बने हो एक ख़ाक से, तो दूर क्या क़रीब क्या
लहु का रंग एक है, अमीर क्या गरीब क्या
बने हो एक ...
वो ही जान वो ही तन, कहाँ तलक़ छुपाओगे -
पहन के रेशमी लिबाज़, तुम बदल न जाओगे
के एक जात हैं सभी
तो बात है अजीब सी
लहु का रंग एक है ...
गरीब है वो इस लिये, तुम अमीर हो गये
के एक बादशाह हुआ, तो सौ फ़कीर हो गये
खता यह है समाज की -(२)
भला बुरा नसीब क्या
लहु का रंग एक है ...
जो एक हो तो क्यूँ ना फिर, दिलों का दर्द बाँट लो
लहु की प्यास बाँट लो, रुको कि दर्द बाँट लो
लगा लो सब को तुम गले
हबीब क्या, रक़ीब क्या
लहु का रंग एक है ...
---मजरूह सुल्तानपुरी
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24 दिसंबर 2012
17 दिसंबर 2012
Walk in the woods
Walk in the woods
Leave it all behind
Humanity and mankind
Let it all go
For a moment
Clear your head
Clear your mind
Stop looking for a sign
Signs are everywhere
We need to weed out the signs that point us in the wrong directions.
Put up our own sign
Facing our leaders of the world that says "STOP"
Put the weapons down
Talk it out
When you get frustrated
Do not get up and walk away
Stop and talk our way to peace.
---Alva Fleming
Leave it all behind
Humanity and mankind
Let it all go
For a moment
Clear your head
Clear your mind
Stop looking for a sign
Signs are everywhere
We need to weed out the signs that point us in the wrong directions.
Put up our own sign
Facing our leaders of the world that says "STOP"
Put the weapons down
Talk it out
When you get frustrated
Do not get up and walk away
Stop and talk our way to peace.
---Alva Fleming
Morning of the Last Farewell (Eiketsu no Asa)
My little sister,
About to depart to a place far beyond before the day is out.
The sleet has fallen outside, and it’s oddly bright.
(Gemme some ameyuju willyoo Kenj’ya.)
From the clouds of pale-red, that is all the more bleak,
The sleet comes a-dripping and a-drizzling down
(Gemme me some ameyuju willyoo Kenj’ya.)
Gathering the sleet snow for you to nibble on,
Inside two chipped porcelain bowls with
The junsai[water-shield]plant painted blue,
I, like a stray bullet,
Darted out into the dark of the [falling] sleet.
(Gemme me some ameyuju willyoo Kenj’ya.)
From the bismuth-colored dark clouds,
The sleet comes a-dripping and a-drizzling down.
Oh Toshiko,
At a time like this,
When you’re on the brink of death,
You have asked me for a scoop-full of refreshing snow,
Thank you, my little sister, so giving and brave,
I too will continue ahead straight onward.
(Gemme some ameyuju willyoo, Kenj’ya)
In between the oh-so violent fevers and gasping,
You asked me to get
The last bowl-ful of snow, descended from the skies,
The realm of galaxies and suns and atmospheres…
.. Upon two quarry-blocks of granite,
where the sleet are lonesomely deposited,
I perched upon them precariously.
And from the glistening pine-boughs
Filled with cold transparent beads that maintain
The hoar-white, two-phase equilibria betwixt snow and water,
I shall take away the last food for my little sister.
The indigo-colored patterns on the familiar bowls that
We grew up with,
You’ll be parted from them too, after today.
(Ora Orade Shitori egumo
[I'll just go off on my own I will])
It’s true, you really are departing from us today,
Oh, within the enclosure of the patient’s room,
On the other side of the dark folding-screen and mosquito nets,
You are burning away with pale blue light,
My little sister, so brave.
This snow is so awfully pure-white, wherever you might choose.
From those frightful, roiling skies,
This beautiful snow has come.
(I’m gonna be born again, and
next time, I’ll make sure everything won’t be so bad
I hurt so muuuch all the time.)
To those two bowl-fuls of snow you’re eating,
I will now pray, from my heart.
Oh may this [snow] now turn into a heavenly ice cream
Providing you and everyone holy sustenance.
This I pray with all the ability I can muster.
---Kenji Miyazawa
About to depart to a place far beyond before the day is out.
The sleet has fallen outside, and it’s oddly bright.
(Gemme some ameyuju willyoo Kenj’ya.)
From the clouds of pale-red, that is all the more bleak,
The sleet comes a-dripping and a-drizzling down
(Gemme me some ameyuju willyoo Kenj’ya.)
Gathering the sleet snow for you to nibble on,
Inside two chipped porcelain bowls with
The junsai[water-shield]plant painted blue,
I, like a stray bullet,
Darted out into the dark of the [falling] sleet.
(Gemme me some ameyuju willyoo Kenj’ya.)
From the bismuth-colored dark clouds,
The sleet comes a-dripping and a-drizzling down.
Oh Toshiko,
At a time like this,
When you’re on the brink of death,
You have asked me for a scoop-full of refreshing snow,
Thank you, my little sister, so giving and brave,
I too will continue ahead straight onward.
(Gemme some ameyuju willyoo, Kenj’ya)
In between the oh-so violent fevers and gasping,
You asked me to get
The last bowl-ful of snow, descended from the skies,
The realm of galaxies and suns and atmospheres…
.. Upon two quarry-blocks of granite,
where the sleet are lonesomely deposited,
I perched upon them precariously.
And from the glistening pine-boughs
Filled with cold transparent beads that maintain
The hoar-white, two-phase equilibria betwixt snow and water,
I shall take away the last food for my little sister.
The indigo-colored patterns on the familiar bowls that
We grew up with,
You’ll be parted from them too, after today.
(Ora Orade Shitori egumo
[I'll just go off on my own I will])
It’s true, you really are departing from us today,
Oh, within the enclosure of the patient’s room,
On the other side of the dark folding-screen and mosquito nets,
You are burning away with pale blue light,
My little sister, so brave.
This snow is so awfully pure-white, wherever you might choose.
From those frightful, roiling skies,
This beautiful snow has come.
(I’m gonna be born again, and
next time, I’ll make sure everything won’t be so bad
I hurt so muuuch all the time.)
To those two bowl-fuls of snow you’re eating,
I will now pray, from my heart.
Oh may this [snow] now turn into a heavenly ice cream
Providing you and everyone holy sustenance.
This I pray with all the ability I can muster.
---Kenji Miyazawa
15 दिसंबर 2012
धर्म
जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है..
जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है.
हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है.
आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है...
जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है.
---गोपाल दास नीरज
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है..
जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है.
हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है.
आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है...
जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है.
---गोपाल दास नीरज
10 दिसंबर 2012
ये किसका लहू है कौन मरा
ये किसका लहू है कौन मरा
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
ये जलते हुए घर किसके हैं
ये कटते हुए तन किसके है,
तकसीम के अंधे तूफ़ान में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं,
बदबख्त फिजायें किसकी हैं
बरबाद नशेमन किसके हैं,
कुछ हम भी सुने, हमको भी सुना.
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
किस काम के हैं ये दीन धरम
जो शर्म के दामन चाक करें,
किस तरह के हैं ये देश भगत
जो बसते घरों को खाक करें,
ये रूहें कैसी रूहें हैं
जो धरती को नापाक करें,
आँखे तो उठा, नज़रें तो मिला.
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
जिस राम के नाम पे खून बहे
उस राम की इज्जत क्या होगी,
जिस दीन के हाथों लाज लूटे
उस दीन की कीमत क्या होगी,
इन्सान की इस जिल्लत से परे
शैतान की जिल्लत क्या होगी,
ये वेद हटा, कुरआन उठा.
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
--- साहिर लुधियानवी
8 दिसंबर 2012
किताबें झाँकती है
किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाक़ातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो ग़ज़लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े-उधड़े है
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े है
बिना पत्तों के सूखे टूँड लगते है वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है
जबाँ पर ज़ायका आता था सफ़्हे पलटने का
अब उँगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुज़रती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
क़िताबों से जो ज़ाती राब्ता था वो कट-सा गया है
कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रहल की सूरत बनाकर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो उन क़िताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रूक्के
क़िताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा...!!
--- गुलज़ार
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाक़ातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो ग़ज़लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े-उधड़े है
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े है
बिना पत्तों के सूखे टूँड लगते है वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है
जबाँ पर ज़ायका आता था सफ़्हे पलटने का
अब उँगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुज़रती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
क़िताबों से जो ज़ाती राब्ता था वो कट-सा गया है
कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रहल की सूरत बनाकर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो उन क़िताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रूक्के
क़िताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा...!!
--- गुलज़ार
1 दिसंबर 2012
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की ?
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की .
*** अदम गोंडवी
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की ?
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की .
*** अदम गोंडवी
27 नवंबर 2012
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्क करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।
--- फ़हमीदा रियाज़
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्क करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।
--- फ़हमीदा रियाज़
25 नवंबर 2012
बर्बरता की ढाल ठाकरे
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!!
कैसे फासिस्टी प्रभुओं की-
गला रहा है दाल ठाकरे !
अबे सम्हल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे!
सबने हां की, कौन ना करे!
छिप जा, मत तू उधर ताक रे!
शिवसेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे!
सभी डर गये, बजा रहा है गाल ठाकरे!
अपने भक्तों को कर देगा अब तो मालामाल ठाकरे!
गूंज रही सह्याद्रि घाटियाँ, मचा रहा भूचाल ठाकरे!
मन ही मन कहते राजा जी, जिए भला सौ साल ठाकरे!
चुप है कवि, डरता है शायद खींच नहीं ले खाल ठाकरे!
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे!
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!
बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र का काल ठाकरे !
धन पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे !
चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!
--- नागार्जुन(जून १९७०)
कैसे फासिस्टी प्रभुओं की-
गला रहा है दाल ठाकरे !
अबे सम्हल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे!
सबने हां की, कौन ना करे!
छिप जा, मत तू उधर ताक रे!
शिवसेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे!
सभी डर गये, बजा रहा है गाल ठाकरे!
अपने भक्तों को कर देगा अब तो मालामाल ठाकरे!
गूंज रही सह्याद्रि घाटियाँ, मचा रहा भूचाल ठाकरे!
मन ही मन कहते राजा जी, जिए भला सौ साल ठाकरे!
चुप है कवि, डरता है शायद खींच नहीं ले खाल ठाकरे!
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे!
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!
बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र का काल ठाकरे !
धन पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे !
चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!
--- नागार्जुन(जून १९७०)
10 नवंबर 2012
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
--- अदम गोंडवी
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
--- अदम गोंडवी
8 नवंबर 2012
हम दीवानों की क्या हस्ती
हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले
आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले
किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले
दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले
हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले
हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले
अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले
---भगवतीचरण वर्मा
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले
आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले
किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले
दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले
हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले
हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले
अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले
---भगवतीचरण वर्मा
1 नवंबर 2012
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धिखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
---अदम गोंडवी
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धिखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
---अदम गोंडवी
31 अक्टूबर 2012
समर शेष है
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।
फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात(साठ) वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
–-- रामधारी सिंह "दिनकर"
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।
फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात(साठ) वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
–-- रामधारी सिंह "दिनकर"
27 अक्टूबर 2012
"This Land is Mine"
This land is mine
God gave this land to me
This brave and ancient land to me
And when the morning sun
Reveals her hills and plains
Then I see a land
Where children can run free.
So take my hand
And walk this land with me
And walk this lovely land with me
Tho' I am just a man
When you are by my side
With the help of God
I know I can be strong.
Tho' I am just a man
When you are by my side
With the help of God
I know I can be strong.
To make this land our home
If I must fight
I'll fight to make this land our own.
Until I die this land is mine!
---(Lyrics by Pat Boone. Sung by Andy Williams)
It tells the story of the wars in the land called Israel/Palestine/Canaan/the Levant, since the cavemen until today, all so musical and poetic. Reference and original, including an explanation about each character in this video: http://blog.ninapaley.com/2012/10/01/this-land-is-mine/
"This Land is Mine" is a video from Nina Paley, originally posted on Vimeo. In the end of this video appear the text "Copying is an Act of Love, please copy and share. copyheart.org". So, here it is.
God gave this land to me
This brave and ancient land to me
And when the morning sun
Reveals her hills and plains
Then I see a land
Where children can run free.
So take my hand
And walk this land with me
And walk this lovely land with me
Tho' I am just a man
When you are by my side
With the help of God
I know I can be strong.
Tho' I am just a man
When you are by my side
With the help of God
I know I can be strong.
To make this land our home
If I must fight
I'll fight to make this land our own.
Until I die this land is mine!
---(Lyrics by Pat Boone. Sung by Andy Williams)
It tells the story of the wars in the land called Israel/Palestine/Canaan/the Levant, since the cavemen until today, all so musical and poetic. Reference and original, including an explanation about each character in this video: http://blog.ninapaley.com/2012/10/01/this-land-is-mine/
"This Land is Mine" is a video from Nina Paley, originally posted on Vimeo. In the end of this video appear the text "Copying is an Act of Love, please copy and share. copyheart.org". So, here it is.
19 अक्टूबर 2012
जनतन्त्र के सूर्योदय में
रक्तपात –
कहीं नहीं होगा
सिर्फ़, एक पत्ती टूटेगी!
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और सिसकती हुई आँखों को
एक साथ लाल फीतों में लपेटकर
वे रख देंगे
काले दराज़ों के निश्चल एकान्त में
जहाँ रात में
संविधान की धाराएँ
नाराज़ आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती है
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूँगी परछाईं गुज़रेगी
दीवारों पर खड़खड़ाते रहेंगे
हवाई हमलों से सुरक्षा के इश्तहार
यातायात को
रास्ता देती हुई जलती रहेंगी
चौरस्तों की बस्तियाँ
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ़
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के 'गाभिन पेट' की तरह
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अन्धकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि ज़रूरतों के
हर मोर्चे पर
तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफ़रत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुण्ड में शरीक होकर
अपनी आवाज़ का चेहरा टटोलने के लिए
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
लेकिन तुम चुप रहोगे;
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस गूंगेपन-से सहोगे –
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है, जो
महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिए
एक साड़ी पर राज़ी है
सिर कटे मुर्गे की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह –
सिर्फ़ चमकते हुए रंगों की चालबाज़ी है
और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
या शायद, वापसी के लिए पहल करनेवाले –
आदमी की तलाश में
एक बार फिर
तुम लौट जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी –
य़ादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी
अख़बारों की धूल और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हें तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूर्योदय में
शरीक़ होने के लिए
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाज़ा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहाँ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की एक बूंद
झड़ पड़ने के लिए
तुम्हारी सहमति का इन्तज़ार
कर रही है।
---धूमिल
कहीं नहीं होगा
सिर्फ़, एक पत्ती टूटेगी!
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और सिसकती हुई आँखों को
एक साथ लाल फीतों में लपेटकर
वे रख देंगे
काले दराज़ों के निश्चल एकान्त में
जहाँ रात में
संविधान की धाराएँ
नाराज़ आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती है
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूँगी परछाईं गुज़रेगी
दीवारों पर खड़खड़ाते रहेंगे
हवाई हमलों से सुरक्षा के इश्तहार
यातायात को
रास्ता देती हुई जलती रहेंगी
चौरस्तों की बस्तियाँ
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ़
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के 'गाभिन पेट' की तरह
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अन्धकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि ज़रूरतों के
हर मोर्चे पर
तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफ़रत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुण्ड में शरीक होकर
अपनी आवाज़ का चेहरा टटोलने के लिए
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
लेकिन तुम चुप रहोगे;
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस गूंगेपन-से सहोगे –
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है, जो
महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिए
एक साड़ी पर राज़ी है
सिर कटे मुर्गे की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह –
सिर्फ़ चमकते हुए रंगों की चालबाज़ी है
और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
या शायद, वापसी के लिए पहल करनेवाले –
आदमी की तलाश में
एक बार फिर
तुम लौट जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी –
य़ादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी
अख़बारों की धूल और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हें तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूर्योदय में
शरीक़ होने के लिए
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाज़ा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहाँ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की एक बूंद
झड़ पड़ने के लिए
तुम्हारी सहमति का इन्तज़ार
कर रही है।
---धूमिल
15 अक्टूबर 2012
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम लड़ो,
तुम लड़ो, तुम लड़ो
तुम लड़ो कि चहचहा उठें हवा के परिन्दे
तुम लड़ो कि आसमान चूम ले ज़मीन को
तुम लड़ो कि ज़िन्दगी महक उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो,
तुम उठो, तुम उठो
तुम उठो, उठो कि उठ पड़ें असंख्य हाथ
चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ
मुस्कुरा उठे क्षितिज पे भोर की किरन
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम बहो,
तुम बहो, तुम बहो
रुधिर प्रवाह की तरह बहो कि लालिमा
मिटा सके कलंक की सितम की कालिमा
बहो कि ख़ुशी कै़द कभी की न जा सके
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम जलो,
तुम जलो, तुम जलो
तुम जलो कि रौशनी के पंख फड़फड़ा उठें
कुचल दिये गये दिलों के तार झनझना उठें
सुषुप्त आत्मा जगे, गरज उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो,
तुम रचो, तुम रचो
तुम रचो हवा, पहाड़, रौशनी नयी
ज़िन्दगी नयी महान आत्मा नयी
सांस-सांस भर उठे अमिट सुगन्ध से
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
---शशि प्रकाश
तुम लड़ो, तुम लड़ो
तुम लड़ो कि चहचहा उठें हवा के परिन्दे
तुम लड़ो कि आसमान चूम ले ज़मीन को
तुम लड़ो कि ज़िन्दगी महक उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो,
तुम उठो, तुम उठो
तुम उठो, उठो कि उठ पड़ें असंख्य हाथ
चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ
मुस्कुरा उठे क्षितिज पे भोर की किरन
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम बहो,
तुम बहो, तुम बहो
रुधिर प्रवाह की तरह बहो कि लालिमा
मिटा सके कलंक की सितम की कालिमा
बहो कि ख़ुशी कै़द कभी की न जा सके
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम जलो,
तुम जलो, तुम जलो
तुम जलो कि रौशनी के पंख फड़फड़ा उठें
कुचल दिये गये दिलों के तार झनझना उठें
सुषुप्त आत्मा जगे, गरज उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो,
तुम रचो, तुम रचो
तुम रचो हवा, पहाड़, रौशनी नयी
ज़िन्दगी नयी महान आत्मा नयी
सांस-सांस भर उठे अमिट सुगन्ध से
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
---शशि प्रकाश
13 अक्टूबर 2012
तहज़ीब यह नई है, इसको सलाम कहिए
तहज़ीब यह नई है, इसको सलाम कहिए
‘रावण’ जो सामने हो, उसको भी ‘राम’ कहिए
जो वो दिखा रहे हैं , देखें नज़र से उनकी
रातों को दिन समझिए, सुबहों को शाम कहिए
जादूगरी में उनको , अब है कमाल हासिल
उनको ही ‘राम’ कहिए, उनको ही ‘श्याम’ कहिए
मौजूद जब नहीं वो ख़ुद को खुदा समझिए
मौजूदगी में उनकी , ख़ुद को ग़ुलाम कहिए
उनका नसीब वो था, सब फल उन्होंने खाए
अपना नसीब यह है, गुठली को आम कहिए
जिन—जिन जगहों पे कोई, लीला उन्होंने की है
उन सब जगहों को चेलो, गंगा का धाम कहिए
बेकार उलझनों से गर चाहते हो बचना
वो जो बताएँ उसको अपना मुक़ाम कहिए
इस दौरे—बेबसी में गर कामयाब हैं वो
क़ुदरत का ही करिश्मा या इंतज़ाम कहिए
दस्तूर का निभाना बंदिश है मयक़दे की
जो हैं गिलास ख़ाली उनको भी जाम कहिए
बदबू हो तेज़ फिर भी, कहिए उसे न बदबू
‘अब हो गया शायद, हमको ज़ुकाम’ कहिए
यह मुल्क का मुक़द्दर, ये आज की सियासत
मुल्लाओं में हुई है, मुर्ग़ी हराम कहिए
‘द्विज’ सद्र बज़्म के हैं, वो जो कहें सो बेहतर
बासी ग़ज़ल को उनकी ताज़ा क़लाम कहिए.
