वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है
बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है
मैं ये मानता हूँ मेरे दिये तेरी आँधियोँ ने बुझा दिये
मगर इक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है
--- बशीर बद्र
30 जनवरी 2020
29 जनवरी 2020
उनका डर
वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे
--- गोरख पांडेय
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे
--- गोरख पांडेय
26 जनवरी 2020
मेरा प्रतिनिधि
उसके दिल की धड़कन
उस दिल की धड़कन है
भीड़ के शिकार के
सीने में जो है।
हाहाकार
उठता है घोष कर
एक जन
उठता है रोषकर
व्याकुल आत्मा से आक्रोश कर
अकस्मात
अर्थ
भर जाता है पुरुष वह
हम सबके निर्विवाद जीने में।
सिंहासन ऊँचा है सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाये बैठे हैं लड़के सरकार के
लूले काने बहरे विविध प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष।
सुनो वहाँ कहता है
मेरा प्रतिनिधि
मेरी हत्या की करुण कथा।
हँसती है सभा
तोंद मटका
ठठाकर
अकेले अपराजित सदस्य की व्यथा पर
फिर मेरी मृत्यु से डरकर चिंचियाकर
कहती है
अशिव है अशोभन है मिथ्या है।
मैं
कि जो अन्यत्र
भीड़ में मारा गया था
लिये हुए मशअलें रात में
लोग
मुझे लाये थे साथ में
काग़ज़
था एक मेरे हाथ में
मेरी स्वाधीन जन्मभूमि पर जन्म लिये होने का मेरा प्रमाणपत्र।
मारो मारो मारो शोर था मारो
एक ओर साहब था
सेठ था सिपाही था
एक ओर मैं था
मेरा पुत्र और भाई था
मेरे पास आकर खड़ा हुआ एक राही था
एक ओर आकाश में हो चला था भोर।
मैं अपने घर में फिर
वापस आऊँगा
मैंने कहा
बीस वर्ष
खो गये भरमे उपदेश में
एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में
बेगानी हो गयी अपने ही देश में
वह
अपने बचपन की
आज़ादी
छीनकर लाऊँगा।
तभी मुझे क़त्ल किया लो मेरे प्रतिनिधि मेरा प्रमाण
घुटता था गला व्यर्थ सत्य कहते-कहते
वाणी से विरोध कर तन से सहते-सहते
सील-भरी बन्द कोठरी में रहते-रहते
तोड़ दिया द्वार आजऋ देखो-देखो मेरी मातृभूमि का उजाड़!
---रघुवीर सहाय
उस दिल की धड़कन है
भीड़ के शिकार के
सीने में जो है।
हाहाकार
उठता है घोष कर
एक जन
उठता है रोषकर
व्याकुल आत्मा से आक्रोश कर
अकस्मात
अर्थ
भर जाता है पुरुष वह
हम सबके निर्विवाद जीने में।
सिंहासन ऊँचा है सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाये बैठे हैं लड़के सरकार के
लूले काने बहरे विविध प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष।
सुनो वहाँ कहता है
मेरा प्रतिनिधि
मेरी हत्या की करुण कथा।
हँसती है सभा
तोंद मटका
ठठाकर
अकेले अपराजित सदस्य की व्यथा पर
फिर मेरी मृत्यु से डरकर चिंचियाकर
कहती है
अशिव है अशोभन है मिथ्या है।
मैं
कि जो अन्यत्र
भीड़ में मारा गया था
लिये हुए मशअलें रात में
लोग
मुझे लाये थे साथ में
काग़ज़
था एक मेरे हाथ में
मेरी स्वाधीन जन्मभूमि पर जन्म लिये होने का मेरा प्रमाणपत्र।
मारो मारो मारो शोर था मारो
एक ओर साहब था
सेठ था सिपाही था
एक ओर मैं था
मेरा पुत्र और भाई था
मेरे पास आकर खड़ा हुआ एक राही था
एक ओर आकाश में हो चला था भोर।
मैं अपने घर में फिर
वापस आऊँगा
मैंने कहा
बीस वर्ष
खो गये भरमे उपदेश में
एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में
बेगानी हो गयी अपने ही देश में
वह
अपने बचपन की
आज़ादी
छीनकर लाऊँगा।
तभी मुझे क़त्ल किया लो मेरे प्रतिनिधि मेरा प्रमाण
घुटता था गला व्यर्थ सत्य कहते-कहते
वाणी से विरोध कर तन से सहते-सहते
सील-भरी बन्द कोठरी में रहते-रहते
तोड़ दिया द्वार आजऋ देखो-देखो मेरी मातृभूमि का उजाड़!
---रघुवीर सहाय
25 जनवरी 2020
Khabeesh
Mein hoon khabees, mein ghaliz hoon,
Mein aawaargi ki wakeel hoon
Woh taraanon ki mujassim noor main nahin
Woh faassaanon ki paak hoor main nahin
Main gulaam-e-nafas hoon
Main hubaab-e-hawas hoon
Main zinda hoon, figaar hoon
Main khud-sari ka minaar hoon
Main aana ki intehaan bhi ho sakti hoon
Shayaad tum mujhe kabhi na chhoto sako
Chaahe tum mujhe murda-e-khaas-o-khaashaak hi samjho
Main kyu jhoote armaano ki qataar banu?
Main khud-garz utni hi hoon, jitne tum
Main kyun paikaar-e-begharaz banu
Meri jubaan utni hi shirin hain, jitni tumhari
Main kyu sanam-i-khushi-akhlaq banu?
Main maamooli hoon
Mujh pe kyu zimmah ho mumtaazi ka?
Tumko ghuroor hai khaash hone par
Par mujhko zyaadah hai ilm sarfaraazi ka
Agar tumhein shauq-e-tabassum hai
Toh sange-marmar ka sanam le aso
Meri jabeen ki silvatein tumhari khushi se to nahin mitengi
Mere aazaa-e-rukh ki harkat , tumhare taabay nahin hai
Tumhari khaatir bhi nahi hain
Main zeenat ka samaan nahin hun
Main haaya ka farmaan nahi hun
Main nazaakat nahi jaanti
Main ibadaat nahi maanti
Main tumhaari tawajjoh ki talabgaar nahi hoon
Tumhaare baghair muflis-o-khwaar nahi hoon
Main tumhari qaisari ka makhoom nahi rahi
Tumhari himayaton ki muhsin nahi rahi
Tumhaare mehlon ko hard rahoon barson
Kaho ye kaisa ahd-e-wafa tha?
Jab main woh tilism-e-purfan hoon,
Jisne tumko jahangir kya tha
Main mahroom-e-sahil nahin hoon
Mera tajassus mujhe mairaj par le chalega
Safha-e-tareekh mujhe bhool bhi jaayein
Par ahl-e-wafa meri faatiha denge
Jism-o-zahan kaafan-posh aaj kai zamaano se hain
Par is ayyaam-e-zulmat mein darakhshaan hai majlis meri
Ye charcha aasmaano mein hai
Salaasil kab tak rok sakenge
Meri quwwatein aayan ho chuki hain
Madaaris kab tak tok sakenge
Meri jumbishein rawaan ho chilo hain
Nizaam-e-pidari se bhagawaat hai tehreek meri
Kamzor-o-kamzarf nahi ye tajweej meri
Main tumhaare wazaarat-khaano ka rukh bhi kar chuki hoon
Ab yeh khayaal chhod do ki aaraaish hai takhleeq meri
--- by Iqra Khilji
Mein aawaargi ki wakeel hoon
Woh taraanon ki mujassim noor main nahin
Woh faassaanon ki paak hoor main nahin
Main gulaam-e-nafas hoon
Main hubaab-e-hawas hoon
Main zinda hoon, figaar hoon
Main khud-sari ka minaar hoon
Main aana ki intehaan bhi ho sakti hoon
Shayaad tum mujhe kabhi na chhoto sako
Chaahe tum mujhe murda-e-khaas-o-khaashaak hi samjho
Main kyu jhoote armaano ki qataar banu?
Main khud-garz utni hi hoon, jitne tum
Main kyun paikaar-e-begharaz banu
Meri jubaan utni hi shirin hain, jitni tumhari
Main kyu sanam-i-khushi-akhlaq banu?
Main maamooli hoon
Mujh pe kyu zimmah ho mumtaazi ka?
Tumko ghuroor hai khaash hone par
Par mujhko zyaadah hai ilm sarfaraazi ka
Agar tumhein shauq-e-tabassum hai
Toh sange-marmar ka sanam le aso
Meri jabeen ki silvatein tumhari khushi se to nahin mitengi
Mere aazaa-e-rukh ki harkat , tumhare taabay nahin hai
Tumhari khaatir bhi nahi hain
Main zeenat ka samaan nahin hun
Main haaya ka farmaan nahi hun
Main nazaakat nahi jaanti
Main ibadaat nahi maanti
Main tumhaari tawajjoh ki talabgaar nahi hoon
Tumhaare baghair muflis-o-khwaar nahi hoon
Main tumhari qaisari ka makhoom nahi rahi
Tumhari himayaton ki muhsin nahi rahi
Tumhaare mehlon ko hard rahoon barson
Kaho ye kaisa ahd-e-wafa tha?
