्य भी
रोबोट या चिथड़े नहीं
न ही बर्तन न शौचालय
सपना नहीं हैं जिसका मन नहीं कोई
तसवीर नहीं हैं भागो तुम जिसके पीछे
उड़ते बादल पर बैठकर

औरतें हैं हम
धात्रियाँ संतानों की
दुनिया के वारिसों की
हम जानती हैं करना अंतर
आकारों में दिन और रात में
अलग कर सकती हैं हम
इंद्रधनुष के रंग

हम जानती हैं सम्भालना
एक ढहती हुई आत्मा को
जानती हैं प्यार करना
एक सोचने वाले दिल को
हम जानती हैं भिड़ जाना
और सीधा करना टेढों को
बागबानी करते हुए
सँवारना दुनिया को ।

--- Marra Lanot (हिंदी अनुवाद : Su Jata)

15 अगस्त 2019

जन गण मन अधिनायक जय हे !

जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेजी के गायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय समाजवादी रंगवाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय हे जमींदार पूँजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतंत्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे

जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुंदरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे

--- गोरख पाण्डेय

10 अगस्त 2019

जिहाल-ए-मिस्कीं

जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।

कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।

ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।

--- गुलज़ार

9 अगस्त 2019

सुनो ब्राह्मण

हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें।
तुम, हमारे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर।
शाम को थककर पसर जाओ धरती पर
सूँघो खुद को
बेटों को, बेटियों को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से।

---मलखान सिंह

5 अगस्त 2019

राजे-महाराजे

राजे-महाराजे,
अब मुकुट पहन कर नहीं आते,
होती है उन्होंने जम्हूरियत की पोशाक पहनी,
बताने तुम्हे क्या गलत है और क्या सही,
तुम उनसे सवाल नहीं पूछते,
क्यूंकि राजाओं से सवाल नहीं पूछे जाते.

राजे,
अब तलवार लेकर नहीं आते,
वो आते हैं हाथों में संविधान ले कर,
जो पहले करता है उनके चुने जाने का मार्ग तय,
फिर उसे ही काट कर छाँट कर,
खुद के लिए उसे और मज़बूत हैं बनाते,
हम उनके बगलों में रखी छुरियां नहीं देख पाते,

राजे,
अब सेना नहीं इकट्ठा करते,
वो जुटाते हैं एक बिना वर्दी की गुमनाम भीड़,
सर्वव्यापी सर्वशक्तिशाली फिर भी धुंए सी अर्थहीन,
जिसके अट्टहासों या कीबोर्ड की खुट खुट से
कुछ उठती आवाजें हो जाती हैं शांत में विलीन,
तो कभी चलतीं हैं सड़कों पर करती न्याय
उन स्रोतों को हमेशा के लिए मिटाते.

राजे,
अब पैगाम या सन्देश ढोल से नहीं भिजवाते,
बुलेट प्रूफ खेमे से वो देते हैं राष्ट्र के नाम सन्देश,
रख रखे हैं उन्होंने कुछ सन्देश वाहक,
जो उनकी ज़ेबों से झाँक कर गला फाड़ कर,
या जनता को नाग नागिन के डांस में रख उलझा,
कर देते हैं समस्या का दहन उसके ज़िन्दा रहते,

राजे ,
न कभी गए थे वो और न कहीं हैं वो जाते,
भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है,
और जहाँ प्रजा है वहां तो होंगे ही राजे,
तुम्हे आज़ादी का एहसास कराते.
इसलिए प्रजा की सरकार में,
प्रजा के लिए प्रजा द्वारा,
अब चुने जाते हैं राजे.

---अभय मिश्र

आग़ा शाहिद अली की कविताएं

मैदानों के मौसम

कश्मीर में, जहां साल में
चार चिन्हित अलग-अलग मौसम होते हैं
अम्मी अपने लखनऊ के मैदानी इलाके में बीते बचपन की बात करती हैं
और उस मौसम की भी,
मानसून,
जब कृष्ण की बांसुरी
जमुना के किनारों पर सुनाई देती है.
वह बनारस के ठुमरी गायकों के पुराने रिकार्ड्स बजाया करती थीं—
सिद्धेश्वरी और रसूलन,
उनकी आवाजों में चाह होती,
जब भी बादल जमा होते,
उस अदृश्य, नीले भगवान के लिए. बिछोह
संभव नहीं है जब बारिशें आती हैं,
उनके हर गीत में यह होता था.
जब बच्चे दौड़ते थे गलियों में
अपनी अपनी उष्णता को भिंगोते हुए,
प्रेमियों के बीच
चिट्ठियां बदल ली जाती थीं.
हीर-रांझा और दूसरे कई किस्से,
उनका प्रेम, कुफ़्र.
और फिर सारी रात जलते हुए खुशबू की तरह
होता जवाब का इंतजार. अम्मी
हीर का दर्द गुनगुनाती थीं
पर मुझसे कभी नहीं कहा
कि क्या उन्होंने भी जैस्मिन की अगरबत्तियां
जलाईं जो, खाक होते हुए,
राख की छोटी मुलायम चोटियां
बनाती जाती हैं. मैं कल्पना करता था कि
हर चोटी उमस भरी हवा पर
लद जाती है.
अम्मी बस इतना कहती थीं :
मानसून कभी पहाड़ों को फांद कर
कश्मीर नहीं आता.