---द्विजेन्द्र 'द्विज'
‘रावण’ जो सामने हो, उसको भी ‘राम’ कहिए
जो वो दिखा रहे हैं , देखें नज़र से उनकी
रातों को दिन समझिए, सुबहों को शाम कहिए
जादूगरी में उनको , अब है कमाल हासिल
उनको ही ‘राम’ कहिए, उनको ही ‘श्याम’ कहिए
मौजूद जब नहीं वो ख़ुद को खुदा समझिए
मौजूदगी में उनकी , ख़ुद को ग़ुलाम कहिए
उनका नसीब वो था, सब फल उन्होंने खाए
अपना नसीब यह है, गुठली को आम कहिए
जिन—जिन जगहों पे कोई, लीला उन्होंने की है
उन सब जगहों को चेलो, गंगा का धाम कहिए
बेकार उलझनों से गर चाहते हो बचना
वो जो बताएँ उसको अपना मुक़ाम कहिए
इस दौरे—बेबसी में गर कामयाब हैं वो
क़ुदरत का ही करिश्मा या इंतज़ाम कहिए
दस्तूर का निभाना बंदिश है मयक़दे की
जो हैं गिलास ख़ाली उनको भी जाम कहिए
बदबू हो तेज़ फिर भी, कहिए उसे न बदबू
‘अब हो गया शायद, हमको ज़ुकाम’ कहिए
यह मुल्क का मुक़द्दर, ये आज की सियासत
मुल्लाओं में हुई है, मुर्ग़ी हराम कहिए
‘द्विज’ सद्र बज़्म के हैं, वो जो कहें सो बेहतर
बासी ग़ज़ल को उनकी ताज़ा क़लाम कहिए.
---द्विजेन्द्र 'द्विज'
8 अक्टूबर 2012
इस नदी की धार में
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
- दुष्यन्त कुमार (Dushyant Kumar)
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
- दुष्यन्त कुमार (Dushyant Kumar)
4 अक्टूबर 2012
Hope is the thing with Feathers
"Hope" is the thing with feathers—
That perches in the soul—
And sings the tune without the words—
And never stops—at all—
And sweetest—in the Gale—is heard—
And sore must be the storm—
That could abash the little Bird
That kept so many warm—
I've heard it in the chillest land—
And on the strangest Sea—
Yet, never, in Extremity,
It asked a crumb—of Me.
---Emily Dickinson
That perches in the soul—
And sings the tune without the words—
And never stops—at all—
And sweetest—in the Gale—is heard—
And sore must be the storm—
That could abash the little Bird
That kept so many warm—
I've heard it in the chillest land—
And on the strangest Sea—
Yet, never, in Extremity,
It asked a crumb—of Me.
---Emily Dickinson
2 अक्टूबर 2012
समझदारों का गीत
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं.
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं
बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं.
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं कि वह समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं क्योंकि वह भेड़ियाधसान होती है.
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं.
वैसे हम अपने को
किसी से कम नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद
और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते
यह भी हम समझते हैं.
**** गोरख पाण्डेय
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं.
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं
बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं.
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं कि वह समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं क्योंकि वह भेड़ियाधसान होती है.
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं.
वैसे हम अपने को
किसी से कम नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद
और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते
यह भी हम समझते हैं.
**** गोरख पाण्डेय
1 अक्टूबर 2012
ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ (Bistirno parore)
विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ? इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
रुतस्विनी क्यूँ न रही ?
तुम निश्चय चितन नहीं प्राणों में प्रेरणा प्रेरती न क्यूँ ?
उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी गंगे जननी
नव भारत में भीष्म रूपी सूत समरजयी जनती नहीं हो क्यूँ ?
---भूपेन हजारिका
Original Song:
Inspired by this song, Bhupenda created-
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ? इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
रुतस्विनी क्यूँ न रही ?
तुम निश्चय चितन नहीं प्राणों में प्रेरणा प्रेरती न क्यूँ ?
उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी गंगे जननी
नव भारत में भीष्म रूपी सूत समरजयी जनती नहीं हो क्यूँ ?
---भूपेन हजारिका
Original Song:
Inspired by this song, Bhupenda created-
The Internationale
Stand up, damned of the Earth
Stand up, prisoners of starvation
Reason thunders in its volcano
This is the eruption of the end.
Of the past let us make a clean slate
Enslaved masses, stand up, stand up.
The world is about to change its foundation
We are nothing, let us be all.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
There are no supreme saviours
Neither God, nor Caesar, nor tribune.
Producers, let us save ourselves,
Decree the common salvation.
So that the thief expires,
So that the spirit be pulled from its prison,
Let us fan the forge ourselves
Strike the iron while it is hot.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
The State oppresses and the law cheats.
Tax bleeds the unfortunate.
No duty is imposed on the rich;
The rights of the poor is an empty phrase.
Enough languishing in custody!
Equality wants other laws:
No rights without duties, she says,
Equally, no duties without rights.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
Hideous in their apotheosis
The kings of the mine and of the rail.
Have they ever done anything other
Than steal work?
Inside the safeboxes of the gang,
What work had created melted.
By ordering that they give it back,
The people want only their due.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
The kings made us drunk with fumes,
Peace among us, war to the tyrants!
Let the armies go on strike,
Stocks in the air, and break ranks.
If they insist, these cannibals
On making heroes of us,
They will know soon that our bullets
Are for our own generals.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
Workers, peasants, we are
The great party of labourers.
The earth belongs only to men;
The idle will go to reside elsewhere.
How much of our flesh have they consumed?
But if these ravens, these vultures
Disappeared one of these days,
The sun will shine forever.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The International
Will be the human race. :|
--- Eugène Pottier
("L'Internationale" a widely sung left-wing anthem)
Stand up, prisoners of starvation
Reason thunders in its volcano
This is the eruption of the end.
Of the past let us make a clean slate
Enslaved masses, stand up, stand up.
The world is about to change its foundation
We are nothing, let us be all.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
There are no supreme saviours
Neither God, nor Caesar, nor tribune.
Producers, let us save ourselves,
Decree the common salvation.
So that the thief expires,
So that the spirit be pulled from its prison,
Let us fan the forge ourselves
Strike the iron while it is hot.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
The State oppresses and the law cheats.
Tax bleeds the unfortunate.
No duty is imposed on the rich;
The rights of the poor is an empty phrase.
Enough languishing in custody!
Equality wants other laws:
No rights without duties, she says,
Equally, no duties without rights.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
Hideous in their apotheosis
The kings of the mine and of the rail.
Have they ever done anything other
Than steal work?
Inside the safeboxes of the gang,
What work had created melted.
By ordering that they give it back,
The people want only their due.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
The kings made us drunk with fumes,
Peace among us, war to the tyrants!
Let the armies go on strike,
Stocks in the air, and break ranks.
If they insist, these cannibals
On making heroes of us,
They will know soon that our bullets
Are for our own generals.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The Internationale
Will be the human race. :|
Workers, peasants, we are
The great party of labourers.
The earth belongs only to men;
The idle will go to reside elsewhere.
How much of our flesh have they consumed?
But if these ravens, these vultures
Disappeared one of these days,
The sun will shine forever.
|: This is the final struggle
Let us group together, and tomorrow
The International
Will be the human race. :|
--- Eugène Pottier
("L'Internationale" a widely sung left-wing anthem)
27 सितंबर 2012
साँसों की परिधि
जैसे अन्धकार में
एक दीपक की लौ
और उसके वृत्त में करवट बदलता-सा
पीला अँधेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाँहों के दायरे में
मुस्करा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा।
अक्सर सोचा करता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु की परिधि और साँसों का घेरा।
--- दुष्यंत कुमार
एक दीपक की लौ
और उसके वृत्त में करवट बदलता-सा
पीला अँधेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाँहों के दायरे में
मुस्करा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा।
अक्सर सोचा करता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु की परिधि और साँसों का घेरा।
--- दुष्यंत कुमार
24 सितंबर 2012
Tonight I can write the saddest lines
Tonight I can write the saddest lines.
Write, for example,'The night is shattered
and the blue stars shiver in the distance.'
The night wind revolves in the sky and sings.
Tonight I can write the saddest lines.
I loved her, and sometimes she loved me too.
Through nights like this one I held her in my arms
I kissed her again and again under the endless sky.
She loved me sometimes, and I loved her too.
How could one not have loved her great still eyes.
Tonight I can write the saddest lines.
To think that I do not have her. To feel that I have lost her.