Jab main woh tilism-e-purfan hoon,
Jisne tumko jahangir kya tha
Main mahroom-e-sahil nahin hoon
Mera tajassus mujhe mairaj par le chalega
Safha-e-tareekh mujhe bhool bhi jaayein
Par ahl-e-wafa meri faatiha denge
Jism-o-zahan kaafan-posh aaj kai zamaano se hain
Par is ayyaam-e-zulmat mein darakhshaan hai majlis meri
Ye charcha aasmaano mein hai
Salaasil kab tak rok sakenge
Meri quwwatein aayan ho chuki hain
Madaaris kab tak tok sakenge
Meri jumbishein rawaan ho chilo hain
Nizaam-e-pidari se bhagawaat hai tehreek meri
Kamzor-o-kamzarf nahi ye tajweej meri
Main tumhaare wazaarat-khaano ka rukh bhi kar chuki hoon
Ab yeh khayaal chhod do ki aaraaish hai takhleeq meri
--- by Iqra Khilji
23 जनवरी 2020
बहुत घुटन है
बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले
फ़क़ीर-ए-शहर के तन पर लिबास बाक़ी है
अमीर-ए-शहर के अरमाँ अभी कहाँ निकले
हक़ीक़तें हैं सलामत तो ख़्वाब बहुतेरे
उदास क्यूँ हो जो कुछ ख़्वाब राएगाँ निकले
वो फ़लसफ़े जो हर इक आस्ताँ के दुश्मन थे
अमल में आए तो ख़ुद वक़्फ़-ए-आस्ताँ निकले
इधर भी ख़ाक उड़ी है उधर भी ज़ख़्म पड़े
जिधर से हो के बहारों के कारवाँ निकले
सितम के दौर में हम अहल-ए-दिल ही काम आए
ज़बाँ पे नाज़ था जिन को वो बे-ज़बाँ निकले
--- साहिर लुधियानवी
अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले
फ़क़ीर-ए-शहर के तन पर लिबास बाक़ी है
अमीर-ए-शहर के अरमाँ अभी कहाँ निकले
हक़ीक़तें हैं सलामत तो ख़्वाब बहुतेरे
उदास क्यूँ हो जो कुछ ख़्वाब राएगाँ निकले
वो फ़लसफ़े जो हर इक आस्ताँ के दुश्मन थे
अमल में आए तो ख़ुद वक़्फ़-ए-आस्ताँ निकले
इधर भी ख़ाक उड़ी है उधर भी ज़ख़्म पड़े
जिधर से हो के बहारों के कारवाँ निकले
सितम के दौर में हम अहल-ए-दिल ही काम आए
ज़बाँ पे नाज़ था जिन को वो बे-ज़बाँ निकले
--- साहिर लुधियानवी
17 जनवरी 2020
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब
सब की ख़तिर है यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब
भूल के सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ सब को होगा याद सब
सब को दावा-ए-वफ़ा सब को यक़ीं
इस अदकारी में हैं उस्ताद सब
शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब
चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब
तल्ख़ियाँ कैसे न हो अशार में
हम पे जो गुज़री है हम को याद सब
---जावेद अख़्तर
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब
सब की ख़तिर है यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब
भूल के सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ सब को होगा याद सब
सब को दावा-ए-वफ़ा सब को यक़ीं
इस अदकारी में हैं उस्ताद सब
शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब
चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब
तल्ख़ियाँ कैसे न हो अशार में
हम पे जो गुज़री है हम को याद सब
---जावेद अख़्तर
The Unknown Citizen
He was found by the Bureau of Statistics to be
One against whom there was no official complaint,
And all the reports on his conduct agree
That, in the modern sense of an old-fashioned word, he was a saint,
For in everything he served the Greater Community.
Except of the War till the day he retired
He worked in a factory and never got fired
But satisfied his employers, Fudge Motors Inc.
Yet he wasn't a scab or odd in his views,
For his Union reports that he paid his dues,
(Our report on the Union shows it was sound)
And our Social Psychology workers found
That he was popular with his mates and liked a drink.
The Press are convinced that he bought a paper every day
And that his reactions to advertisements were normal in every way.
Policies taken out in his name prove that he was fully insured,
And his Health-card shows he was once in hospital but left it cured.
Both Producers Research and High-Grade Living declare
He was fully sensible to the advantages of the Installment Plan
And had everything necessary to the Modern Man,
A phonograph, a radio, a car and a frigidaire.
Our researchers into Public Opinion are content
That he held the proper opinions for the time of the year;
When there was peace, he was for peace; when there was war, he went.
He was married and added five children to the population,
Which our Eugenist says was the right number for a parent of his generation.
And our teachers report that he never interfered with their education.
Was he free? Was he happy? The question is absurd:
Had anything been wrong, we should certainly have heard.
---W.H. Auden (1907-1973)
One against whom there was no official complaint,
And all the reports on his conduct agree
That, in the modern sense of an old-fashioned word, he was a saint,
For in everything he served the Greater Community.
Except of the War till the day he retired
He worked in a factory and never got fired
But satisfied his employers, Fudge Motors Inc.
Yet he wasn't a scab or odd in his views,
For his Union reports that he paid his dues,
(Our report on the Union shows it was sound)
And our Social Psychology workers found
That he was popular with his mates and liked a drink.
The Press are convinced that he bought a paper every day
And that his reactions to advertisements were normal in every way.
Policies taken out in his name prove that he was fully insured,
And his Health-card shows he was once in hospital but left it cured.
Both Producers Research and High-Grade Living declare
He was fully sensible to the advantages of the Installment Plan
And had everything necessary to the Modern Man,
A phonograph, a radio, a car and a frigidaire.
Our researchers into Public Opinion are content
That he held the proper opinions for the time of the year;
When there was peace, he was for peace; when there was war, he went.
He was married and added five children to the population,
Which our Eugenist says was the right number for a parent of his generation.
And our teachers report that he never interfered with their education.
Was he free? Was he happy? The question is absurd:
Had anything been wrong, we should certainly have heard.
---W.H. Auden (1907-1973)
16 जनवरी 2020
औकात
वे पत्थरों को पहनाते हैं लंगोट
पौधों को
चुनरी और घाघरा पहनाते हैं
वनों, पर्वतों और आकाश की
नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से
अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं
देवी-देवताओं को
पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मन्दिरों का
उद्धार करके
उन्हें वातानुकूलित करवाते हैं
इस तरह वे
ईश्वर को
उसकी औकात बताते हैं ।
---नरेश सक्सेना
पौधों को
चुनरी और घाघरा पहनाते हैं
वनों, पर्वतों और आकाश की
नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से
अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं
देवी-देवताओं को
पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मन्दिरों का
उद्धार करके
उन्हें वातानुकूलित करवाते हैं
इस तरह वे
ईश्वर को
उसकी औकात बताते हैं ।
---नरेश सक्सेना
14 जनवरी 2020
आहिस्ता-आहिस्ता
आहिस्ता-आहिस्ता वर्दी खाने लगती है
आदमी के भीतर का मुलायम हिस्सा
सोखने लगती है आत्मा पर से बहता झरना
वर्दी वाले की बीवियाँ ढूँढ़ने लगती हैं अपने पति
बच्चे खोजते हैं अपने पिता
और वे वर्दी को टटोलते रहते हैं
ख़ुद वर्दी वाला पूछता है अपने से आईने में एक दिन
कहाँ गया वह लड़का जो बीस साल पहले गुनगुनाता था
तलत महमूद के गाने कहाँ गया कोई जवाब नहीं मिलता
सिर्फ़ एक मुस्तैद छाया
मंत्रोच्चार की तरह बड़बड़ाती है गालियाँ
जो किसी की समझ में नहीं आतीं।
--- चंद्रकांत देवताले
आदमी के भीतर का मुलायम हिस्सा
सोखने लगती है आत्मा पर से बहता झरना
वर्दी वाले की बीवियाँ ढूँढ़ने लगती हैं अपने पति
बच्चे खोजते हैं अपने पिता
और वे वर्दी को टटोलते रहते हैं
ख़ुद वर्दी वाला पूछता है अपने से आईने में एक दिन
कहाँ गया वह लड़का जो बीस साल पहले गुनगुनाता था
तलत महमूद के गाने कहाँ गया कोई जवाब नहीं मिलता
सिर्फ़ एक मुस्तैद छाया
मंत्रोच्चार की तरह बड़बड़ाती है गालियाँ
जो किसी की समझ में नहीं आतीं।
--- चंद्रकांत देवताले
10 जनवरी 2020
चांद का कुर्ता
हार कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
--- रामधारी सिंह "दिनकर"
साभार: नंदन, दिसंबर, 1996, 10
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
--- रामधारी सिंह "दिनकर"
साभार: नंदन, दिसंबर, 1996, 10
8 जनवरी 2020
ख़ून फिर ख़ून है
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