चांदनी चौक, दिल्ली

इस गर्मी के चौराहे को निगल जाओ
और फिर मानसून का इंतजार करो.
बारिश की सूइयां
जीभ पर पिघल जाती हैं. थोड़ी दूर
और जाओगे? सूखे की एक याद
जकड़ती है तुमको : तुम्हें याद आता है
भूखे शब्दों का स्वाद
और तुमने नमक के अक्षर चबाए थे.
क्या तुम इस शहर को पाक कर सकते हो
जो कटी हुई जीभ पर खून की तरह जज्ब होता है?

कश्मीर से आया ख़त

कश्मीर सिमट जाता है मेरे मेलबॉक्स में.
चार गुने छह का सुलझा हुआ मेरा घर.
मुझे साफ चीजों से प्यार था हमेशा. अब
मेरे हाथों में है आधा इंच हिमालय.
ये घर है. और ये सबसे करीब
जहां मैं हूं अपने घर से. जब मैं लौटूंगा,
ये रंग इतने बेहतरीन नहीं होंगे,
झेलम का पानी इतना साफ,
इतना गहरा नीला. मेरी मुहब्बत
इतनी जाहिर.
और मेरी याद धुंधली होगी थोड़ी
उसमे एक बड़ा नेगेटिव,
काला और सफेद, अभी भी पूरा रौशन नहीं.

---आग़ा शाहिद अली
अनुवाद और प्रस्तुति : अंचित

4 अगस्त 2019

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो

पत्थरों में भी ज़ुबाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर की दर-ओ-दीवार सजा कर देखो

फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढा़ कर देखो

--- निदा फ़ाज़ली

2 अगस्त 2019

एक ट्रक आयेगा

कभी वे चाँद पर
जाने की बात करते हैं
कभी बाघों के
दर्शन के लिए
अभयारण्य की सैर

सिर्फ़ हत्या
और बलात्कार पर
कुछ नहीं कहते

वह तो आये दिन का
कारोबार है
उस पर क्या कहना ?

एक ट्रक आयेगा
इंसाफ़ की उम्मीदों को
कुचलता चला जायेगा

आप इस ट्रक पर बैठ सकें
तो चाँद की
सैर कर सकते हैं
अभयारण्य की भी

---पंकज चतुर्वेदी

30 जुलाई 2019

बहिष्कार

आइए, इस नये वर्ष में
बहिष्कार करें
ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद और
पूँजीवाद का,
इससे जन्मे जातिवाद और
फ़ासीवाद का।
बहिष्कार करें उस राजनीति का
जो निभा रही है पुष्यमित्र की भूमिका।
बहिष्कार करें उस चिन्तन का
जिसके मूल में हिन्दुत्व का पुनरोत्थान
शिवाजी और पेशवा शासन की
स्थापना का लक्ष्य है,
जिनमें अछूतों को कमर में बाँधकर झाड़ू
गले में लटकाकर हांड़ी
चलने की राज्याज्ञा थी।
बहिष्कार करें उस साहित्य का
जो जन्मा है पुराणों के मिथकों से
जो विरोधी है लोकतन्त्र का
समर्थक है रामलला के राज्य का
जो स्वर्ग था द्विजों का
जिसमें शूद्र-अछूतों के विकास
के रास्ते सख़्ती से बन्द थे
बहिष्कार करें उन आलोचकों का
जो समाजवाद के कैप्सूल में
भर रहे हैं ब्राह्मणवाद
जो नववाद की आड़ में
स्थापित कर रहे हैं सामन्ती मूल्य
जो सिद्ध कर रहे हैं
पथ-भ्रष्टक तुलसीदास को पथ-प्रदर्शक
रूढ़िवादी निराला को प्रगतिवाद का जनक
जिन्हें इस देश का पूँजीवाद
बाँट रहा है पुरस्कार
ताकि वे इसी तरह करते रहें / सत्य का संहार
बहिष्कार करें उस पत्रकारिता का
जो बहुत सूक्ष्म साज़िश के तहत
साम्प्रदायिकता और धर्म-सापेक्षता
की बनी हुई है संवाहिका
उगल रही है कुछ वर्गों के ख़िलाफ़ ज़हर
ढा रही है भारत की एकता पर क़हर
आइए, इसे नये वर्ष में स्वीकार करें
स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता को
न केवल चिन्तन में / न केवल लेखन में
बल्कि व्यवहार में, आचरण में, संस्कार में
मनुष्य और देश के विकास के लिए
विघटन के समूल नाश के लिए।

---कंवल भारती

25 जुलाई 2019

Oranges

The first time I walked
With a girl, I was twelve,
Cold, and weighted down
With two oranges in my jacket.

December. Frost cracking
Beneath my steps, my breath
Before me, then gone,
As I walked toward
Her house, the one whose
Porch light burned yellow
Night and day, in any weather.

A dog barked at me, until
She came out pulling
At her gloves, face bright
With rouge. I smiled,
Touched her shoulder, and led
Her down the street, across
A used car lot and a line
Of newly planted trees,
Until we were breathing
Before a drugstore. We
Entered, the tiny bell
Bringing a saleslady
Down a narrow aisle of goods.