To hear the immense night, still more immense without her.
And the verse falls to the soul like dew to the pasture.
What does it matter that my love could not keep her.
The night is shattered and she is not with me.
This is all. In the distance someone is singing. In the distance.
My soul is not satisfied that it has lost her.
My sight searches for her as though to go to her.
My heart looks for her, and she is not with me.
The same night whitening the same trees.
We, of that time, are no longer the same.
I no longer love her, that's certain, but how I loved her.
My voice tried to find the wind to touch her hearing.
Another's. She will be another's. Like my kisses before.
Her voide. Her bright body. Her inifinite eyes.
I no longer love her, that's certain, but maybe I love her.
Love is so short, forgetting is so long.
Because through nights like this one I held her in my arms
my sould is not satisfied that it has lost her.
Though this be the last pain that she makes me suffer
and these the last verses that I write for her.
---Pablo Neruda
Write, for example,'The night is shattered
and the blue stars shiver in the distance.'
The night wind revolves in the sky and sings.
Tonight I can write the saddest lines.
I loved her, and sometimes she loved me too.
Through nights like this one I held her in my arms
I kissed her again and again under the endless sky.
She loved me sometimes, and I loved her too.
How could one not have loved her great still eyes.
Tonight I can write the saddest lines.
To think that I do not have her. To feel that I have lost her.
To hear the immense night, still more immense without her.
And the verse falls to the soul like dew to the pasture.
What does it matter that my love could not keep her.
The night is shattered and she is not with me.
This is all. In the distance someone is singing. In the distance.
My soul is not satisfied that it has lost her.
My sight searches for her as though to go to her.
My heart looks for her, and she is not with me.
The same night whitening the same trees.
We, of that time, are no longer the same.
I no longer love her, that's certain, but how I loved her.
My voice tried to find the wind to touch her hearing.
Another's. She will be another's. Like my kisses before.
Her voide. Her bright body. Her inifinite eyes.
I no longer love her, that's certain, but maybe I love her.
Love is so short, forgetting is so long.
Because through nights like this one I held her in my arms
my sould is not satisfied that it has lost her.
Though this be the last pain that she makes me suffer
and these the last verses that I write for her.
---Pablo Neruda
21 सितंबर 2012
The Wolf's Postcript to 'Little Red Riding Hood'
First, grant me my sense of history:
I did it for posterity,
for kindergarten teachers
and a clear moral:
Little girls shouldn't wander off
in search of strange flowers,
and they mustn't speak to strangers.
And then grant me my generous sense of plot:
Couldn't I have gobbled her up
right there in the jungle?
Why did I ask her where her grandma lived?
As if I, a forest-dweller,
didn't know of the cottage
under the three oak trees
and the old woman lived there
all alone?
As if I couldn't have swallowed her years before?
And you may call me the Big Bad Wolf,
now my only reputation.
But I was no child-molester
though you'll agree she was pretty.
And the huntsman:
Was I sleeping while he snipped
my thick black fur
and filled me with garbage and stones?
I ran with that weight and fell down,
simply so children could laugh
at the noise of the stones
cutting through my belly,
at the garbage spilling out
with a perfect sense of timing,
just when the tale
should have come to an end.
--- Agha Shahid Ali
I did it for posterity,
for kindergarten teachers
and a clear moral:
Little girls shouldn't wander off
in search of strange flowers,
and they mustn't speak to strangers.
And then grant me my generous sense of plot:
Couldn't I have gobbled her up
right there in the jungle?
Why did I ask her where her grandma lived?
As if I, a forest-dweller,
didn't know of the cottage
under the three oak trees
and the old woman lived there
all alone?
As if I couldn't have swallowed her years before?
And you may call me the Big Bad Wolf,
now my only reputation.
But I was no child-molester
though you'll agree she was pretty.
And the huntsman:
Was I sleeping while he snipped
my thick black fur
and filled me with garbage and stones?
I ran with that weight and fell down,
simply so children could laugh
at the noise of the stones
cutting through my belly,
at the garbage spilling out
with a perfect sense of timing,
just when the tale
should have come to an end.
--- Agha Shahid Ali
10 सितंबर 2012
Jodi Bheste Jaite Chao - Duel of Poets ( If You Wish to Go to Heaven)
SHISHWA (Disciple)
If you wish to go to heaven
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
If you want to be close to Allah
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
I'm just your daughter's age
I'll assume the side of shariah
And take an anti-Sufi stance
Don't take what I say to heart
You ignore the Holy Scriptures -
What kind of Muslims are you?
Why are the mullahs
always angry with you?
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
You need a measure of wisdom
to grasp the Koran and Hadith
How can half-read mullahs
interpret the intricate Scriptures?
They preach to others
without knowing the texts
The dogmatic mullahs
make their living from deception
Well fed and fattened, they use
their strength to abuse us
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
You Sufis chant Allah's name
Ignoring creed and prayer
You smoke pot during Ramadan
With the excuse of meditation
What kind of Islamic creed
Sanctions this immorality?
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
Just showing off your rituals
Is that true namaz?
Namaz is meditation,
To attain tranquility
Fasting is self control
How many really follow that?
They skip their meals by day
And eat double by night
We don't lust for heaven
And have no fear of hell
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
You don't go on pilgrimage
You don't give charity
What do you have against
Ritual sacrifice?
Why should Muslims
Quaver at the sight of blood?
GURU (Teacher)
You're asked to sacrifice
Your dearest ones
Are these cows and goats
Your most beloved?
Nothing is dearer than yourself
The supreme sacrifice is self sacrifice
If you can, restrain your senses
Control your passions
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
You roam around with women
Without wedding them
You sing and dance together
Without shame
The outside world is for men
The woman's place is at home
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
Woman is the seed of life
The source of creation
Those who believe in inequality
Lock women into marriage
Woman is the vessel of love
Woman is the Mother
Without Woman we would not
Come into being
(Together)
You need both man and woman
For procreation and creation
Keep love inside your heart
If you want to be close to Allah
Keep love inside your heart
--- Source. Selected Song Texts from the Film Matir Moina and Listen to song in youtube.
If you wish to go to heaven
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
If you want to be close to Allah
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
I'm just your daughter's age
I'll assume the side of shariah
And take an anti-Sufi stance
Don't take what I say to heart
You ignore the Holy Scriptures -
What kind of Muslims are you?
Why are the mullahs
always angry with you?
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
You need a measure of wisdom
to grasp the Koran and Hadith
How can half-read mullahs
interpret the intricate Scriptures?
They preach to others
without knowing the texts
The dogmatic mullahs
make their living from deception
Well fed and fattened, they use
their strength to abuse us
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
You Sufis chant Allah's name
Ignoring creed and prayer
You smoke pot during Ramadan
With the excuse of meditation
What kind of Islamic creed
Sanctions this immorality?
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
Just showing off your rituals
Is that true namaz?
Namaz is meditation,
To attain tranquility
Fasting is self control
How many really follow that?
They skip their meals by day
And eat double by night
We don't lust for heaven
And have no fear of hell
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
You don't go on pilgrimage
You don't give charity
What do you have against
Ritual sacrifice?
Why should Muslims
Quaver at the sight of blood?
GURU (Teacher)
You're asked to sacrifice
Your dearest ones
Are these cows and goats
Your most beloved?
Nothing is dearer than yourself
The supreme sacrifice is self sacrifice
If you can, restrain your senses
Control your passions
Keep love within your heart
SHISHWA (Disciple)
You roam around with women
Without wedding them
You sing and dance together
Without shame
The outside world is for men
The woman's place is at home
Keep fear of Allah in your heart
GURU (Teacher)
Woman is the seed of life
The source of creation
Those who believe in inequality
Lock women into marriage
Woman is the vessel of love
Woman is the Mother
Without Woman we would not
Come into being
(Together)
You need both man and woman
For procreation and creation
Keep love inside your heart
If you want to be close to Allah
Keep love inside your heart
--- Source. Selected Song Texts from the Film Matir Moina and Listen to song in youtube.
Poem
So what, if you've written a poem?!
Somebody says it's lovely,
Someone else says it's awful.
Someone coughs,
Someone groans.
The sun has no idea
About the lovely poem.
Nor does the cat
Nor the mouse.
And the house is still made of stone,
The table- of wood.
But the water
which I drink from a glass
Is suddenly sweet,
And green as grass.
I lift it high
Higher than my hair
And fall three times
To my knees then and there,
And kiss the table
and kiss the house!
and search every cranny
for that little mouse.
--- By Reyzl Zhychlinska
Translated by A.Z. Foreman
Somebody says it's lovely,
Someone else says it's awful.
Someone coughs,
Someone groans.
The sun has no idea
About the lovely poem.
Nor does the cat
Nor the mouse.
And the house is still made of stone,
The table- of wood.
But the water
which I drink from a glass
Is suddenly sweet,
And green as grass.
I lift it high
Higher than my hair
And fall three times
To my knees then and there,
And kiss the table
and kiss the house!
and search every cranny
for that little mouse.
--- By Reyzl Zhychlinska
Translated by A.Z. Foreman
7 सितंबर 2012
The Negro Speaks of Rivers
I've known rivers:
I've known rivers ancient as the world and older than the
flow of human blood in human veins.
My soul has grown deep like the rivers.
I bathed in the Euphrates when dawns were young.
I built my hut near the Congo and it lulled me to sleep.
I looked upon the Nile and raised the pyramids above it.
I heard the singing of the Mississippi when Abe Lincoln
went down to New Orleans, and I've seen its muddy
bosom turn all golden in the sunset.
I've known rivers:
Ancient, dusky rivers.
My soul has grown deep like the rivers.
--- Langston Hughes
I've known rivers ancient as the world and older than the
flow of human blood in human veins.