तेग़-ए-बे-दाद पे या लाशा-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
लाख बैठे कोई छुप-छुप के कमीं-गाहों में
ख़ून ख़ुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़
साज़िशें लाख उड़ाती रहीं ज़ुल्मत की नक़ाब
ले के हर बूँद निकलती है हथेली पे चराग़
ज़ुल्म की क़िस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुस्वा से कहो
जब्र की हिकमत-ए-परकार के ईमा से कहो
महमिल-ए-मज्लिस-ए-अक़्वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है दामन पे लपक सकता है
शोला-ए-तुंद है ख़िर्मन पे लपक सकता है
तुम ने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वो कूचा ओ बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन कर
ख़ून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से
ज़ुल्म की बात ही क्या ज़ुल्म की औक़ात ही क्या
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है आग़ाज़ से अंजाम तलक
ख़ून फिर ख़ून है सौ शक्ल बदल सकता है
ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाए न बने
ऐसे शोले कि बुझाओ तो बुझाए न बने
ऐसे नारे कि दबाओ तो दबाए न बने
---साहिर लुधियानवी
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
तेग़-ए-बे-दाद पे या लाशा-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
लाख बैठे कोई छुप-छुप के कमीं-गाहों में
ख़ून ख़ुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़
साज़िशें लाख उड़ाती रहीं ज़ुल्मत की नक़ाब
ले के हर बूँद निकलती है हथेली पे चराग़
ज़ुल्म की क़िस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुस्वा से कहो
जब्र की हिकमत-ए-परकार के ईमा से कहो
महमिल-ए-मज्लिस-ए-अक़्वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है दामन पे लपक सकता है
शोला-ए-तुंद है ख़िर्मन पे लपक सकता है
तुम ने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वो कूचा ओ बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन कर
ख़ून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से
ज़ुल्म की बात ही क्या ज़ुल्म की औक़ात ही क्या
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है आग़ाज़ से अंजाम तलक
ख़ून फिर ख़ून है सौ शक्ल बदल सकता है
ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाए न बने
ऐसे शोले कि बुझाओ तो बुझाए न बने
ऐसे नारे कि दबाओ तो दबाए न बने
---साहिर लुधियानवी
7 जनवरी 2020
रोटी एक फूल है
रोटी एक फूल है
जिसे आग में फूलना होता है
बिना जले बचाते हुए अपनी गंध
खूब फूल रही है रोटी
सोच-सोच कि पूरंपूर भूख से होगी भेंट
तगड़ी मेहनत के बाद जितनी गहरी भूख होती है
उतनी ही बड़ी होती है रोटी की संतुष्टि
कौर या निवाला बनते हुए
रोटी के भीतर बढ़ जाती है मिठास
रोटी की जीवन में इतनी जगह कि -
जब मेरी नौकरी लगी तब माँ ने कहा :
मेरी रोटी लग गई है
अब मैं भूखा नहीं फिरूँगा
काज-बिआह में भी नहीं रहेगी कोई अड़चन
अंगार पर टहलती रोटी
समय के अंगारों पर हमें चलने की देती है सूझ-बूझ
आग की दरिया में तैरती रोटी ही जानती है
पेट की आग का रहस्य
तुलसी बाबा ने ऐसे ही नहीं लिख दी है यह पंक्ति -
‘आगि बड़वागी ते बड़ी है आगि पेट की’
रोटी का गणित बिगड़ने से
खुल जाते हैं दिल-दिमाग के सारे जोड़
‘रोटी तोड़ना’ निकम्मेपन का मुहावरा है
इसीलिए रोटी केवल परिश्रम की तरफदारी है
जो काम-धाम नहीं करते
बैठे-बैठे खाते-पगुराते रहते हैं
और निकल आता है उनका बड़ा पेट (तोंद)
व्यंग्य में ‘लेदहा’ कहता है उन्हें हमारा लोक
पिता ने कभी कुछ नहीं कहा विशेष
सिवा इसके कि मेहनत-ईमान से ही कमाना रोजी-रोटी
और छीनना नहीं कभी किसी का अन्न-जल
भूख रोटी को जितना सम्मान देती है
उतना ही रहता है रोटी का मनमीठ
रोटी पर आग ने अपने जो निशान छोड़े हैं
रोटी उसे अपना अलंकार कहती है
मुँहलगी यह रोटी
कौर उठाने के वजन से ही जान लेती है हमारे दिल का सारा हाल
जीवन में यदि रोटी-पानी का इंतजाम रहता है
मनमाफिक कर पाते हैं हम लिखने-पढ़ने का काम
कितनी मार्मिक है बाबा तुलसी की यह पीड़ा :
‘जीविका विहीन लोग सिद्धमान सोच बस
कहें एक एकन से कहाँ जाइ का करी’
देखा जाय तो कितने लोग हैं
जो अपना घर-गाँव छोड़कर
रोटी के लिए चले जाते हैं देसावर
गुलामी के दिनों में जिस तरह से
समंदर पार तक हाँके गए हमारे पूर्वज
सोच-सोचकर निचुड़ता है हमारा कलेजा
सूक्ष्मता-बोध ही है इसमें कि -
तू अपने को पीस-पीस कर पिसान कर ले
फिर रोटी जितना जरूरी और महान कर ले
रोटी में अनूठी अन्नधूप होती है
कितनी भी अँधेरी रात में खाओ
भीतर फैल जाता है स्वाद का उजाला
घर में कितना सुनता या देखता रहा हूँ :
तुम्हारी छोटी काकी गूँथती हैं बहुत अच्छा आटा
रोटी बेलने में बड़ी बुआ जितना नहीं है कोई होशियार
आँच का ताव दादी से अधिक नहीं जानता कोई और
ज्यादा परथन लगाने पर बहनों को कैसे आँख तरेरती है मेरी माँ
नानी डाँटती रही हैं यही कह
रोटी में गुन लगता है बेमन से नहीं छूना चाहिए पिसान
हम बच्चों को मनुहार के साथ खिलाने के लिए
यहाँ बरबस ही याद आ रहा बड़ी माँ का वह गीत :
तात-तात (गरम-गरम) रोटी
जूड़-जूड़ घिउ (ठंडा-ठंडा घी)
खाय मोर ललना
जुड़ाय मोर जिउ।
आज भी मेरी भाषा की बोलती बंद हो जाती है
याद कर यह दृश्य कि -
माँ कैसे हम भाई-बहनों को सारी रोटी परोस
पानी पीकर सुला देती थी अपनी भूख
और किसी गीत की मीठी लय से बाँधे रखती थी
हम सभी का मन
इस तरह सोचता हूँ -
रोटी एक पूरी संस्कृति है
जिससे कविता अर्जित करती रहती है
अपने लिए बहुत सारी भूख, सवाल और संतुष्टि
हमारे लोक में भात-रोटी जोड़ने का मतलब
अपनापा जोड़ लेना या भाइप (भाईचारा) जोड़ लेना है
हो जाता है इसी तरह स्वजन-परिजन का भी विस्तार
जिन घरों में हमारी बुआ या बहनें गई हैं
बड़े पिता कहते पूज्य हैं हमारे वह
रोटी-बेटी का रिश्ता है हमारा
कमतर नहीं होने देना उनके लिए अपने मन में सम्मान
माँ, बहनों, पत्नी, बेटियों के हाथ की भाजी-रोटी
और खिलाते समय की ममता-करुणा
खुले हाथ खर्च करता रहता हूँ कविता में मैं
जौ-गेहूँ-चना की एक साथ बनी रोटी
अन्न-संधि है
जीवन भी तो सुंदर-संधियों का समुच्चय ही है
जब यह संधियाँ टूटती-बिखरती हैं
जीवन में हिंदुस्तान कम हो जाता है
घर आए अतिथि को
रोटी-पानी देने की सद्इच्छा
हमारे जनपदों का बड़प्पन है
टिक्कड़, अँगाकर, भाखर, चपाती, फुल्के, रोट, जोरीमा,
लिट्टी-बाटी, सोहारी, गाट, तंदूरी, मिस्सी, रूमाली
पनिहथी, पूरी-पराठा इत्यादि न जाने कितनी
रोटी की ही संज्ञाएँ हैं
इनके बनाव की क्रियाएँ भी हैं बहुत मजेदार
स्वाद तो है ही इनका अपना विशिष्ट
ठंड के दिनों में आँगन में
बाबा खाते हैं जब भाजी-रोटी
सूरज भी लग जाता है थाली में उनकी
और भर पेट खाकर ही जाता है अपने आसमान
ध्यान से निहारो सूरज का चेहरा
रोटी-पानी खाया वह कितना संतुष्ट लगता है
कुछ वाकिये याद कर छूटती है आज भी हँसी
जैसे यही कि - परदेस के होटल या केंटीन में
काम करने वाले लड़के
गाँव लौटने पर बुजुर्गों को भरमाने के लिए
‘क्या काम करते हो बेटा’ के जवाब में कहते -
‘धुआँधार कंपनी बेलन डिपार्टमेंट’ में काम करता हूँ बाबा
सुन यह बुजुर्गों को हो जाता विश्वास कि
लड़का पा गया है किसी बड़ी कंपनी में काम
और हो रहा है इससे पूरे गाँव-जवार का नाम
इस चाल-ढाल को कविता पाठक की हथेली पर रख
बढ़ती है आगे सोचते हुए -
रोटी की कविता में
रोटी जैसी ही गोल-मटोल होना चाहिए
कविता की लय
कविता को पकाना चाहिए रोटी की तरह
कवि को देकर अपनी पूरी आँच
रोटी बारहमासी फूल है
जिसे आग में फूलना होता है
इसीलिए रोटी-गंध को सहेजने की
कविता को अपनी जिम्मेदारी लिए ही रहना है
और कहना ही है अपनी हर आवृत्ति में
रोटी का संघर्ष
रात में पाही के खेत में खाते हुए
टिक्कड़ और आलू का भुरता
एकाएक मुझे याद आई वानगॉग की महान पेंटिंग ‘पोटेटो ईटर’
इस पेंटिंग की आलुओं का कोयला
माँजता रहता है हमारी संवेदना और भूख के कितने सारे वृत्तांत
सीता की रसोई में राम की रोटी जितना फूलती
महाकाव्यात्मक सुगंध से पूर जाता सीता का मन
राम खाते रहते और सीता की आँखों में डबडबाती रहती तृप्ति
कविता कहाँ थाह पाई जानकी के कलेजे की गहराई
निरपराध-परित्यक्त जानकी महाप्रश्न हैं
जिसके उत्तर का सोच कविता की घिग्घी बँध जाती है
यद्यपि कविता के कलेजे में ही है
जानकी की पीड़ा का पूरा पर्यावरण
तमाम मुश्किलों में बिंधा
अब जब मैं रोटी लिख रहा हूँ
कागज के आसमान में
मालूम हो रहा है मुझे आटा-दाल का भाव
कितनी तड़क-भड़क है दुनिया में
चकाचौंध फैलाई जा रही चहुँओर
ऐसे में रोटी के कुछ टुकड़ों के लिए बिलखते-बिलबिलाते बच्चे
हमारे समय के बहुत बड़े सवाल हैं
खींच रहे हैं वह हमारी भाषा का चीवर
और मुझे सूझ नहीं रहा सांत्वना का कोई भी शब्द
आप इन्हें सोमालिया, कालाहांडी कुछ भी कह सकते हैं
भूखे बच्चों की आँखों में जो प्रश्न हैं
उसका उत्तर बहाना नहीं है
ओला, पाला-जाड़ा, सूखा, अतिवृष्टि
महँगाई और कर्ज
छीनते हैं जब खेतिहरों की रोटी
अपने जीने के रस्ते बंद देख हिम्मत हार
खुद को ही मारने लग जाते हैं खेतिहर
खुदकुशी की ऐसी खबरों से
जिंदगी के उजले इलाके में अँधियार छा जाता है
ऐसे में अपने बेबसपन पर सूखी आँख रोती है कविता
फिर चीख-चीखकर कहती है :
जीवट लोग जब अपना हौसला हार जाते है
जिंदगी के लिए यह बहुत भयानक खबर होती है!