I turned to the candies
Tiered like bleachers,
And asked what she wanted -
Light in her eyes, a smile
Starting at the corners
Of her mouth. I fingered
A nickle in my pocket,
And when she lifted a chocolate
That cost a dime,
I didn’t say anything.

I took the nickle from
My pocket, then an orange,
And set them quietly on
The counter. When I looked up,
The lady’s eyes met mine,
And held them, knowing
Very well what it was all
About.

Outside,
A few cars hissing past,
Fog hanging like old
Coats between the trees.
I took my girl’s hand
In mine for two blocks,
Then released it to let
Her unwrap the chocolate.
I peeled my orange
That was so bright against
The gray of December
That, from some distance,
Someone might have thought
I was making a fire in my hands.

--- Gary Soto

20 जुलाई 2019

आत्मा परमात्मा की व्यंजना है

आत्मा परमात्मा की व्यंजना है
क्या पता ये सत्य है या कल्पना है

देश को क्या देखते हो पोस्टर में
आदमी देखो मुकम्मल आइना है

क्या गिरेगा पेड़ वो इन आन्धियो से
जिसकी जड़ में गाँव भार की प्रार्थना है

उसके सपनों को शरण मत दीजिएगा
इनको आखिर बाढ़ में ही डूबना है

इन अन्धेरो को अभी रखना नज़र में
क्योंकि इनमें सूर्य की सम्भावना है

--- अश्वघोष

17 जुलाई 2019

कचहरी न जाना

भले डांट घर में तू बीबी की खाना

भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी न जाना

कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है

कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे

कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चुमतें है

कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे

कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे

लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है

कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है

मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया -बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया

धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा

कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना

कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी ||

--- कैलाश गौतम

10 जुलाई 2019

पांच पूत भारत माता के

पांच पूत भारत माता के, दुश्मन था खूंखार

गोली खाकर एक मर गया, बाकी रह गए चार |

चार पूत भारत माता के, चारों चतुर प्रवीन,

देश निकाला मिला एक को, बाकी रह गए तीन |

तीन पुत्र भारत माता के, लड़ने लग गए वो,

अलग हो गया इधर एक, अब बाकी रह गए दो |

दो बेटे भारत माता के, छोड़ पुरानी टेक,

चिपक गया है इक गद्दी से, बाकी रह गया एक |

एक पुत्र भारत माता का, कंधे पर है झंडा,

पुलिस पकड़ के जेल ले गई, बाकी रह गया अंडा |

--- बाबा नागार्जुन

4 जुलाई 2019

Power

The difference between poetry and rhetoric
is being ready to kill
yourself
instead of your children.

I am trapped on a desert of raw gunshot wounds
and a dead child dragging his shattered black
face off the edge of my sleep
blood from his punctured cheeks and shoulders
is the only liquid for miles
and my stomach
churns at the imagined taste while
my mouth splits into dry lips
without loyalty or reason
thirsting for the wetness of his blood
as it sinks into the whiteness
of the desert where I am lost
without imagery or magic
trying to make power out of hatred and destruction
trying to heal my dying son with kisses
only the sun will bleach his bones quicker.

A policeman who shot down a ten year old in Queens
stood over the boy with his cop shoes in childish blood
and a voice said “Die you little motherfucker” and
there are tapes to prove it. At his trial
this policeman said in his own defense
“I didn't notice the size nor nothing else
only the color”. And
there are tapes to prove that, too.

Today that 37 year old white man
with 13 years of police forcing
was set free
by eleven white men who said they were satisfied
justice had been done
and one Black Woman who said
“They convinced me” meaning
they had dragged her 4'10'' black Woman's frame
over the hot coals
of four centuries of white male approval
until she let go
the first real power she ever had
and lined her own womb with cement
to make a graveyard for our children.

I have not been able to touch the destruction
within me.
But unless I learn to use
the difference between poetry and rhetoric
my power too will run corrupt as poisonous mold
or lie limp and useless as an unconnected wire
and one day I will take my teenaged plug
and connect it to the nearest socket
raping an 85 year old white woman
who is somebody's mother
and as I beat her senseless and set a torch to her bed
a greek chorus will be singing in 3/4 time
“Poor thing. She never hurt a soul. What beasts they are.”

---Audre lorde

30 जून 2019

बात

मुँह से निकली बात
और वह
हवा सरीखी सरपट भागी
जा पहुँची
बाँसों के वन में !

रोकूँ टोकूँ तब तक
वह तो
लपट उठती दावानल-सी
फैल गई-
पूरे कानन में !!

--- प्रेमशंकर रघुवंशी

20 जून 2019

Home

no one leaves home unless
home is the mouth of a shark
you only run for the border
when you see the whole city running as well

your neighbors running faster than you
breath bloody in their throats
the boy you went to school with
who kissed you dizzy behind the old tin factory
is holding a gun bigger than his body
you only leave home
when home won’t let you stay.

no one leaves home unless home chases you
fire under feet
hot blood in your belly
it’s not something you ever thought of doing
until the blade burnt threats into
your neck
and even then you carried the anthem under
your breath
only tearing up your passport in an airport toilets
sobbing as each mouthful of paper
made it clear that you wouldn’t be going back.