My soul has grown deep like the rivers.
I bathed in the Euphrates when dawns were young.
I built my hut near the Congo and it lulled me to sleep.
I looked upon the Nile and raised the pyramids above it.
I heard the singing of the Mississippi when Abe Lincoln
went down to New Orleans, and I've seen its muddy
bosom turn all golden in the sunset.
I've known rivers:
Ancient, dusky rivers.
My soul has grown deep like the rivers.
--- Langston Hughes
6 सितंबर 2012
I am Goya
I am Goya
of the bare field, by the enemy’s beak gouged
till the craters of my eyes gape
I am grief
I am the tongue
of war, the embers of cities
on the snows of the year 1941
I am hunger
I am the gullet
of a woman hanged whose body like a bell
tolled over a blank square
I am Goya
O grapes of wrath!
I have hurled westward
the ashes of the uninvited guest!
and hammered stars into the unforgetting sky – like nails
I am Goya
---Andrey Voznesensky
(translated from the Russian by Stanley Kunitz)
of the bare field, by the enemy’s beak gouged
till the craters of my eyes gape
I am grief
I am the tongue
of war, the embers of cities
on the snows of the year 1941
I am hunger
I am the gullet
of a woman hanged whose body like a bell
tolled over a blank square
I am Goya
O grapes of wrath!
I have hurled westward
the ashes of the uninvited guest!
and hammered stars into the unforgetting sky – like nails
I am Goya
---Andrey Voznesensky
(translated from the Russian by Stanley Kunitz)
5 सितंबर 2012
From the Indispensable Calvin and Hobbes
I made a big decision a little while ago.
I don’t remember what it was, which prob’ly goes to show
That many times a simple choice can prove to be essential
Even though it often might appear inconsequential.
I must have been distracted when I left my home because
Left or right I’m sure I went. (I wonder which it was!)
Anyway, I never veered: I walked in that direction
Utterly absorbed, it seems, in quiet introspection.
For no reason I can think of, I’ve wandered far astray.
And that is how I got to where I find myself today.
Explorers are we, intrepid and bold,
Out in the wild, amongst wonders untold.
Equipped wit our wits, a map, and a snack,
We’re searching for fun and we’re on the right track!
My mother has eyes on the back of her head!
I don’t quite believe it, but that’s what she said.
She explained that she’d been so uniquely endowed
To catch me when I did Things Not Allowed.
I think she must also have eyes on her rear.
I’ve noticed her hindsight is usually clear.
At night my mind does not much care
If what it thinks is here or there.
It tells me stories it invents
And makes up things that don’t make sense.
I don’t know why it does this stuff.
The real world seems quite weird enough.
What if my bones were in a museum,
Where aliens paid good money to see ‘em?
And suppose that they’d put me together all wrong,
Sticking bones on to bones where they didn’t belong!
Imagine phalanges, pelvis, and spine
Welded to mandibles that once had been mine!
With each misassemblage, the error compounded,
The aliens would draw back in terror, astounded!
Their textbooks would show me in grim illustration,
The most hideous thing ever seen in creation!
The museum would commission a model in plaster
Of ME, to be called, “Evolution’s Disaster”!
And paleontologists there would debate
Dozens of theories to help postulate
How man survived for those thousands of years
With teeth-covered arms growing out of his ears!
Oh, I hope that I’m never in such manner displayed,
No matter HOW much to see me the aliens paid.
I did not want to go with them.
Alas, I had no choice.
This was made quite clear to me
In threat’ning tones of voice.
I protested mightily
And scrambled ‘cross the floor.
But though I grabbed the furniture,
they dragged me out of the door.
In the car, I screamed and moaned.
I cried my red eyes dry.
The window down, I yelled for help
To people we passed by.
Mom and Dad can make the rules
And certain things forbid,
But I can make them wish that they
Had never had a kid.
Now I’m in bed,
The sheets pulled to my head.
My tiger is here making Zs.
He’s furry and hot.
He takes up a lot
Of the bed and he’s hogging the breeze.
--- Bill Watterson
I don’t remember what it was, which prob’ly goes to show
That many times a simple choice can prove to be essential
Even though it often might appear inconsequential.
I must have been distracted when I left my home because
Left or right I’m sure I went. (I wonder which it was!)
Anyway, I never veered: I walked in that direction
Utterly absorbed, it seems, in quiet introspection.
For no reason I can think of, I’ve wandered far astray.
And that is how I got to where I find myself today.
Explorers are we, intrepid and bold,
Out in the wild, amongst wonders untold.
Equipped wit our wits, a map, and a snack,
We’re searching for fun and we’re on the right track!
My mother has eyes on the back of her head!
I don’t quite believe it, but that’s what she said.
She explained that she’d been so uniquely endowed
To catch me when I did Things Not Allowed.
I think she must also have eyes on her rear.
I’ve noticed her hindsight is usually clear.
At night my mind does not much care
If what it thinks is here or there.
It tells me stories it invents
And makes up things that don’t make sense.
I don’t know why it does this stuff.
The real world seems quite weird enough.
What if my bones were in a museum,
Where aliens paid good money to see ‘em?
And suppose that they’d put me together all wrong,
Sticking bones on to bones where they didn’t belong!
Imagine phalanges, pelvis, and spine
Welded to mandibles that once had been mine!
With each misassemblage, the error compounded,
The aliens would draw back in terror, astounded!
Their textbooks would show me in grim illustration,
The most hideous thing ever seen in creation!
The museum would commission a model in plaster
Of ME, to be called, “Evolution’s Disaster”!
And paleontologists there would debate
Dozens of theories to help postulate
How man survived for those thousands of years
With teeth-covered arms growing out of his ears!
Oh, I hope that I’m never in such manner displayed,
No matter HOW much to see me the aliens paid.
I did not want to go with them.
Alas, I had no choice.
This was made quite clear to me
In threat’ning tones of voice.
I protested mightily
And scrambled ‘cross the floor.
But though I grabbed the furniture,
they dragged me out of the door.
In the car, I screamed and moaned.
I cried my red eyes dry.
The window down, I yelled for help
To people we passed by.
Mom and Dad can make the rules
And certain things forbid,
But I can make them wish that they
Had never had a kid.
Now I’m in bed,
The sheets pulled to my head.
My tiger is here making Zs.
He’s furry and hot.
He takes up a lot
Of the bed and he’s hogging the breeze.
--- Bill Watterson
4 सितंबर 2012
The Game
He is a poor pawn.
He always jumps to the next square.
He doesn’t turn left or right
and doesn’t look back.
He is moved by a foolish queen
who cuts across the board
lengthwise and diagonally.
She doesn’t tire of carrying the medals
and cursing the bishops.
She is a poor queen
moved by a reckless king
who counts the squares every day
and claims that they are diminishing.
He arranges the knights and rooks
and dreams of a stubborn opponent.
He is a poor king
moved by an experienced player
who rubs his head
and loses his time in an endless game.
He is a poor player
moved by an empty life
without black or white.
It is a poor life
moved by a bewildered god
who once tried to play with clay.
He is a poor god.
He doesn’t know how
to escape
from his dilemma.
---Dunya Mikhail
[translated from the Arabic by Elizabeth Winslow]
He always jumps to the next square.
He doesn’t turn left or right
and doesn’t look back.
He is moved by a foolish queen
who cuts across the board
lengthwise and diagonally.
She doesn’t tire of carrying the medals
and cursing the bishops.
She is a poor queen
moved by a reckless king
who counts the squares every day
and claims that they are diminishing.
He arranges the knights and rooks
and dreams of a stubborn opponent.
He is a poor king
moved by an experienced player
who rubs his head
and loses his time in an endless game.
He is a poor player
moved by an empty life
without black or white.
It is a poor life
moved by a bewildered god
who once tried to play with clay.
He is a poor god.
He doesn’t know how
to escape
from his dilemma.
---Dunya Mikhail
[translated from the Arabic by Elizabeth Winslow]
3 सितंबर 2012
Shahrayaristry
I stand accused of Shahrayaristry
By friends
By enemies,
Accused of Shahrayaristry,
Of collecting women
Like stamps or empty matchbooks,
Of pinning them up
On the walls of my room.
They call me narcissistic,
Oedipal, sadistic...
Accusing me of every known disorder
To prove themselves educated
And me a deviant.
Nobody will hear my testimony,
My love.
The judges are biased
The witnesses bribed.
I am declared guilty
Before I testify.
Nobody, my love,
Understands my childhood
For I am from a city
That has no love for children,
That knows no innocence,
That has never bought one rose
Or book of poetry,
A city of rough hands,
Of hard feelings and hearts
Calcified by swallowed glass and nails.
I come from a city of ice walls
Whose children are dead of frostbite.
I make no apologies, have no intentions
To hire a lawyer
Or save my head from rope.
A thousand times they hung me
Till my neck got used to hanging,
And my body to the ambulance.
I make no apologies, have no hopes
For an innocent verdict
From any man,
But in a public hearing
I will tell you alone
Before my mere accusers,
Who tried me for possessing more than one woman
For hoarding perfumes, rings, combs
And other rationed things in wartime:
I love you alone,
I cling to you
As the peel to the pomegranate,
The tear to the eye
And the knife to the wound.
I want to say
If just this once
That I have never followed Shahrayar,
I am no murderer
And have never melted women in acid,
But am a poet,
Writing out loud,
Loving out loud.
I am a green-eyed child
Hanged on the gates of a childless city.
--- By Nizar Qabbani
Translated by A.Z. Foreman
*Shahrayar=The King
By friends
By enemies,
Accused of Shahrayaristry,
Of collecting women
Like stamps or empty matchbooks,
Of pinning them up
On the walls of my room.
They call me narcissistic,
Oedipal, sadistic...