रोटी का विकल्प रोटी है
पेट खाली हो और दिमाग में चढ़ जाय रोटी
सबसे खतरनाक होता है तब रोटी का विस्फोट
किस्से-कहानियाँ सुनते हुए मुझे ईसाइयत की कथा में
एक ‘पवित्र रोटी’ मिली और खुश हो गया मैं
फिर खुशमन मैंने आगे लिखा -
हर रोटी पवित्र है
जो लहू बनकर दौड़ती है हमारी धमनियों में खूब
हमारी हड्डियों को भी बनाने में रोटी की ही मेहनत है जी-तोड़
थाली में परोसा खाना छोड़ देने पर
पैंसठ-छाछठ के कंताल (अकाल) में
बुरादा मिला आटा खाने का शिकायती जिक्र
आँखों में आँसू भरकर करती थीं मेरी बड़ी माँ
तब से रोटी का छोटा टुकड़ा भी फेंकते मुझे डर लगता है
अजाने शहर में
रोजी-रोटी के लिए जब हम भूखे भटकते
बचपन की पोटली में रखी माँ की रोटियाँ
याद करने से
मरने से बचती रही है हमारी भूख
रोटी भूख की कविता है
जिसे मिल जाती है वह गाता है
जो रोटी नहीं पाता है
वह भूख में कितना छटपटाता है
भूख के भूगोल में
रोटी का ही रकबा है सब से बड़ा
आप कौर तोड़ते हैं
और खुश हो जाते हैं खेत-खलिहान
तुक में ही तो कहा था अनुभव अनुस्यूत उस बुजुर्ग ने -
‘हमारे जनपदों का दिन फिर जाय
बिना रोए यदि
दो जून की रोटी मिल जाय’
पूरी कायनात में रोटी का इतना दखल
रोटी में भी कितनी कायनात है
रोटी गोल है
अपने लिए नचाती बहुत है
महँगाई की मेहरबानी कि ‘दाल रोटी चलना’
नहीं रहा अब ठीक से गुजर-बसर का मुहावरा
महँगाई तोड़ती है जब रोटी का मनोबल
रसोई उदास हो जाती है
रोटी जोड़ने का काम करती है
ऐसे में जो किसी के घर जलाकर
सेंकते हैं अपने स्वार्थ की (राजनीति की) रोटियाँ
मुआ$फ कहाँ कर पाता है उन्हें हमारा जन-समाज
धरती पर कोई भूखा सोता है
तो शेषनाग के फन पर रखी पृथ्वी
दुख से भारी हो जाती है और
मेहनतकश लोगों की रोटी मोटी और बड़ी होती है
खाए-पिए-अघाए हुए लोग
कहाँ जानते हैं रोटी-पानी का महत्व
रोटी भी कम जिद्दी नहीं
उथली भूख में वह भी उतरती है फीकेमन
किसी की ‘रोटी बिगाड़ना’
हत्या की तरह देखता है जिसे हमारा लोक
आपस में भी रोटी बिगड़ जाए तो दरक जाते हैं रिश्ते-नाते
चाहे हम दाल-रोटी खाएँ या साग-रोटी या रोटी-खीर
यह स्वाद-संधि है
जीभ को जिसे कहने के लिए अपने भीतर
विकसित करनी पड़ती है साँझी सोच
कितने दृश्य हैं भीतर कविता में उतरने को व्याकुल
जैसे यही कि-पाही के खेतों में गेहूँ की कटाई के समय
पूरे गाँव के चूल्हे नदी-घाट पर साथ-साथ जलते
किसी चूल्हे पर दाल पक रही होती, किसी पर तरकारी
कहीं रोटियाँ सिझ रही होतीं
कितना उत्सवपूर्ण लगता था मुझे यह सब
यहाँ भोपाल में भी जनजातीय संग्रहालय बनते समय
शाम-सुबह शिल्पियों-कलाकारों के चूल्हे साथ जलते
और अन्नगंध से जगमगा जाता पूरा परिवेश
संग-साथ का यह रोटी पर्व
बरबस ही मोह लेता है जो हमारा मन
अपने मराठी मित्र के यहाँ खाई ज्वार की भाखर-चटनी-दाल
मामी के हाथ की मकई की रोटी
और पड़ोस के आदिवासी गाँव में शहद-रोटी खाना
मेरी कविता की जुबान में शहद बचाता रहता है
रोटी का सबसे बड़ा रूप मलीदा है
हाथियों को खिलाया जाता है जिसे
इस तरह चींटी से लेकर हाथी तक हैं
रोटी के तलबगार
मुझे मालूम है - रोटी का इतिहास
मनुष्य के इतिहास जितना है प्राचीन
लेकिन मैं रोटी के इतिहास की नहीं
रोटी की कविता की बात करना चाहता हूँ
जो अपने खेत-खलिहान, चूल्हा-चक्की की याद लिए
हमारे पेट में पच रही है
और हर दिन रच रही है हमारी आत्मा और शरीर
पाठ्य पुस्तक में चखी
नजीर अकबराबादी की कविता की रोटियाँ
लगती हैं हरहमेश जरूरी पाठ
रसखान की कविता का वह कागा
हरिहाथ से ले उड़ा था जो माखन रोटी
मैंने उसे अपनी कविता में पकड़ लिया है
लेकिन निकला वह फिर बहुत चालाक
घई से पककर निकली मेरी माँ की बनाई रोटी
लेकर उड़ गया वह फिर अपने आकाश
पुन जिसे आगे अपनी कविता में पकड़ेगा
हमारा ही समानधर्मा और कोई युवा कवि
फूली हुई रोटी ही तो है यह चाँद
अचानक उड़कर पृथ्वी से चला गया है जो आसमान
जिस दिन किसी भूखे बच्चे के आ गया हाथ
उसी दिन इस चंदा मामा को
आ जाएगी अपनी नानी याद
सब से बड़े सर्जक ने
रोटी की तरह ही बनाई होगी पृथ्वी
बेलकर गोल-मटोल फिर आग पर रख
फुला दिया होगा खूब
पृथ्वी गोल है
बेल-बेलकर स्त्रियाँ भी
कम नहीं होने दे रही हैं रोटी की गोलाई
रोटी में कितना आत्मीय संबंध है
भाइयों के आपसी विवाद में जब हिस्सा बाँट हो जाता
और गाँव के बाहर का कोई व्यक्ति घर आने पर पूछता -
क्या अलग-अलग हो गई है आपके यहाँ सब भाइयों की रोटी
‘हाँ’ कहने पर कहता - कितने गाँवों के लोग देते थे
आपके परिवार की एका की मिसाल
सुन यह मन मसोस कर रह जाते थे घर के बुजुर्ग
घर-परिवार में रोटी एक रहना
मानी जाती है इज्जत-प्रतिष्ठा की बात
कितना पीड़ादायी है कि टूट-बिखर रहे हैं हमारे मुश्तरका मन
और संयुक्त परिवार जोड़कर रखने में
बड़े-बुजुर्गों की फूल रही है साँस
बैठकी में पीने-खाने के दवाब में
मैं अपने नशेलची दोस्तों से यही कहता :
मुझे रोटी का नशा है
उसी की उठती है मुझे दोनों जून तलब
पेट में रोटी रहती है तो रात में मुझे आ जाती है गहरी नींद
रोटी एक फूल है
बारहमासी
इस फूल को पाने के लिए
कितने काँटों से
जूझना होता है हमें दिन रात
रोटी खाते हुए आप पाएँगे कि उसमें
उसके दूधिया दाने की गुनगुनाहट है
जो बालियों के पकने के पहले मीठी आँच से पैदा होती है
नाचती रोटी में देख सकते हैं
उसके फसल की धूम-झूम
हवाओं के सारे गीत भी
रोटी की यात्रा में रहते हैं साथ
धूप का कुनकुना और उजला छंद
रोटी का महकता मन है
पाखियों ने खेतों में जो अपनी कविताएँ गाई हैं
चली आई है रोटी में उसकी भी मीठी लय
रोटी की कविता में अपने को न पाकर
बरस पड़े पीढ़ा-बेलन,
तमतमा गया तवा और कंडा-लकड़ी भी हो गए लाल
अपनी चूक का वास्ता देकर कैसे तो मनाया मैंने उन्हें
सहपाठियों ने पूछा ‘ईदगाह’ के हामिद का चिमटा
कहाँ है कविता में
उलट-पलट कर जलने से जो बचा रहा है रोटी
इस भूल को भी स्वीकारते हुए मित्रों की सलाह से ही
जोड़ी मैंने यह और पंक्तियाँ :
रोटी खाते हुए बैलों के पसीने को
हलवाहे के हुनर को - खेतिहर के जज्बे को
धन्यवाद देना नहीं भूलना चाहिए
नहीं तो पचने में एक जनम ले लेती है रोटी
दाल-चटनी-भाजी रख
परोसी जा चुकी है थाली
रोटी का इंतजार है
फूली हुई गरमागरम रोटी के आने से ही
देखिए न आप हमारी आँखों में
फैल गया है कितना अँजोर!