you have to understand,
that no one puts their children in a boat
unless the water is safer than the land
no one burns their palms
under trains
beneath carriages
no one spends days and nights in the stomach of a truck
feeding on newspaper unless the miles travelled
means something more than journey.
no one crawls under fences
no one wants to be beaten
pitied

no one chooses refugee camps
or strip searches where your
body is left aching
or prison,
because prison is safer
than a city of fire
and one prison guard
in the night
is better than a truckload
of men who look like your father
no one could take it
no one could stomach it
no one skin would be tough enough

the
go home blacks
refugees
dirty immigrants
asylum seekers
sucking our country dry
niggers with their hands out
they smell strange
savage
messed up their country and now they want
to mess ours up
how do the words
the dirty looks
roll off your backs
maybe because the blow is softer
than a limb torn off

or the words are more tender
than fourteen men between
your legs
or the insults are easier
to swallow
than rubble
than bone
than your child body
in pieces.
i want to go home,
but home is the mouth of a shark
home is the barrel of the gun
and no one would leave home
unless home chased you to the shore
unless home told you
to quicken your legs
leave your clothes behind
crawl through the desert
wade through the oceans
drown
save
be hunger
beg
forget pride
your survival is more important

no one leaves home until home is a sweaty voice in your ear
saying-
leave,
run away from me now
i dont know what i’ve become
but i know that anywhere
is safer than here

--- Warsan Shire

10 जून 2019

Questioning Your Feminism

By those immaculate efforts
Of our handsome Bodhisattva
We both have acquired
The privilege of reading and writing
In our country
Where our ancestors were invisibilized
In the pages of history

Then we entered
Into white-collar professions
You married to a Brahmin man
I married to a Brahmin girl

We both have begotten children
You did his Mundan and
Performed Satyanarayana's Puja


I recited Pancheel at the birthday
Of my girl child

Later as your child grew up
He voted for the religion
My girl voted for principles

Of course, his candidate won

Tell me
In what theory of feminism
I should understand
The politics of womb
In Caste society?

---Yogesh Maitreya

5 जून 2019

Trees

I think that I shall never see
A poem lovely as a tree.

A tree whose hungry mouth is prest
Against the earth’s sweet flowing breast;

A tree that looks at God all day,
And lifts her leafy arms to pray;

A tree that may in Summer wear
A nest of robins in her hair;

Upon whose bosom snow has lain;
Who intimately lives with rain.

Poems are made by fools like me,
But only God can make a tree.

--- JOYCE KILMER

31 मई 2019

छोटकू

पृथ्वी का जीवन पेड़ पौधों के बिना असंभव है
छोटकू ने अपनी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा

पंडितों की कही हर बात पर शक करना चाहिए
कुछ दिन हुए - मैंने छोटकू को समझाया था

कैसे न समझाता?

भोले भाले बच्चों से कहते पंडित
कि लोकतंत्र 'लोक' के लिए 'तंत्र' है
कि वैज्ञानिकों ने जीवन को 'जीवंत' बनाया
कि हमें अपने देश भारत पर 'गर्व' है!

भाई रे, किसे है गर्व?
आये तो सामने!

कैसे न समझाता?

छोटकू ने पढ़ा
असंभव है पेड़ पौधों के बिना पृथ्वी का जीवन

छोटकू ने समझा
शक करना चाहिए पंडित वाणी पर

सो छोटकू ने इस बात पर भी शक किया!

'पेड़-पौधों' की जगह 'मनुष्य' होना चाहिए
मनुष्य के बिना पृथ्वी का जीवन असंभव है
कैसा रहेगा यह कहना?

छोटकू ने मेरा विचार जानना चाहा

कैसा रहेगा यह तो बाद की बात
पहले यह तो बता छोटकू कि 'पेड़-पौधों के बिना' क्यों नहीं
मनुष्य के ही बिना ही क्यों?

दुधिया धान के नवान्न चिउड़े (पोहे) की तरह
अपने धारोष्ण चिंतन को चबाता
गंभीर विचारक की मुद्रा में बोला छोटकू

मनुष्य ही न रहे तो पेड़ पौधों का क्या लाभ?
कौन उसकी शोभा देखेगा?
कौन खाएगा उसके फल, सूंघेगा फूल?
पेड़ों के फरनीचर कौन बनवाएगा?
किसके काम आएगा उसका बनाया ऑक्सीजन?
मनुष्य ही न रहे गुरुजी तो कौन करेगा खोज
कि पौधों में भी जीवन होता है!

वाह छोटे गुरुजी वाह
क्या धांसू डायलॉग मारा है तुमने
यही कहना चाहते हो न कि मनुष्य के लिए ही तो पेड़ पौधे होते हैं?

जी हां बिल्कुल... हां जी यही बात!

पेड़ पौधे तो पैदा हुए मनुष्य के लिए, ठीक बात!
लेकिन यह तो बता छोटेलाल

मनुष्य जनमा किसके लिए?
नेताओं के लिए कि समय समय पर वोट देता रहे?
बनियों के लिए कि उनके सामान बिकें ताबड़तोड़?
टीवी वालों के लिए?
वैज्ञानिकों के प्रयोग के लिए?
या धर्माधीशों के सामने सिर झुकाने के लिए?
मनुष्य जनमा किसके लिए?

कोई किसी के लिए पैदा होता भी है क्या दोस्त!
अपने हक़ की छोड़ अभी
धरती के हक़ में सोच!