Accusing me of every known disorder
To prove themselves educated
And me a deviant.
Nobody will hear my testimony,
My love.
The judges are biased
The witnesses bribed.
I am declared guilty
Before I testify.
Nobody, my love,
Understands my childhood
For I am from a city
That has no love for children,
That knows no innocence,
That has never bought one rose
Or book of poetry,
A city of rough hands,
Of hard feelings and hearts
Calcified by swallowed glass and nails.
I come from a city of ice walls
Whose children are dead of frostbite.
I make no apologies, have no intentions
To hire a lawyer
Or save my head from rope.
A thousand times they hung me
Till my neck got used to hanging,
And my body to the ambulance.
I make no apologies, have no hopes
For an innocent verdict
From any man,
But in a public hearing
I will tell you alone
Before my mere accusers,
Who tried me for possessing more than one woman
For hoarding perfumes, rings, combs
And other rationed things in wartime:
I love you alone,
I cling to you
As the peel to the pomegranate,
The tear to the eye
And the knife to the wound.
I want to say
If just this once
That I have never followed Shahrayar,
I am no murderer
And have never melted women in acid,
But am a poet,
Writing out loud,
Loving out loud.
I am a green-eyed child
Hanged on the gates of a childless city.
--- By Nizar Qabbani
Translated by A.Z. Foreman
*Shahrayar=The King
1 सितंबर 2012
Slip
I count up the corpses and aircraft
Falling in pieces from the news
I count the bullets that are exhumed,
The bullets that are buried
And the bullets preparing
To be shot loose.
I follow the ritual of food.
I finish my plate
By eating the plate
After a day of hard labor.
When did I get this heartless?
Tomorrow, I'll make room in a corner of your chest
Where I can cry
And I just might exhume the corpse out of my chest
And prepare a ritual
Of proper burial.
---By Nawal Naffaa
Translated by A.Z. Foreman
Falling in pieces from the news
I count the bullets that are exhumed,
The bullets that are buried
And the bullets preparing
To be shot loose.
I follow the ritual of food.
I finish my plate
By eating the plate
After a day of hard labor.
When did I get this heartless?
Tomorrow, I'll make room in a corner of your chest
Where I can cry
And I just might exhume the corpse out of my chest
And prepare a ritual
Of proper burial.
---By Nawal Naffaa
Translated by A.Z. Foreman
24 अगस्त 2012
Negah Kon
Listen!
(1)
The bad year,
The sad year,
The windy year,
The tearful year,
The year of overwhelming doubts.
The year,
whose days were running too long,
and its patience-falling too short.
The year that Pride,
the year that Sense of Pride,
begged at their knees.
The year of plight,
The lowly year,
The year of shadow-
and sorrow.
The year Poury cried;
The year of Morteza’s blood;
The resigning leap year…
(2)
Life is not a trap.
Love is not a trap.
Not even death has ever been a trap-
a trap to me.
For the dearly loved-
and the dearly dead,
fly free, fly in freedom,
fine and whole.
(3)
I found my love in the bad year,
in the sad year,
and it repeats to me-
again and again:
“Do not give in!”
I found my hope in the ocean of despair,
My silvery moonlight in the dark night,
My love in the year of plight,
And exactly when-
I was about to turn into ash-
I went on fire.
Life was spiteful to me-
but somehow-
I could just smile.
This earth was cruel to me-
but somehow-
I could just lay unafraid-
on the ground.
For perhaps,
looking inside-
I could somehow decide-
that life is not dark,
and Earth is neat.
***
I was bad.
But I was not evil.
I escaped from Evil.
And the whole world cursed me.
Then,
the bad year,
the sad year arrived:
The year Poury cried;
The year of Morteza’s blood;
The year of gloom.
But somehow,
somewhere-
in that year-
I found the stars,
I found the sublime,
I found the good.
And I bloomed.
You are fine.
And it is a confession.
I have already-
confessed and cried-
many times.
Now,
I can somehow-
confess and smile.
Perhaps for I could decide-
the first and the last,
the dark and the light,
and days and nights,
are meant to merge.
(4)
You are fine.
And I was not evil.
I found you somewhere in this world-
and my might,
and my words,
my flesh and my soul,
all turned into poem.
Even the hardest rocks-
turned into poem.
And,
Evil turned into a verse,
And the verse turned into beauty.
So the Heavens sang,
the birds sang,
and water danced.
I asked you:
“Be my small sparrow and I become-
by your return, next spring-
a blossomed tree.”
The snow melted,
flowers beamed.
And Sun smiled.
And I watched,
And I somehow changed.
To you,
I now confess:
“You are swell,
and the bad year,
the sad year, well,
is gone.”
You smiled.
And I came back-
to Life.
(5)
I want to be good.
I want to be you!
This is all I can now confess.
Listen!
Stay with me!
Stay forever- if you please!
By Ahmad Shamlou
Translation: Maryam Dilmaghani, July 2009, New Brunswick
Translated from the poem "Negah Kon" first published in the anthology Havay-e Tazeh (Fresh Air) 1957, Tehran.
(1)
The bad year,
The sad year,
The windy year,
The tearful year,
The year of overwhelming doubts.
The year,
whose days were running too long,
and its patience-falling too short.
The year that Pride,
the year that Sense of Pride,
begged at their knees.
The year of plight,
The lowly year,
The year of shadow-
and sorrow.
The year Poury cried;
The year of Morteza’s blood;
The resigning leap year…
(2)
Life is not a trap.
Love is not a trap.
Not even death has ever been a trap-
a trap to me.
For the dearly loved-
and the dearly dead,
fly free, fly in freedom,
fine and whole.
(3)
I found my love in the bad year,
in the sad year,
and it repeats to me-
again and again:
“Do not give in!”
I found my hope in the ocean of despair,
My silvery moonlight in the dark night,
My love in the year of plight,
And exactly when-
I was about to turn into ash-
I went on fire.
Life was spiteful to me-
but somehow-
I could just smile.
This earth was cruel to me-
but somehow-
I could just lay unafraid-
on the ground.
For perhaps,
looking inside-
I could somehow decide-
that life is not dark,
and Earth is neat.
***
I was bad.
But I was not evil.
I escaped from Evil.
And the whole world cursed me.
Then,
the bad year,
the sad year arrived:
The year Poury cried;
The year of Morteza’s blood;
The year of gloom.
But somehow,
somewhere-
in that year-
I found the stars,
I found the sublime,
I found the good.
And I bloomed.
You are fine.
And it is a confession.
I have already-
confessed and cried-
many times.
Now,
I can somehow-
confess and smile.
Perhaps for I could decide-
the first and the last,
the dark and the light,
and days and nights,
are meant to merge.
(4)
You are fine.
And I was not evil.
I found you somewhere in this world-
and my might,
and my words,
my flesh and my soul,
all turned into poem.
Even the hardest rocks-
turned into poem.
And,
Evil turned into a verse,
And the verse turned into beauty.
So the Heavens sang,
the birds sang,
and water danced.
I asked you:
“Be my small sparrow and I become-
by your return, next spring-
a blossomed tree.”
The snow melted,
flowers beamed.
And Sun smiled.
And I watched,
And I somehow changed.
To you,
I now confess:
“You are swell,
and the bad year,
the sad year, well,
is gone.”
You smiled.
And I came back-
to Life.
(5)
I want to be good.
I want to be you!
This is all I can now confess.
Listen!
Stay with me!
Stay forever- if you please!
By Ahmad Shamlou
Translation: Maryam Dilmaghani, July 2009, New Brunswick
Translated from the poem "Negah Kon" first published in the anthology Havay-e Tazeh (Fresh Air) 1957, Tehran.
15 अगस्त 2012
यही बाकी निशां होगा !
अरूजे कामयाबी पर कभी तो हिन्दुस्तां होगा ।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियां हेागा ।।
चखायेगे मजा बरबादिये गुलशन का गुलची को ।
बहार आयेगी उस दिन जब कि अपना बागवां होगा ।।
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है ।
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तहां होगा ।।
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दें वतन हरगिज ।
न जाने बाद मुर्दन मैं कहां.. और तू कहां होगा ।।
यह आये दिन को छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे कातिल !
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा ।।
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगें हर बरस मेले ।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।
इलाही वह भी दिन होगा जब अपना राज्य देखेंगे ।
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा ।।
--- पं० जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी'
This poem is wrongly attributed to RamPrasad Bismil while its author was Pandit Jagdamba Prasad Mishra 'Hiteshi'.
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियां हेागा ।।
चखायेगे मजा बरबादिये गुलशन का गुलची को ।
बहार आयेगी उस दिन जब कि अपना बागवां होगा ।।
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है ।
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तहां होगा ।।
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दें वतन हरगिज ।
न जाने बाद मुर्दन मैं कहां.. और तू कहां होगा ।।
यह आये दिन को छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे कातिल !
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा ।।
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगें हर बरस मेले ।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।
इलाही वह भी दिन होगा जब अपना राज्य देखेंगे ।
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा ।।
--- पं० जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी'
This poem is wrongly attributed to RamPrasad Bismil while its author was Pandit Jagdamba Prasad Mishra 'Hiteshi'.
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसीका पन्द्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है...
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्छों नहीं! कुच्छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छों नहीं, कुच्छों नहीं...
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है...
---नागार्जुन
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसीका पन्द्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है...
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्छों नहीं! कुच्छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छों नहीं, कुच्छों नहीं...
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है...