और भूख का जोर
अब चल निकला है!!
--- प्रेमशंकर शुक्ल
जिसे आग में फूलना होता है
बिना जले बचाते हुए अपनी गंध
खूब फूल रही है रोटी
सोच-सोच कि पूरंपूर भूख से होगी भेंट
तगड़ी मेहनत के बाद जितनी गहरी भूख होती है
उतनी ही बड़ी होती है रोटी की संतुष्टि
कौर या निवाला बनते हुए
रोटी के भीतर बढ़ जाती है मिठास
रोटी की जीवन में इतनी जगह कि -
जब मेरी नौकरी लगी तब माँ ने कहा :
मेरी रोटी लग गई है
अब मैं भूखा नहीं फिरूँगा
काज-बिआह में भी नहीं रहेगी कोई अड़चन
अंगार पर टहलती रोटी
समय के अंगारों पर हमें चलने की देती है सूझ-बूझ
आग की दरिया में तैरती रोटी ही जानती है
पेट की आग का रहस्य
तुलसी बाबा ने ऐसे ही नहीं लिख दी है यह पंक्ति -
‘आगि बड़वागी ते बड़ी है आगि पेट की’
रोटी का गणित बिगड़ने से
खुल जाते हैं दिल-दिमाग के सारे जोड़
‘रोटी तोड़ना’ निकम्मेपन का मुहावरा है
इसीलिए रोटी केवल परिश्रम की तरफदारी है
जो काम-धाम नहीं करते
बैठे-बैठे खाते-पगुराते रहते हैं
और निकल आता है उनका बड़ा पेट (तोंद)
व्यंग्य में ‘लेदहा’ कहता है उन्हें हमारा लोक
पिता ने कभी कुछ नहीं कहा विशेष
सिवा इसके कि मेहनत-ईमान से ही कमाना रोजी-रोटी
और छीनना नहीं कभी किसी का अन्न-जल
भूख रोटी को जितना सम्मान देती है
उतना ही रहता है रोटी का मनमीठ
रोटी पर आग ने अपने जो निशान छोड़े हैं
रोटी उसे अपना अलंकार कहती है
मुँहलगी यह रोटी
कौर उठाने के वजन से ही जान लेती है हमारे दिल का सारा हाल
जीवन में यदि रोटी-पानी का इंतजाम रहता है
मनमाफिक कर पाते हैं हम लिखने-पढ़ने का काम
कितनी मार्मिक है बाबा तुलसी की यह पीड़ा :
‘जीविका विहीन लोग सिद्धमान सोच बस
कहें एक एकन से कहाँ जाइ का करी’
देखा जाय तो कितने लोग हैं
जो अपना घर-गाँव छोड़कर
रोटी के लिए चले जाते हैं देसावर
गुलामी के दिनों में जिस तरह से
समंदर पार तक हाँके गए हमारे पूर्वज
सोच-सोचकर निचुड़ता है हमारा कलेजा
सूक्ष्मता-बोध ही है इसमें कि -
तू अपने को पीस-पीस कर पिसान कर ले
फिर रोटी जितना जरूरी और महान कर ले
रोटी में अनूठी अन्नधूप होती है
कितनी भी अँधेरी रात में खाओ
भीतर फैल जाता है स्वाद का उजाला
घर में कितना सुनता या देखता रहा हूँ :
तुम्हारी छोटी काकी गूँथती हैं बहुत अच्छा आटा
रोटी बेलने में बड़ी बुआ जितना नहीं है कोई होशियार
आँच का ताव दादी से अधिक नहीं जानता कोई और
ज्यादा परथन लगाने पर बहनों को कैसे आँख तरेरती है मेरी माँ
नानी डाँटती रही हैं यही कह
रोटी में गुन लगता है बेमन से नहीं छूना चाहिए पिसान
हम बच्चों को मनुहार के साथ खिलाने के लिए
यहाँ बरबस ही याद आ रहा बड़ी माँ का वह गीत :
तात-तात (गरम-गरम) रोटी
जूड़-जूड़ घिउ (ठंडा-ठंडा घी)
खाय मोर ललना
जुड़ाय मोर जिउ।
आज भी मेरी भाषा की बोलती बंद हो जाती है
याद कर यह दृश्य कि -
माँ कैसे हम भाई-बहनों को सारी रोटी परोस
पानी पीकर सुला देती थी अपनी भूख
और किसी गीत की मीठी लय से बाँधे रखती थी
हम सभी का मन
इस तरह सोचता हूँ -
रोटी एक पूरी संस्कृति है
जिससे कविता अर्जित करती रहती है
अपने लिए बहुत सारी भूख, सवाल और संतुष्टि
हमारे लोक में भात-रोटी जोड़ने का मतलब
अपनापा जोड़ लेना या भाइप (भाईचारा) जोड़ लेना है
हो जाता है इसी तरह स्वजन-परिजन का भी विस्तार
जिन घरों में हमारी बुआ या बहनें गई हैं
बड़े पिता कहते पूज्य हैं हमारे वह
रोटी-बेटी का रिश्ता है हमारा
कमतर नहीं होने देना उनके लिए अपने मन में सम्मान
माँ, बहनों, पत्नी, बेटियों के हाथ की भाजी-रोटी
और खिलाते समय की ममता-करुणा
खुले हाथ खर्च करता रहता हूँ कविता में मैं
जौ-गेहूँ-चना की एक साथ बनी रोटी
अन्न-संधि है
जीवन भी तो सुंदर-संधियों का समुच्चय ही है
जब यह संधियाँ टूटती-बिखरती हैं
जीवन में हिंदुस्तान कम हो जाता है
घर आए अतिथि को
रोटी-पानी देने की सद्इच्छा
हमारे जनपदों का बड़प्पन है
टिक्कड़, अँगाकर, भाखर, चपाती, फुल्के, रोट, जोरीमा,
लिट्टी-बाटी, सोहारी, गाट, तंदूरी, मिस्सी, रूमाली
पनिहथी, पूरी-पराठा इत्यादि न जाने कितनी
रोटी की ही संज्ञाएँ हैं
इनके बनाव की क्रियाएँ भी हैं बहुत मजेदार
स्वाद तो है ही इनका अपना विशिष्ट
ठंड के दिनों में आँगन में
बाबा खाते हैं जब भाजी-रोटी
सूरज भी लग जाता है थाली में उनकी
और भर पेट खाकर ही जाता है अपने आसमान
ध्यान से निहारो सूरज का चेहरा
रोटी-पानी खाया वह कितना संतुष्ट लगता है
कुछ वाकिये याद कर छूटती है आज भी हँसी
जैसे यही कि - परदेस के होटल या केंटीन में
काम करने वाले लड़के
गाँव लौटने पर बुजुर्गों को भरमाने के लिए
‘क्या काम करते हो बेटा’ के जवाब में कहते -
‘धुआँधार कंपनी बेलन डिपार्टमेंट’ में काम करता हूँ बाबा
सुन यह बुजुर्गों को हो जाता विश्वास कि
लड़का पा गया है किसी बड़ी कंपनी में काम
और हो रहा है इससे पूरे गाँव-जवार का नाम
इस चाल-ढाल को कविता पाठक की हथेली पर रख
बढ़ती है आगे सोचते हुए -
रोटी की कविता में
रोटी जैसी ही गोल-मटोल होना चाहिए
कविता की लय
कविता को पकाना चाहिए रोटी की तरह
कवि को देकर अपनी पूरी आँच
रोटी बारहमासी फूल है
जिसे आग में फूलना होता है
इसीलिए रोटी-गंध को सहेजने की
कविता को अपनी जिम्मेदारी लिए ही रहना है
और कहना ही है अपनी हर आवृत्ति में
रोटी का संघर्ष
रात में पाही के खेत में खाते हुए
टिक्कड़ और आलू का भुरता
एकाएक मुझे याद आई वानगॉग की महान पेंटिंग ‘पोटेटो ईटर’
इस पेंटिंग की आलुओं का कोयला
माँजता रहता है हमारी संवेदना और भूख के कितने सारे वृत्तांत
सीता की रसोई में राम की रोटी जितना फूलती
महाकाव्यात्मक सुगंध से पूर जाता सीता का मन
राम खाते रहते और सीता की आँखों में डबडबाती रहती तृप्ति
कविता कहाँ थाह पाई जानकी के कलेजे की गहराई
निरपराध-परित्यक्त जानकी महाप्रश्न हैं
जिसके उत्तर का सोच कविता की घिग्घी बँध जाती है
यद्यपि कविता के कलेजे में ही है
जानकी की पीड़ा का पूरा पर्यावरण
तमाम मुश्किलों में बिंधा
अब जब मैं रोटी लिख रहा हूँ
कागज के आसमान में
मालूम हो रहा है मुझे आटा-दाल का भाव
कितनी तड़क-भड़क है दुनिया में
चकाचौंध फैलाई जा रही चहुँओर
ऐसे में रोटी के कुछ टुकड़ों के लिए बिलखते-बिलबिलाते बच्चे
हमारे समय के बहुत बड़े सवाल हैं
खींच रहे हैं वह हमारी भाषा का चीवर
और मुझे सूझ नहीं रहा सांत्वना का कोई भी शब्द
आप इन्हें सोमालिया, कालाहांडी कुछ भी कह सकते हैं
भूखे बच्चों की आँखों में जो प्रश्न हैं
उसका उत्तर बहाना नहीं है
ओला, पाला-जाड़ा, सूखा, अतिवृष्टि
महँगाई और कर्ज
छीनते हैं जब खेतिहरों की रोटी
अपने जीने के रस्ते बंद देख हिम्मत हार