तुम जो जनमे हो छोटू
समझ बूझ कर सोच विचार कर तो जनमे नहीं हो
लेकिन क्या कह सकोगे कि किसके लिए जनमे हो?

खिलखिला उठा दूधिया धान का नवान्न चिउड़ा
पितृभक्ति दिखानी शुरू की उसने औपचारिकतावश
मैं तो अपने पापा का बेटा हूं
पापा के लिए पैदा हुआ हूं

अब आप ही कहो भाई साहब
छोटकू की इस बात पर मैं भी न खिलखिलाऊं
तो क्या करूं?

--- तारानंद वियोगी ( 𝑇𝑟𝑎𝑛𝑠𝑙𝑎𝑡𝑒𝑑 𝑏𝑦 Avinash Das)

30 मई 2019

भोलू और गोलू

जैसा कि चलन चला आया है
भोलू चुराता है परायी दौलत और गोलू विरोध नहीं करता
इसका मतलब है कि भोलू और गोलू रिश्तेदार हैं
या एक ही जाति के हैं
या एक ही संप्रदाय के
या एक ही पार्टी के

यह चलन चला आया है

जैसा कि सामने दिख रहा है
यह चलन भी खूब है कि राजनेता चुरा ले जाते हैं देश
दलाल अर्थव्यवस्था चुरा ले जाते हैं
नानाविध हीरोइनें चुरा ले जाती हैं स्त्री की औक़ात
धर्म के रक्षक धर्म चुरा ले जाते हैं
कोई चीनी चुराता है कोई तेल
कोई तेल और चीनी वाली धरती के सपने चुरा ले जाता है

लेकिन, भोलू और गोलू चुप रहते हैं

क्यों नहीं कहा जा सकता
कि अपने इस प्रजातंत्र में ऐसा चलन है कि दवाइयां तहख़ानों में क़ैद हैं
और रोग तय करते हैं आदमी का भविष्य

यह चलन भी देखिए
भोलू गोलू चुप रहते हैं
तो मतलब है कि वे भी चोरों से कमीशन खाते हैं
या खाने की ललक रखते हैं
या चाहते हैं कि यह ललक पैदा हो उनमें

यही एकतरफा निर्णय क्यों
कि झेल लें वे थोड़ा तनाव
तो शुरू हो विद्रोह
या चुप हैं भोलू गोलू
तो समझो तूफान आने वाला है
यही एकतरफा निर्णय क्यों?

कवि जिसे बता रहे हैं अनर्थ महाअनर्थ
भोलू गोलू उसी में ढूंढ रहे हैं अपना भविष्य

आप मुझे बताइए
यह जो चलन है
भोलू गोलू का चुप रहना
भारतीय दंड संहिता की किस धारा के अंतर्गत जुर्म है?
या संविधान के किस विधान के अनुसार यह है राष्ट्रसेवा
जिसके लिए मिलना चाहिए उन्हें पुरस्कार!
आप मुझे बताइए!!

--- तारानंद वियोगी ( Translated by Avinash Das)

23 मई 2019

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था'

"हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे"

~ विनोद कुमार शुक्ल

देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता

यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।

देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।

याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।

---सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

19 मई 2019

मतदान केंद्र पर झपकी

अबकी वोट देने पहुंचा
तो अचानक पता चला
मतदाता सूची में
मेरा नाम ही नहीं है
किसी से पूछूं कि मेरे भीतर से
आवाज़ आई -
उज़बक की तरह ताकते क्या हो
न सही मतदाता सूची में
उस विशाल सूची में तो हो ही
जिसमें वे सारे नाम हैं
जो छूट जाते हैं बाहर

बाहर निकला
तो निगाह पड़ी सामने खड़े पेड़ पर
सोचा - वह भी तो नागरिक है इसी मिट्टी का
और देखो न मरजीवे को
खड़ा है कैसा मस्त मलंग!

मैं पेड़ के पास गया
और उसकी छांह में बैठे-बैठे
आ गई झपकी
देखा - पेड़ के नेतृत्व में चले जा रहे हैं
बहुत पेड़ और लोग...
जिसमें शामिल हैं-
बड़
पाकड़
गूलर
गंभार
मसान काली का दमकता सिन्दूर
चला जा रहा था आगे-आगे
कि सहसा एक पत्ती के गिरने का
धमाका हुआ
और टूट गई नींद
मैंने देखा
अब मेरी जेब में मेरा अनदिया वोट है
एक नागरिक का अन्तिम हथियार

मैंने ख़ुद से कहा
अब घर चलो केदार
और खोजो इस व्यर्थ में
नया कोई अर्थ

--- केदारनाथ सिंह

7 मई 2019

The Impossible

It is much easier for you
To push an elephant through a needle’s eye,
Catch fried fish in galaxy,
Blow out the sun,
Imprison the wind,
Or make a crocodile speak,
Than to destroy by persecution
The shimmering glow of a belief
Or check our march
Towards our cause
One single step…

---Tawfiq Zayyad (1929-1994)

1 मई 2019

समाजवाद

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई

गांधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई

कांगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अहिंसा कहाई

महँगी ले आई, गरीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

--- गोरख पांडेय

17 अप्रैल 2019

मुँह की बात

मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन ।

सदियों-सदियों वही तमाशा
रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं
खो जाता है जाने कौन ।