---नागार्जुन
10 अगस्त 2012
तानाशाह
वह अभी तक सोचता है
कि तानाशाह बिल्कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा
यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्ले-तमगे और
भीड़ को सम्मोहित करने की वाकपटुता
जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा|
---उदयप्रकाश
कि तानाशाह बिल्कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा
यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्ले-तमगे और
भीड़ को सम्मोहित करने की वाकपटुता
जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा|
---उदयप्रकाश
31 जुलाई 2012
"लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदा-ए-लखनऊ"
"ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क का वतन
यही तो वो मकाम है
जहाँ अवध की शाम है
जवां-जवां, हसीं-हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये एहल-ए-इल्म का नगर
है मंजिलों की गोद में
यहाँ की हर एक रहगुज़र
ये शहर लालाज़ार है
यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर एहल-ए-दिल यहाँ
गरीब जां-निसार हैं
हर इक शाख पर यहाँ
हैं बुलबुलों के चहचहे
गली गली में ज़िन्दगी
क़दम क़दम पे कहकहे
हर इक नज़ारा दिलनशीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ के दोस्त बा-वफ़ा
मोहब्बतों से आशना
किसी के हो गए अगर
रहे उसी के उम्र भर
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबान भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती का हो यकीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ कि सरज़मीं"
-- शकील बदायुनी
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क का वतन
यही तो वो मकाम है
जहाँ अवध की शाम है
जवां-जवां, हसीं-हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये एहल-ए-इल्म का नगर
है मंजिलों की गोद में
यहाँ की हर एक रहगुज़र
ये शहर लालाज़ार है
यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर एहल-ए-दिल यहाँ
गरीब जां-निसार हैं
हर इक शाख पर यहाँ
हैं बुलबुलों के चहचहे
गली गली में ज़िन्दगी
क़दम क़दम पे कहकहे
हर इक नज़ारा दिलनशीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ के दोस्त बा-वफ़ा
मोहब्बतों से आशना
किसी के हो गए अगर
रहे उसी के उम्र भर
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबान भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती का हो यकीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ कि सरज़मीं"
-- शकील बदायुनी
7 जून 2012
ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत साँसों से लालसा भरे,
ये ढीठ समीरण के झोंके,
कंटकित हुए रोएँ तन के
किन अदृश करों से आलोड़ित
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर-झर झर-झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!
झर -
नदी कूल के झर नरसल
झर - उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल
झर -
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करुण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की साँसों में सिहरी,
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी-सी आँखड़ियाँ
झर! सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!
झर -
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया-सा भूरा पानी
थिगलियाँ-भरे-छीजे आँचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी,
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर-झर झर-झर
द्रुत मंद स्वर
आए दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!
कंपित फरास की ध्वनि सर-सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर -
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!
ओ कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हाँ कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली,
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरुथल के रेणुक कण रुखे!
झर-जीवन गाति आनी जानी
उठती गिरतीं सूनी साँसें
लोचन अंतस प्यासे भूखे
अलमस्त चल दिए छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!
- अज्ञेय
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत साँसों से लालसा भरे,
ये ढीठ समीरण के झोंके,
कंटकित हुए रोएँ तन के
किन अदृश करों से आलोड़ित
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर-झर झर-झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!
झर -
नदी कूल के झर नरसल
झर - उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल
झर -
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करुण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की साँसों में सिहरी,
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी-सी आँखड़ियाँ
झर! सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!
झर -
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया-सा भूरा पानी
थिगलियाँ-भरे-छीजे आँचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी,
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर-झर झर-झर
द्रुत मंद स्वर
आए दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!
कंपित फरास की ध्वनि सर-सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर -
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!
ओ कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हाँ कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली,
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरुथल के रेणुक कण रुखे!
झर-जीवन गाति आनी जानी
उठती गिरतीं सूनी साँसें
लोचन अंतस प्यासे भूखे
अलमस्त चल दिए छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!
- अज्ञेय
29 मई 2012
My body is not your battle ground
My Body is not your battleground
My breasts are neither wells nor mountians,
neither Badr nor Uhud
My breasts do not want to lead revolutions
nor to become prisoners of war
My breasts seek amnesty: release them
so I can glory in their milktipped fullness,
so I can offer them to my sweet love
without your flags and banners on them
My body is not your battleground
My hair is neither sacred nor cheap,
neither the cause of your disarray
nor the path to your liberation
My hair will not bring progress and clean water
if it flies unbraided in the breeze
It will not save us from our attackers
if it is wrapped and shielded from the sun
Untangle your hands from my hair
so I can comb and delight in it,
so I can honor and annoint it,
so I can spill it over the chest of my sweet love
My body is not your battleground
My private garden is not your tillage
My thighs are not highway lanes to your Golden City
My belly is not the store of your bushels of wheat
My womb is not the cradle of your soldiers,
not the ship of your journey to the homeland
Leave me to discover the lakes
that glisten in my green forests
and to understand the power of their waters
Leave me to fill or not fill my chalice
with the wine or honey of my sweet love
Is it your skin that will tear when the head of the new world emerges?
My body is not your battleground
How dare you put your hand
where I have not given permission
Has God, then, given you permission
to put your hand there?
My body is not your battle ground
Withdraw from the eastern fronts and the western
Withdraw these armaments and this siege
so that I may prepare the earth
for the new age of lilac and clover,
so that I may celebrate this spring
the pageant of beauty with my sweet love.
- Mohja Kahf, 1998
My breasts are neither wells nor mountians,
neither Badr nor Uhud
My breasts do not want to lead revolutions
nor to become prisoners of war
My breasts seek amnesty: release them
so I can glory in their milktipped fullness,
so I can offer them to my sweet love
without your flags and banners on them
My body is not your battleground
My hair is neither sacred nor cheap,
neither the cause of your disarray
nor the path to your liberation
My hair will not bring progress and clean water
if it flies unbraided in the breeze
It will not save us from our attackers
if it is wrapped and shielded from the sun
Untangle your hands from my hair
so I can comb and delight in it,
so I can honor and annoint it,
so I can spill it over the chest of my sweet love
My body is not your battleground
My private garden is not your tillage
My thighs are not highway lanes to your Golden City
My belly is not the store of your bushels of wheat
My womb is not the cradle of your soldiers,
not the ship of your journey to the homeland
Leave me to discover the lakes
that glisten in my green forests
and to understand the power of their waters
Leave me to fill or not fill my chalice
with the wine or honey of my sweet love
Is it your skin that will tear when the head of the new world emerges?
My body is not your battleground
How dare you put your hand
where I have not given permission
Has God, then, given you permission
to put your hand there?
My body is not your battle ground
Withdraw from the eastern fronts and the western
Withdraw these armaments and this siege
so that I may prepare the earth
for the new age of lilac and clover,
so that I may celebrate this spring
the pageant of beauty with my sweet love.
- Mohja Kahf, 1998
12 मई 2012
जे.एन.यू. में हिंदी
जी, यही मेरा घर है
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था
इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को
इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला
पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !
विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
‘अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !
वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे
ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह
रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...
और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी
---केदारनाथ सिंह
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था
इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को
इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला
पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !
विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
‘अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !
वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे
ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह
रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...
और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी
---केदारनाथ सिंह
27 अप्रैल 2012
जय बोल बेईमान की
मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !
--- काका हाथरसी
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !
--- काका हाथरसी
13 अप्रैल 2012
विफलता : शोध की मंज़िले
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे ! – लोकनायक जयप्रकाश नारायण
(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे ! – लोकनायक जयप्रकाश नारायण
(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)
12 अप्रैल 2012
What Must Be Said
Why do I stay silent, conceal for too long
What is obvious and has been
Practiced in war games, at the end of which we as survivors
Are at best footnotes.It is the alleged right to the first strike
That could annihilate the Iranian people–
Subjugated by a loud-mouth
And guided to organized jubilation–
Because in their sphere of power,
It is suspected, a nuclear bomb is being built.
Yet why do I forbid myself
To name that other country
In which, for years, even if secretly,
There has been a growing nuclear potential at hand
But beyond control, because not accessible to inspections?
The universal concealment of these facts,
To which my silence subordinated itself,
I sense as an incriminating lie
And coercion–the punishment is promised
As soon as it is ignored;
The verdict of “anti-Semitism” is familiar.
Now, though, because in my country
Which time and again has sought and confronted
Its very own crimes
That is without comparison
In turn on a purely commercial basis, if also
With nimble lips calling it a reparation, declares
A further U-boat should be delivered to Israel,
Whose specialty consists of guiding all-destroying warheads to where the existence
Of a single atomic bomb is unproven,
But fear wishes to be of conclusive evidence,
I say what must be said.
But why have I stayed silent until now?
Because I thought my origin,
Afflicted by a stain never to be expunged
Forbade this fact as pronounced truth
To be told to the nation of Israel, to which I am bound
And wish to stay bound.
Why do I say only now,
Aged and with my last ink,
The nuclear power Israel endangers
The already fragile world peace?
Because it must be said
What even tomorrow may be too late to say;
Also because we–as Germans burdened enough–
Could become suppliers to a crime
That is foreseeable, wherefore our complicity
Could not be redeemed through any of the usual excuses.
And granted: I am silent no longer
Because I am tired of the West’s hypocrisy;
In addition to which it is to be hoped
That this will free many from silence,
Appeal to the perpetrator of the recognizable danger
To renounce violence and
Likewise insist
That an unhindered and permanent control
Of the Israeli nuclear potential
And the Iranian nuclear sites
Be authorized through an international agency
By the governments of both countries.
Only this way are all, the Israelis and Palestinians,
Even more, all people, that in this
Region occupied by mania
Live cheek by jowl among enemies,
And also us, to be helped.
---Günter Grass
( Original Title - Was gesagt werden muss )
What is obvious and has been
Practiced in war games, at the end of which we as survivors
Are at best footnotes.It is the alleged right to the first strike
That could annihilate the Iranian people–
Subjugated by a loud-mouth
And guided to organized jubilation–
Because in their sphere of power,
It is suspected, a nuclear bomb is being built.