खुद को ही मारने लग जाते हैं खेतिहर
खुदकुशी की ऐसी खबरों से
जिंदगी के उजले इलाके में अँधियार छा जाता है
ऐसे में अपने बेबसपन पर सूखी आँख रोती है कविता
फिर चीख-चीखकर कहती है :
जीवट लोग जब अपना हौसला हार जाते है
जिंदगी के लिए यह बहुत भयानक खबर होती है!
रोटी का विकल्प रोटी है
पेट खाली हो और दिमाग में चढ़ जाय रोटी
सबसे खतरनाक होता है तब रोटी का विस्फोट
किस्से-कहानियाँ सुनते हुए मुझे ईसाइयत की कथा में
एक ‘पवित्र रोटी’ मिली और खुश हो गया मैं
फिर खुशमन मैंने आगे लिखा -
हर रोटी पवित्र है
जो लहू बनकर दौड़ती है हमारी धमनियों में खूब
हमारी हड्डियों को भी बनाने में रोटी की ही मेहनत है जी-तोड़
थाली में परोसा खाना छोड़ देने पर
पैंसठ-छाछठ के कंताल (अकाल) में
बुरादा मिला आटा खाने का शिकायती जिक्र
आँखों में आँसू भरकर करती थीं मेरी बड़ी माँ
तब से रोटी का छोटा टुकड़ा भी फेंकते मुझे डर लगता है
अजाने शहर में
रोजी-रोटी के लिए जब हम भूखे भटकते
बचपन की पोटली में रखी माँ की रोटियाँ
याद करने से
मरने से बचती रही है हमारी भूख
रोटी भूख की कविता है
जिसे मिल जाती है वह गाता है
जो रोटी नहीं पाता है
वह भूख में कितना छटपटाता है
भूख के भूगोल में
रोटी का ही रकबा है सब से बड़ा
आप कौर तोड़ते हैं
और खुश हो जाते हैं खेत-खलिहान
तुक में ही तो कहा था अनुभव अनुस्यूत उस बुजुर्ग ने -
‘हमारे जनपदों का दिन फिर जाय
बिना रोए यदि
दो जून की रोटी मिल जाय’
पूरी कायनात में रोटी का इतना दखल
रोटी में भी कितनी कायनात है
रोटी गोल है
अपने लिए नचाती बहुत है
महँगाई की मेहरबानी कि ‘दाल रोटी चलना’
नहीं रहा अब ठीक से गुजर-बसर का मुहावरा
महँगाई तोड़ती है जब रोटी का मनोबल
रसोई उदास हो जाती है
रोटी जोड़ने का काम करती है
ऐसे में जो किसी के घर जलाकर
सेंकते हैं अपने स्वार्थ की (राजनीति की) रोटियाँ
मुआ$फ कहाँ कर पाता है उन्हें हमारा जन-समाज
धरती पर कोई भूखा सोता है
तो शेषनाग के फन पर रखी पृथ्वी
दुख से भारी हो जाती है और
मेहनतकश लोगों की रोटी मोटी और बड़ी होती है
खाए-पिए-अघाए हुए लोग
कहाँ जानते हैं रोटी-पानी का महत्व
रोटी भी कम जिद्दी नहीं
उथली भूख में वह भी उतरती है फीकेमन
किसी की ‘रोटी बिगाड़ना’
हत्या की तरह देखता है जिसे हमारा लोक
आपस में भी रोटी बिगड़ जाए तो दरक जाते हैं रिश्ते-नाते
चाहे हम दाल-रोटी खाएँ या साग-रोटी या रोटी-खीर
यह स्वाद-संधि है
जीभ को जिसे कहने के लिए अपने भीतर
विकसित करनी पड़ती है साँझी सोच
कितने दृश्य हैं भीतर कविता में उतरने को व्याकुल
जैसे यही कि-पाही के खेतों में गेहूँ की कटाई के समय
पूरे गाँव के चूल्हे नदी-घाट पर साथ-साथ जलते
किसी चूल्हे पर दाल पक रही होती, किसी पर तरकारी
कहीं रोटियाँ सिझ रही होतीं
कितना उत्सवपूर्ण लगता था मुझे यह सब
यहाँ भोपाल में भी जनजातीय संग्रहालय बनते समय
शाम-सुबह शिल्पियों-कलाकारों के चूल्हे साथ जलते
और अन्नगंध से जगमगा जाता पूरा परिवेश
संग-साथ का यह रोटी पर्व
बरबस ही मोह लेता है जो हमारा मन
अपने मराठी मित्र के यहाँ खाई ज्वार की भाखर-चटनी-दाल
मामी के हाथ की मकई की रोटी
और पड़ोस के आदिवासी गाँव में शहद-रोटी खाना
मेरी कविता की जुबान में शहद बचाता रहता है
रोटी का सबसे बड़ा रूप मलीदा है
हाथियों को खिलाया जाता है जिसे
इस तरह चींटी से लेकर हाथी तक हैं
रोटी के तलबगार
मुझे मालूम है - रोटी का इतिहास
मनुष्य के इतिहास जितना है प्राचीन
लेकिन मैं रोटी के इतिहास की नहीं
रोटी की कविता की बात करना चाहता हूँ
जो अपने खेत-खलिहान, चूल्हा-चक्की की याद लिए
हमारे पेट में पच रही है
और हर दिन रच रही है हमारी आत्मा और शरीर
पाठ्य पुस्तक में चखी
नजीर अकबराबादी की कविता की रोटियाँ
लगती हैं हरहमेश जरूरी पाठ
रसखान की कविता का वह कागा
हरिहाथ से ले उड़ा था जो माखन रोटी
मैंने उसे अपनी कविता में पकड़ लिया है
लेकिन निकला वह फिर बहुत चालाक
घई से पककर निकली मेरी माँ की बनाई रोटी
लेकर उड़ गया वह फिर अपने आकाश
पुन जिसे आगे अपनी कविता में पकड़ेगा
हमारा ही समानधर्मा और कोई युवा कवि
फूली हुई रोटी ही तो है यह चाँद
अचानक उड़कर पृथ्वी से चला गया है जो आसमान
जिस दिन किसी भूखे बच्चे के आ गया हाथ
उसी दिन इस चंदा मामा को
आ जाएगी अपनी नानी याद
सब से बड़े सर्जक ने
रोटी की तरह ही बनाई होगी पृथ्वी
बेलकर गोल-मटोल फिर आग पर रख
फुला दिया होगा खूब
पृथ्वी गोल है
बेल-बेलकर स्त्रियाँ भी
कम नहीं होने दे रही हैं रोटी की गोलाई
रोटी में कितना आत्मीय संबंध है
भाइयों के आपसी विवाद में जब हिस्सा बाँट हो जाता
और गाँव के बाहर का कोई व्यक्ति घर आने पर पूछता -
क्या अलग-अलग हो गई है आपके यहाँ सब भाइयों की रोटी
‘हाँ’ कहने पर कहता - कितने गाँवों के लोग देते थे
आपके परिवार की एका की मिसाल
सुन यह मन मसोस कर रह जाते थे घर के बुजुर्ग
घर-परिवार में रोटी एक रहना
मानी जाती है इज्जत-प्रतिष्ठा की बात
कितना पीड़ादायी है कि टूट-बिखर रहे हैं हमारे मुश्तरका मन
और संयुक्त परिवार जोड़कर रखने में
बड़े-बुजुर्गों की फूल रही है साँस
बैठकी में पीने-खाने के दवाब में
मैं अपने नशेलची दोस्तों से यही कहता :
मुझे रोटी का नशा है
उसी की उठती है मुझे दोनों जून तलब
पेट में रोटी रहती है तो रात में मुझे आ जाती है गहरी नींद
रोटी एक फूल है
बारहमासी
इस फूल को पाने के लिए
कितने काँटों से
जूझना होता है हमें दिन रात
रोटी खाते हुए आप पाएँगे कि उसमें
उसके दूधिया दाने की गुनगुनाहट है
जो बालियों के पकने के पहले मीठी आँच से पैदा होती है
नाचती रोटी में देख सकते हैं
उसके फसल की धूम-झूम
हवाओं के सारे गीत भी
रोटी की यात्रा में रहते हैं साथ
धूप का कुनकुना और उजला छंद
रोटी का महकता मन है
पाखियों ने खेतों में जो अपनी कविताएँ गाई हैं
चली आई है रोटी में उसकी भी मीठी लय
रोटी की कविता में अपने को न पाकर
बरस पड़े पीढ़ा-बेलन,
तमतमा गया तवा और कंडा-लकड़ी भी हो गए लाल
अपनी चूक का वास्ता देकर कैसे तो मनाया मैंने उन्हें
सहपाठियों ने पूछा ‘ईदगाह’ के हामिद का चिमटा
कहाँ है कविता में
उलट-पलट कर जलने से जो बचा रहा है रोटी
इस भूल को भी स्वीकारते हुए मित्रों की सलाह से ही
जोड़ी मैंने यह और पंक्तियाँ :
रोटी खाते हुए बैलों के पसीने को
हलवाहे के हुनर को - खेतिहर के जज्बे को
धन्यवाद देना नहीं भूलना चाहिए
नहीं तो पचने में एक जनम ले लेती है रोटी
दाल-चटनी-भाजी रख
परोसी जा चुकी है थाली
रोटी का इंतजार है
फूली हुई गरमागरम रोटी के आने से ही
देखिए न आप हमारी आँखों में
फैल गया है कितना अँजोर!