जाने क्या-क्या बोल रहा था
सरहद, प्यार, किताबें, ख़ून
कल मेरी नींदों में छुपकर
जाग रहा था जाने कौन ।

मैं उसकी परछाई हूँ या
वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है
मेरे जैसा जाने कौन ।

किरन-किरन अलसाता सूरज
पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है
ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन ।

--- निदा फ़ाज़ली

7 अप्रैल 2019

अमीर खुसरो की रचनाएं

जब यार देखा नैन भर
जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर ।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिली तुम आय कर ।

जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर ।

मेरी जो मन तुम ने लिया, तुम उठा गम को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर ।

खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर ।

. *********

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाएके
प्रेम भटी का मधवा पिलाके मतवारी करलीनी रे
गोरी गोरी बय्यां हरी हरी चूरीयां
बय्यां पकड़ धरलीनी रे मोसे नैना मिलाएके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रेजवा
अपनी सी करलीनी रे मो से नैना मिलाएके
खुसरो निजाम के बल बल जाईय्ये
मोहे सुहागन कीनी रे मो से नैना मिलाएके

. **********************

बहुत कठिन है डगर पनघट की ।
कैसे मैं भर लाउं मधवा से मटकी ?
पनिया भरन को मैं जो गइ थी ।
दोड़ झपट मोरा मटकी पटकी ।
खुसरो निजाम के बल बल जाईय्ये ।
लाज रखो मोरे घुंघट पट की ।

. *************

तोरी सूरत के बलिहारी, निजाम,
तोरी सूरत के बलिहारी ।
सब सखियन में चुनर मेरी मैली,
देख हसें नर नारी, निजाम...
अबके बहार चुनर मोरी रंग दे,
पिया रखले लाज हमारी, निजाम....
सदका बाबा गंज शकर का,
रख ले लाज हमारी, निजाम...
कुतब, फरीद मिल आए बराती,
खुसरो राजदुलारी, निजाम...
कौउ सास कोउ ननद से झगड़े,
हमको आस तिहारी, निजाम,
तोरी सूरत के बलिहारी, निजाम...

. *************

--- अमीर ख़ुसरो

29 मार्च 2019

सुख का दुख

जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दुख नहीं है,
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं।
यहां एक बात
इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें
सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है।

मगर नहीं
मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है।

बल्कि कहना चाहिये
खुशी झलकी है, डर छा गया है,
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दुख होता है देख कर
कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता।

मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,
इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ कर इसे छू लो।
इस झूले के पेंग निराले हैं
बेशक इस पर झूलो,
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते
खड़े खड़े ताकते हैं,
अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ
तो चीख मार कर भागते हैं।

बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है।

भवानी प्रसाद मिश्र

20 मार्च 2019

Another day

Another day. I follow another path,
Enter the leafing woodland, visit the spring
Or the rocks where the roses bloom
Or search from a look-out, but nowhere

Love are you to be seen in the light of day
And down the wind go the words of our once so
Beneficent conversation...

Your beloved face has gone beyond my sight,
The music of your life is dying away
Beyond my hearing and all the songs
That worked a miracle of peace once on

My heart, where are they now? It was long ago,
So long and the youth I was has aged nor is
Even the earth that smiled at me then
The same. Farewell. Live with that word always.

For the soul goes from me to return to you
Day after day and my eyes shed tears that they
Cannot look over to where you are
And see you clearly ever again.

--- Friedrich Holderlin

16 मार्च 2019

Masses

. . .When the battle was over,
and the fighter was dead, a man came toward him
and said to him: “Do not die; I love you so!”
But the corpse, it was sad! went on dying.

. . .And two came near, and told him again and again:
“Do not leave us! Courage! Return to life!”
But the corpse, it was sad! went on dying.

. . .Twenty arrived, a hundred, a thousand, five hundred thousand,
shouting: “So much love, and it can do nothing against death!”
But the corpse, it was sad! went on dying.

. . .Millions of persons stood around him,
all speaking the same thing: “Stay here, brother!”
But the corpse, it was sad! went on dying.

. . .Then all the men of the earth
stood around him; the corpse looked at them sadly, deeply moved;
he sat up slowly,
put his arms around the first man; started to walk. . .

--- Cesar Vallejo and translated by Robert Bly

1 मार्च 2019

मार्च ‘79 से

उन सब से ऊब कर

जिनके पास केवल शब्द होते हैं

केवल शब्द और कोई भाषा नहीं

मैं बर्फ से ढके द्वीप पर गया

जंगल की कोई भाषा नहीं होती

अनलिखे पन्ने सभी दिशाओं में फैले रहते हैं!

मुझे वहां बर्फ पर हिरन के खुरों के निशान दिखाई दिए

उन निशानों में भाषा थी पर शब्द नहीं थे

--- टॉमस ट्रांसट्रोमर, अनुवाद और प्रस्तुति : मोनिका कुमार

14 फ़रवरी 2019

ना हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती

दिल में ना हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती
ख़ैरात में इतनी बङी दौलत नहीं मिलती

कुछ लोग यूँही शहर में हमसे भी ख़फा हैं
हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती

देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती

हंसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत
रोने को यहाँ वैसे भी फुरसत नहीं मिलती

--- निदा फ़ाज़ली

7 फ़रवरी 2019

So Many Different Lengths Of Time

How long does a man live after all?
A thousand days or only one?
One week or a few centuries?
How long does a man spend living or dying
and what do we mean when we say gone forever?

