16 दिसंबर 2017

दश्त-ए-तन्हाई

दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्ज़ां हैं
तेरी आवाज़ के साए तिरे होंटों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स ओ ख़ाक तले
खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तिरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफ़ुक़ पार चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तिरी दिलदार नज़र की शबनम

इस क़दर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़्सार पे इस वक़्त तिरी याद ने हात
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात

--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

10 दिसंबर 2017

हर तरफ धुआं है

हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है.

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता. यहां
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है.
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी उसके लिए,
सबसे भद्दी गाली है.

हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाईं है
यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है.

---धूमिल