और भूख का जोर
अब चल निकला है!!
--- प्रेमशंकर शुक्ल
6 जनवरी 2020
भेडिया
भेडिये-1
भेडिये की आँखें सुर्ख हैं ।
उसे तब तक घूरो
जब तक तुम्हारी आँखें
सुर्ख न हो जाएं ।
और तुम कर ही क्या सकते हो
जब वह तुम्हारे सामने हों ?
यदि तुम मुहँ छुपा भागोगे
तो तुम उसे
अपने भीतर इसी तरह खडा पाओगे
यदि बच रहे ।
भेडिये की आँखें सुर्ख हैं ।
और तुम्हारी आँखें ?
भेड़िया २
भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ ।
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फ़र्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।
अब तुम मशाल उठा
भेड़िए के करीब जाओ
भेड़िया भागेगा।
करोड़ो हाथों में मशाल लेकर
एक - एक झाड़ी की ओर बढ़ो
सब भेडिए भागेंगे।
फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल
बर्फ़ में छोड़ दो
भूखे भेड़िए आपस में गुर्रायेंगे
एक - दूसरे को चीथ खायेंगे।
भेड़िए मर चुके होंगे
और तुम ?
भेड़िया ३
भेड़िए फिर आयेंगे।
अचानक
तुममें से ही कोई एक दिन
भेड़िया बन जायेगा
उसका वंश बढ़ने लगेगा।
भेड़िए का आना जरूरी है
तुम्हें खुद को पहचानने के लिए
निर्भय होने का सुख जानने के लिए।
इतिहास के जंगल में
हर बार भेड़िया माँद से निकाला जायेगा।
आदमी साहस से, एक होकर,
मशाल लिये खड़ा होगा।
इतिहास जिंदा रहेगा
और तुम भी
और भेड़िया ?
---सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
भेडिये की आँखें सुर्ख हैं ।
उसे तब तक घूरो
जब तक तुम्हारी आँखें
सुर्ख न हो जाएं ।
और तुम कर ही क्या सकते हो
जब वह तुम्हारे सामने हों ?
यदि तुम मुहँ छुपा भागोगे
तो तुम उसे
अपने भीतर इसी तरह खडा पाओगे
यदि बच रहे ।
भेडिये की आँखें सुर्ख हैं ।
और तुम्हारी आँखें ?
भेड़िया २
भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ ।
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फ़र्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।
अब तुम मशाल उठा
भेड़िए के करीब जाओ
भेड़िया भागेगा।
करोड़ो हाथों में मशाल लेकर
एक - एक झाड़ी की ओर बढ़ो
सब भेडिए भागेंगे।
फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल
बर्फ़ में छोड़ दो
भूखे भेड़िए आपस में गुर्रायेंगे
एक - दूसरे को चीथ खायेंगे।
भेड़िए मर चुके होंगे
और तुम ?
भेड़िया ३
भेड़िए फिर आयेंगे।
अचानक
तुममें से ही कोई एक दिन
भेड़िया बन जायेगा
उसका वंश बढ़ने लगेगा।
भेड़िए का आना जरूरी है
तुम्हें खुद को पहचानने के लिए
निर्भय होने का सुख जानने के लिए।
इतिहास के जंगल में
हर बार भेड़िया माँद से निकाला जायेगा।
आदमी साहस से, एक होकर,
मशाल लिये खड़ा होगा।
इतिहास जिंदा रहेगा
और तुम भी
और भेड़िया ?
---सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
1 जनवरी 2020
चंकी पांडे मुकर गया है
लोकप्रिय टी-सीरीज़ कंपनी का मालिक गुलशन कुमार
हत्या के वर्षों बाद भी अभी तक गाता है माता के जागरण के भजन, और दिखता है वैष्णो देवी की चढ़ाई चढ़ता हुआ,
माथे पर बाँधे हुए केसरिया स्कार्फ
गोल मटोल चेहरा, काले घुँघराले बाल, चमकदार हँसती सी छोटी-छोटी रोमानी आँखें
हर कोई जानता है कि वह पहले दरियागंज में चलाता था फ्रूट-जूस की दूकान
इसके बाद उसने व्यापार किया संगीत का
जिसकी कंपनी के कैसेट के लिए गाती है अनुराधा पौडवाल
जिसके पति अरुण को अब सब भूल चुके हैं जो पहाड़ से प्रतिभा और संगीत लेकर गया था
अपनी सुंदर पत्नी के साथ मुंबई अपनी किस्मत आजमाने
उसके नाम का आधा हिस्सा अभी भी जुड़ा है अनुराधा के साथ
कहते हैं अरुण पौडवाल की आत्मा म्यूजिक स्टूडियो में अभी भी आधी रात घूमती है
वह साउंड मिक्सिंग करती है रात में गलत सुरों को सुधारती हुई
गुलशन कुमार की आकांक्षा थी अनुराधा को लता मंगेशकर और अपने भाई किशन कुमार
को ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार बनाने की
वही किशन कुमार, जो मैच फिक्सिंग के मामले में गिरफ्तार हुआ था और जेल में बीमार पड़ा था
फिर जमानत पर छूट गया था, जैसे सभी इज्जतदार और सम्मानित लोग छूट जाया करते हैं इस देश में
यह वही मैच फिक्सिंग कांड था, जिसमें अजहरुद्दीन का क्रिकेट कैरियर बरबाद हुआ था
जिसमें दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम का कप्तान हैंसी क्रोनिए भी फँस गया था
और विमान दुर्घटना में मरने के पहले तक नहीं हो सका था अपने देश की टीम में बहाल
हालाँकि भारतीय अदालत ने अजय जडेजा को बेदाग बरी कर दिया था और
वह बल्ला लेकर फिर पहुँच गया था राष्ट्रीय टीम में खेलने
अजय जडेजा की शादी हुई थी जया जेटली की बेटी के साथ
जया जेटली के पति ने बढ़ी उमर में तलाक देकर दूसरी औरत के साथ घर बसा लिया था
आश्चर्य था कि दिल्ली के महिला संगठनों ने इस पर चुप्पी साधे रखी थी
क्योंकि जया जेटली उसके पहले तहलका कांड में मशहूर हुई थीं, जिसके कारण रक्षामंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था
और बहुत प्रयत्नों के बावजूद मुश्किल था एक उत्पीड़ित भारतीय पत्नी का मेकअप कर पाना
रही बात तहलका डॉट कॉम के तरुण तेजपाल और उनके साथियों की तो
वे पोटा से बचते छिपते इस लोकतंत्र के बनैले यथार्थ में हमारी तरह ही कहीं घायल पड़े होंगे
अब क्या क्या कहा क्या लिखा जाय हर किसी की स्मृति में ये सारी बातें हैं
हालाँकि विस्मृति के जो नए उपकरण खोजे गए हैं उनमें बहुत ताकत है
और जो शुद्ध साहित्य है वह विस्मरण का ही एक शातिर औजार है
लेकिन जो 'विचारधाराओं' वाला साहित्य है वह भी सरकारी फंडखोरी और
संस्थाओं की सेंधमारी की ही एक बीसवीं सदी वाली पुरानी इंडो-रूसी तकनीक है
न किसी पत्रिका न किसी अखबार में इतनी नैतिकता है न साहस कि वे किसी एक घटना का
पिछले पाँच साल का ही ब्यौरा ज्यों का त्यों छाप दें पचास-पचपन साल की तो छोड़िए
किसी तथाकथित कहानीकार को भी क्या पड़ी है कि वह
यथार्थवाद के नाम से प्रचलित कथा में
ऐसा यथार्थ लिखे कि पुरस्कार आदि तो दूर हिंदी समाज में जीना ही मुहाल हो
तो बात आगे बढ़ाएँ...