Adrift in such preoccupations, we seek clarification.
We can go to the philosophers
but they will weary of our questions.
We can go to the priests and rabbis
but they might be busy with administrations.

So, how long does a man live after all?
And how much does he live while he lives?
We fret and ask so many questions -
then when it comes to us
the answer is so simple after all.

A man lives for as long as we carry him inside us,
for as long as we carry the harvest of his dreams,
for as long as we ourselves live,
holding memories in common, a man lives.

His lover will carry his man's scent, his touch:
his children will carry the weight of his love.
One friend will carry his arguments,
another will hum his favourite tunes,
another will still share his terrors.

And the days will pass with baffled faces,
then the weeks, then the months,
then there will be a day when no question is asked,
and the knots of grief will loosen in the stomach
and the puffed faces will calm.
And on that day he will not have ceased
but will have ceased to be separated by death.

How long does a man live after all?
A man lives so many different lengths of time.

---Brian Patten

3 फ़रवरी 2019

अमौसा के मेला

भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा.

एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा.
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू.

आजी रँगावत रही गोड़ देखऽ,
हँसत हँउवे बब्बा, तनी जोड़ देखऽ.
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि, अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा.

एहर हउवे लुग्गा, ओहर हउवे पूड़ी,
रामायण का लग्गे ह मँड़ुआ के डूंढ़ी.
चाउर आ चिउरा किनारे के ओरी,
नयका चपलवा अचारे का ओरी.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(इस गठरी और इस व्यवस्था के साथ गाँव का आदमी जब गाँव के बाहर रेलवे स्टेशन पर आता है तब क्या स्थिति होती है ?)

मचल हउवे हल्ला, चढ़ावऽ उतारऽ,
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारऽ.
एहर गुर्री-गुर्रा, ओहर लुर्री‍-लुर्रा,
आ बीचे में हउव शराफत से बोलऽ

चपायल ह केहु, दबायल ह केहू,
घंटन से उपर टँगायल ह केहू.
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पियर,
केहू फनफनात हउवे जीरा के नियर.

बप्पा रे बप्पा, आ दईया रे दईया,
तनी हम्मे आगे बढ़े देतऽ भईया.
मगर केहू दर से टसकले ना टसके,
टसकले ना टसके, मसकले ना मसके,

छिड़ल ह हिताई-मिताई के चरचा,
पढ़ाई-लिखाई-कमाई के चरचा.
दरोगा के बदली करावत हौ केहू,
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(इसी भीड़ में गाँव का एक नया जोड़ा, साल भर के अन्दरे के मामला है, वो भी आया हुआ है. उसकी गती से उसकी अवस्था की जानकारी हो जाती है बाकी आप आगे देखिये…)

गुलब्बन के दुलहिन चलै धीरे धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे तीरे.
सजल देहि जइसे हो गवने के डोली,
हँसी हौ बताशा शहद हउवे बोली.

देखैली ठोकर बचावेली धक्का,
मने मन छोहारा, मने मन मुनक्का.
फुटेहरा नियरा मुस्किया मुस्किया के
निहारे ली मेला चिहा के चिहा के.

सबै देवी देवता मनावत चलेली,
नरियर प नरियर चढ़ावत चलेली.
किनारे से देखैं, इशारे से बोलैं
कहीं गाँठ जोड़ें कहीं गाँठ खोलैं.

बड़े मन से मन्दिर में दर्शन करेली
आ दुधै से शिवजी के अरघा भरेली.
चढ़ावें चढ़ावा आ कोठर शिवाला
छूवल चाहें पिण्डी लटक नाहीं जाला.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(इसी भीड़ में गाँव की दो लड़कियां, शादी वादी हो जाती है, बाल बच्चेदार हो जाती हैं, लगभग दस बारह बरसों के बाद मिलती हैं. वो आपस में क्या बतियाती हैं …)

एही में चम्पा-चमेली भेंटइली.
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली.
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें.

असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अबतक पठवलू.
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं.

हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जानऽ
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जानऽ.
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की.

मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो.
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(कभी-कभी बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें हो जाती हैं. दो तीन घटनाओं में मैं खुद शामिल रहा, चाहे वो हरिद्वार का कुंभ हो, चाहे वो नासिक का कुंभ रहा हो. सन ५४ के कुंभ में इलाहाबाद में ही कई हजार लोग मरे. मैंने कई छोटी-छोटी घटनाओं को पकड़ा. जहाँ जिन्दगी है, मौत नहीं है. हँसी है दुख नहीं है….)

करौता के माई के झोरा हेराइल
बुद्धू के बड़का कटोरा हेराइल.
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहै
बिजुरिया के माई बिजुरिया के जोहै.

मचल हउवै हल्ला त सगरो ढुढ़ाई
चबैला के बाबू चबैला के माई.
गुलबिया सभत्तर निहारत चलेले
मुरहुआ मुरहुआ पुकारत चलेले.

छोटकी बिटउआ के मारत चलेले
बिटिइउवे प गुस्सा उतारत चलेले.

गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली.

(बड़े मीठे रिश्ते मिलते हैं.)
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली.
गोबरधन का संगे पँउड़ के नहइली.
घरे चलतऽ पाहुन दही गुड़ खिआइब.
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइब.