Yet why do I forbid myself
To name that other country
In which, for years, even if secretly,
There has been a growing nuclear potential at hand
But beyond control, because not accessible to inspections?
The universal concealment of these facts,
To which my silence subordinated itself,
I sense as an incriminating lie
And coercion–the punishment is promised
As soon as it is ignored;
The verdict of “anti-Semitism” is familiar.
Now, though, because in my country
Which time and again has sought and confronted
Its very own crimes
That is without comparison
In turn on a purely commercial basis, if also
With nimble lips calling it a reparation, declares
A further U-boat should be delivered to Israel,
Whose specialty consists of guiding all-destroying warheads to where the existence
Of a single atomic bomb is unproven,
But fear wishes to be of conclusive evidence,
I say what must be said.
But why have I stayed silent until now?
Because I thought my origin,
Afflicted by a stain never to be expunged
Forbade this fact as pronounced truth
To be told to the nation of Israel, to which I am bound
And wish to stay bound.
Why do I say only now,
Aged and with my last ink,
The nuclear power Israel endangers
The already fragile world peace?
Because it must be said
What even tomorrow may be too late to say;
Also because we–as Germans burdened enough–
Could become suppliers to a crime
That is foreseeable, wherefore our complicity
Could not be redeemed through any of the usual excuses.
And granted: I am silent no longer
Because I am tired of the West’s hypocrisy;
In addition to which it is to be hoped
That this will free many from silence,
Appeal to the perpetrator of the recognizable danger
To renounce violence and
Likewise insist
That an unhindered and permanent control
Of the Israeli nuclear potential
And the Iranian nuclear sites
Be authorized through an international agency
By the governments of both countries.
Only this way are all, the Israelis and Palestinians,
Even more, all people, that in this
Region occupied by mania
Live cheek by jowl among enemies,
And also us, to be helped.
---Günter Grass
( Original Title - Was gesagt werden muss )
31 मार्च 2012
तंग आ चुके हैं हम...
तंग आ चुके कश्मकशे जिंदगी से हम...
ठुकरा न दे जहाँ को कहीं बेरुखी से हम...
हम गमजदा हैं लाये कहाँ से खुशी के गीत....
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम...
उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवाले...
माना की दब गए हैं गम-ऐ-जिंदगी से हम...
लो आज हमने आज तोड़ दिया रिश्ता-ऐ-उम्मीद....
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम...
---साहिर लुधियानवी.
ठुकरा न दे जहाँ को कहीं बेरुखी से हम...
हम गमजदा हैं लाये कहाँ से खुशी के गीत....
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम...
उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवाले...
माना की दब गए हैं गम-ऐ-जिंदगी से हम...
लो आज हमने आज तोड़ दिया रिश्ता-ऐ-उम्मीद....
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम...
---साहिर लुधियानवी.
30 मार्च 2012
कुछ दूर हमारे साथ चलो
कुछ दूर हमारे साथ चलो हम दिल की कहानी कह देंगे
समझे न जिसे तुम आँखों से वो बात ज़ुबानी कह देंगे
जो प्यार करेंगे जानेंगे हर बात हमारी मानेंगे
जो ख़ुद न जले हों उल्फ़त में वो आग को पानी कह देंगे,
जब प्यास जवाँ हो जायेगी एहसास की मंज़िल पायेगी
ख़ामोश रहेंगे और तुम्हें हम अपनी कहानी कह देंगे
इस दिल में ज़रा तुम बैठो तो कुछ हाल हमारा पूछो तो
हम सादा दिल हैं 'अश्क' मगर हर बात पुरानी कह देंगे|
---इब्राहीम अश्क़
समझे न जिसे तुम आँखों से वो बात ज़ुबानी कह देंगे
जो प्यार करेंगे जानेंगे हर बात हमारी मानेंगे
जो ख़ुद न जले हों उल्फ़त में वो आग को पानी कह देंगे,
जब प्यास जवाँ हो जायेगी एहसास की मंज़िल पायेगी
ख़ामोश रहेंगे और तुम्हें हम अपनी कहानी कह देंगे
इस दिल में ज़रा तुम बैठो तो कुछ हाल हमारा पूछो तो
हम सादा दिल हैं 'अश्क' मगर हर बात पुरानी कह देंगे|
---इब्राहीम अश्क़
20 मार्च 2012
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
---अज्ञेय
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
---अज्ञेय
16 मार्च 2012
कॉलेज के रोमांस में
कॉलेज के रोमांस में ऐसा होता था/
डेस्क के पीछे बैठे-बैठे/
चुपके से दो हाथ सरकते
धीरे-धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक पूरा हाथ पकड़ लेता था,
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है चाँद का हाथ फ़लक में आज।।
---गुलज़ार...
डेस्क के पीछे बैठे-बैठे/
चुपके से दो हाथ सरकते
धीरे-धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक पूरा हाथ पकड़ लेता था,
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है चाँद का हाथ फ़लक में आज।।
---गुलज़ार...
19 फ़रवरी 2012
मुहब्बत में वफ़ादारी से बचिये
मुहब्बत में वफ़ादारी से बचिये
जहाँ तक हो अदाकारी से बचिये
हर एक सूरत भली लगती है कुछ दिन
लहू की शोबदाकारी[1] से बचिये
शराफ़त आदमियत दर्द-मन्दी
बड़े शहरों में बीमारी से बचिये
ज़रूरी क्या हर एक महफ़िल में आना
तक़ल्लुफ़ की रवादारी[2] से बचिये
बिना पैरों के सर चलते नहीं हैं
बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिये
शब्दार्थ:
↑ धोखा
↑ उदारता
--- निदा फ़ाज़ली
जहाँ तक हो अदाकारी से बचिये
हर एक सूरत भली लगती है कुछ दिन
लहू की शोबदाकारी[1] से बचिये
शराफ़त आदमियत दर्द-मन्दी
बड़े शहरों में बीमारी से बचिये
ज़रूरी क्या हर एक महफ़िल में आना
तक़ल्लुफ़ की रवादारी[2] से बचिये
बिना पैरों के सर चलते नहीं हैं
बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिये
शब्दार्थ:
↑ धोखा
↑ उदारता
--- निदा फ़ाज़ली
जब किसी से कोई गिला रखना
जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना
यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना
मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना
मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना
-निदा फ़ाज़ली
सामने अपने आईना रखना
यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना
मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना
मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना
-निदा फ़ाज़ली
15 फ़रवरी 2012
ज़िन्दगी जैसी तवक्को थी
ज़िन्दगी जैसी तवक्को थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है अहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक यह ज़मीं कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज्यादा कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात है कि पहली सी नहीं कुछ कम है |
---Shahriyar
हर घड़ी होता है अहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक यह ज़मीं कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज्यादा कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात है कि पहली सी नहीं कुछ कम है |
---Shahriyar
27 जनवरी 2012
थरथरी सी है आसमानों में
थरथरी सी है आसमानों में
जोर कुछ तो है नातवानों में
कितना खामोश है जहां लेकिन
इक सदा आ रही है कानों में
कोई सोचे तो फ़र्क कितना है
हुस्न और इश्क के फ़सानों में
मौत के भी उडे हैं अक्सर होश
ज़िन्दगी के शराबखानों में
जिन की तामीर इश्क करता है
कौन रहता है उन मकानों में
इन्ही तिनकों में देख ऐ बुलबुल
बिजलियां भी हैं आशियानों में
--- फ़िराक़ गोरखपुरी
जोर कुछ तो है नातवानों में
कितना खामोश है जहां लेकिन
इक सदा आ रही है कानों में
कोई सोचे तो फ़र्क कितना है
हुस्न और इश्क के फ़सानों में
मौत के भी उडे हैं अक्सर होश
ज़िन्दगी के शराबखानों में
जिन की तामीर इश्क करता है
कौन रहता है उन मकानों में
इन्ही तिनकों में देख ऐ बुलबुल
बिजलियां भी हैं आशियानों में
--- फ़िराक़ गोरखपुरी
12 जनवरी 2012
हम लड़ेंगे
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे
---पाश
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे
---पाश
7 जनवरी 2012
Wait for me
Wait for me and I’ll return, only wait very hard.
Wait when you are filled with sorrow as you watch the yellow rain.
Wait when the wind sweeps the snowdrifts.
Wait in the sweltering heat.
Wait when others have stopped waiting, forgetting their yesterdays.
Wait even when from afar no letters come for you.
Wait even when others are tired of waiting.
Wait for me and I’ll return, but wait patiently.
Wait even when you are told that you should forget.
Wait even when my mother and son think I am no more.
And when friends sit around the fire drinking to my memory
Wait and do not hurry to drink to my memory too.
Wait for me and I’ll return, defying every death.
And let those who do not wait say that I was lucky.
They will never understand that in the midst of death
You with your waiting saved me.
Only you and I will know how I survived:
It was because you waited as no one else did.
- Konstantin Simonov
Wait when you are filled with sorrow as you watch the yellow rain.
Wait when the wind sweeps the snowdrifts.
Wait in the sweltering heat.
Wait when others have stopped waiting, forgetting their yesterdays.
Wait even when from afar no letters come for you.
Wait even when others are tired of waiting.
Wait for me and I’ll return, but wait patiently.
Wait even when you are told that you should forget.
Wait even when my mother and son think I am no more.
And when friends sit around the fire drinking to my memory
Wait and do not hurry to drink to my memory too.
Wait for me and I’ll return, defying every death.
And let those who do not wait say that I was lucky.
They will never understand that in the midst of death
You with your waiting saved me.
Only you and I will know how I survived:
It was because you waited as no one else did.
- Konstantin Simonov