उहैं फेंक गठरी, परइले गोबरधन,
ना फिर फिर देखइले धरइले गोबरधन.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(अन्तिम पंक्तियाँ हैं. परिवार का मुखिया पूरे परिवार को कइसे लेकर के आता है यह दर्द वही जानता है. जाड़े के दिन होते हैं. आलू बेच कर आया है कि गुड़ बेच कर आया है. धान बेच कर आया है, कि कर्ज लेकर आया है. मेला से वापस आया है. सब लोग नहा कर के अपनी जरुरत की चीजें खरीद कर चलते चले आ रहे हैं. साथ रहते हुये भी मुखिया अकेला दिखाई दे रहा है….)

केहू शाल, स्वेटर, दुशाला मोलावे
केहू बस अटैची के ताला मोलावे
केहू चायदानी पियाला मोलावे
सुखौरा के केहू मसाला मोलावे.

नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी
भईया से आगे निकल गइली भउजी
आयल हिंडोला मचल गइली भउजी
देखते डरामा उछल गइली भउजी.

भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,
भुलइले ना भूले पकौड़ी के मरीचा.
बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता
बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता.

फटल हउवे कुरता टूटल हउवे जूता
खलीका में खाली किराया के बूता
तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें
कटोरी में सुरती मलत जात हउवें.

--- कैलाश गौतम

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला

26 जनवरी 2019

हमारे शासक

हमारे शासक ग़रीबी के बारे में चुप रहते हैं
शोषण के बारे में कुछ नहीं बोलते
अन्याय को देखते ही वे मुंह फेर लेते हैं
हमारे शासक ख़ुश होते हैं जब कोई उनकी पीठ पर हाथ रखता है
वे नाराज़ हो जाते हैं जब कोई उनके पैरों में गिर पड़ता है
दुर्बल प्रजा उन्हें अच्छी नही लगती
हमारे शासक ग़रीबों के बारे में कहते हैं कि वे हमारी समस्या हैं
समस्या दूर करने के लिए हमारे शासक
अमीरों को गले लगाते रहते हैं
जो लखपति रातोंरात करोड़पति जो करोड़पति रातोंरात
अरबपति बन जाते हैं उनका वे और भी सम्मान करते हैं

हमारे शासक हर व़क़्त देश की आय बढ़ाना चाहते हैं
और इसके लिए वे देश की भी परवाह नहीं करते हैं
जो देश से बाहर जाकर विदेश में संपति बनाते हैं
उन्हें हमारे शासक और भी चाहते हैं
हमारे शासक सोचते हैं अगर पूरा देश ही इस योग्य हो जाये
कि संपति बनाने के लिए बाहर चला जाये
तो देश की आय काफ़ी बढ़ जाये

हमारे शासक अक्सर ताक़तवरों की अगवानी करने जाते हैं
वे अक्सर आधुनिक भगवानों के चरणों में झुके हुए रहते हैं
हमारे शासक आदिवासियों की ज़मीनों पर निगाह गड़ाये रहते हैं
उनकी मुर्गियों पर उनकी कलाकृतियों पर उनकी औरतों पर
उनकी मिट्टी के नीचे दबी हुई बहुत सी चमकती हुई चीज़ों पर
हमारे शासक अक्सर हवाई जहाज़ों पर चढ़ते और उनसे उतरते हैं
हमारे शासक पगड़ी पहने रहते हैं
अक्सर कोट कभी-कभी टाई कभी लुंगी
अक्सर कुर्ता-पाजामा कभी बरमूडा टी-शर्ट अलग-अलग मौक़ों पर
हमारे शासक अक्सर कहते हैं हमें अपने देश पर गर्व है।

--- मंगलेश डबराल

25 जनवरी 2019

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता

मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता

कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता |

--- बशीर बद्र

24 जनवरी 2019

हुआ सवेरा

हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब
से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
नदी में स्नान करने सूरज
सुनारी मलमल की
पगड़ी बाँधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में
दुआओं के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियाँ
सोते रास्तों को जगा रही
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने
हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
फ़रिश्ते निकले रोशनी के
हर एक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल सा धड़क रहा है
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
बच्चे स्कूल जा रहे हैं....

--- निदा फ़ाज़ली

16 जनवरी 2019

दुर्दिन

देवे कुर्वति दुर्दिनव्यतिकरं नास्त्येव तन्मन्दिरं
यत्राहारगवेषणाय बहुशो नासीद् गता वायसी ।
किन्तु प्राप न किञ्चन क्वचिदपि प्रस्वापहेतोस्तथा
प्युद्भिन्नार्भकचञ्चुषु भ्रमयति स्वं रिक्त-चञ्चुपुटम् ।।

अर्थात्
कैसा दुर्दिन दिखाया देव ने
पानी बरसता ही रहा लगातार
कोई घर नहीं था जहाँ न गई हो कौवी
दाना खोजने के लिये.
पर कहीं से कुछ न पा सकी.
चोंचें खोले हुए चूजों को सुलाने के लिये अब वह
घुमा रही है अपनी खाली चोंच
उनकी चोंचों में.

--- अज्ञात (संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा)
अनुवाद - डा राधावल्लभ त्रिपाठी