एक ऐसी वीडियो रिकार्डिंग थी दुबई की जिसमें अबू सालेम की पार्टी में शामिल थे
बड़े-बड़े आला कलाकार और साख रसूख वाली हस्तियाँ
इसी टेप से सुराग मिलता था गुलशन कुमार की हत्या का लेकिन अदालत में चंकी पांडे ने कहा कि वह तो अबु सालेम को पहचानता ही नहीं
और टेप में तो वह यों ही उसके गले से लिपटा हुआ दिखाई देता है
ऐसा ही बाकी हस्तियों ने कहा
हिंदुस्तान की अदालत ने भी माना कि दरअसल उस टेप में दिख रहा कोई भी आला हाकिम हुक्काम, अभिनेत्रियाँ या अभिनेता अबु सालेम को नहीं पहचानता...
और जो वह एक्ट्रेस उसकी गोद में बैठी चूमा चाटी कर रही थी
उसका बयान भी अदालत ने माना कि कोई जरूरी नहीं कि कोई औरत अगर किसी को चूमे
तो वह उसे पहचानती भी हो
तो लुब्बे लुआब यह कि अबु सालेम को पहचानने के मामले में सारे गवाह मुकर गए
उसी तरह जैसे बी एम डब्लू कांड में कार से कुचले गए पाँच लोगों के चश्मदीद गवाह संजीव नंदा और उसकी हत्यारी कार को पहचानने से मुकर गए
जैसे जेसिका लाल हत्याकांड के सारे प्रत्यक्षदर्शी मनु शर्मा को पहचानने से मुकर गए
हर कोई मुकर रहा है इस मुल्क में किसी भी सुनवाई, गवाही या निर्णय के वक्त
कोई नहीं कहता कि वह समाज या संस्कृति के किसी भी भूगोल के किसी भी हत्यारे
को पहचानता है
यह एक लुटेरा समय है
नई अर्थव्यवस्था की यह नई सामाजिक संरचना है
आवारा हिंसक पूँजी की यह एक बिल्कुल नई ताकत है और इसमें जो कुछ भी कहीं लोकप्रिय है
वह कोई न कोई अमरीकी ब्रांड है
गुलाम होने और गुलाम बनाने के सारे खेलों में अब बहुत बड़ा पूँजी निवेश है
और जो आजकल का साहित्य है, जिसमें लोलुप बूढ़ों और उनके वफादार चेलों की सांस्थानिक चहल-पहल है
वह भी अन्यायी सत्ता और अनैतिक पूँजी का देशी भाषा में किया गया एक उबाऊ करतब है
यह भ्रष्ट राजनीति का ही परम भ्रष्ट सांस्कृतिक विस्तार है एक उत्सव... एक समारोह..
एक राजनेता और आलोचक, कवि और दलाल, संगठन और गिरोह में
फर्क बहुत मुश्किल है
अनेकों हैं बुश
अनेकों हैं ब्लेयर
साथियो, यह एक लुटेरा अपराधी समय है
जो जितना लुटेरा है, वह उतना ही चमक रहा है और गूँज रहा है
हमारे पास सिर्फ अपनी आत्मा की आँच है और थोड़ा-सा नागरिक अंधकार
कुछ शब्द हैं जो अभी तक जीवन का विश्वास दिलाते हैं...
हम इन्हीं शब्दों से फिर शुरू करेंगे अपनी नई यात्रा...
---उदय प्रकाश
हत्या के वर्षों बाद भी अभी तक गाता है माता के जागरण के भजन, और दिखता है वैष्णो देवी की चढ़ाई चढ़ता हुआ,
माथे पर बाँधे हुए केसरिया स्कार्फ
गोल मटोल चेहरा, काले घुँघराले बाल, चमकदार हँसती सी छोटी-छोटी रोमानी आँखें
हर कोई जानता है कि वह पहले दरियागंज में चलाता था फ्रूट-जूस की दूकान
इसके बाद उसने व्यापार किया संगीत का
जिसकी कंपनी के कैसेट के लिए गाती है अनुराधा पौडवाल
जिसके पति अरुण को अब सब भूल चुके हैं जो पहाड़ से प्रतिभा और संगीत लेकर गया था
अपनी सुंदर पत्नी के साथ मुंबई अपनी किस्मत आजमाने
उसके नाम का आधा हिस्सा अभी भी जुड़ा है अनुराधा के साथ
कहते हैं अरुण पौडवाल की आत्मा म्यूजिक स्टूडियो में अभी भी आधी रात घूमती है
वह साउंड मिक्सिंग करती है रात में गलत सुरों को सुधारती हुई
गुलशन कुमार की आकांक्षा थी अनुराधा को लता मंगेशकर और अपने भाई किशन कुमार
को ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार बनाने की
वही किशन कुमार, जो मैच फिक्सिंग के मामले में गिरफ्तार हुआ था और जेल में बीमार पड़ा था
फिर जमानत पर छूट गया था, जैसे सभी इज्जतदार और सम्मानित लोग छूट जाया करते हैं इस देश में
यह वही मैच फिक्सिंग कांड था, जिसमें अजहरुद्दीन का क्रिकेट कैरियर बरबाद हुआ था
जिसमें दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम का कप्तान हैंसी क्रोनिए भी फँस गया था
और विमान दुर्घटना में मरने के पहले तक नहीं हो सका था अपने देश की टीम में बहाल
हालाँकि भारतीय अदालत ने अजय जडेजा को बेदाग बरी कर दिया था और
वह बल्ला लेकर फिर पहुँच गया था राष्ट्रीय टीम में खेलने
अजय जडेजा की शादी हुई थी जया जेटली की बेटी के साथ
जया जेटली के पति ने बढ़ी उमर में तलाक देकर दूसरी औरत के साथ घर बसा लिया था
आश्चर्य था कि दिल्ली के महिला संगठनों ने इस पर चुप्पी साधे रखी थी
क्योंकि जया जेटली उसके पहले तहलका कांड में मशहूर हुई थीं, जिसके कारण रक्षामंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था
और बहुत प्रयत्नों के बावजूद मुश्किल था एक उत्पीड़ित भारतीय पत्नी का मेकअप कर पाना
रही बात तहलका डॉट कॉम के तरुण तेजपाल और उनके साथियों की तो
वे पोटा से बचते छिपते इस लोकतंत्र के बनैले यथार्थ में हमारी तरह ही कहीं घायल पड़े होंगे
अब क्या क्या कहा क्या लिखा जाय हर किसी की स्मृति में ये सारी बातें हैं
हालाँकि विस्मृति के जो नए उपकरण खोजे गए हैं उनमें बहुत ताकत है
और जो शुद्ध साहित्य है वह विस्मरण का ही एक शातिर औजार है
लेकिन जो 'विचारधाराओं' वाला साहित्य है वह भी सरकारी फंडखोरी और
संस्थाओं की सेंधमारी की ही एक बीसवीं सदी वाली पुरानी इंडो-रूसी तकनीक है
न किसी पत्रिका न किसी अखबार में इतनी नैतिकता है न साहस कि वे किसी एक घटना का
पिछले पाँच साल का ही ब्यौरा ज्यों का त्यों छाप दें पचास-पचपन साल की तो छोड़िए
किसी तथाकथित कहानीकार को भी क्या पड़ी है कि वह
यथार्थवाद के नाम से प्रचलित कथा में
ऐसा यथार्थ लिखे कि पुरस्कार आदि तो दूर हिंदी समाज में जीना ही मुहाल हो
तो बात आगे बढ़ाएँ...
एक ऐसी वीडियो रिकार्डिंग थी दुबई की जिसमें अबू सालेम की पार्टी में शामिल थे
बड़े-बड़े आला कलाकार और साख रसूख वाली हस्तियाँ
इसी टेप से सुराग मिलता था गुलशन कुमार की हत्या का लेकिन अदालत में चंकी पांडे ने कहा कि वह तो अबु सालेम को पहचानता ही नहीं
और टेप में तो वह यों ही उसके गले से लिपटा हुआ दिखाई देता है
ऐसा ही बाकी हस्तियों ने कहा
हिंदुस्तान की अदालत ने भी माना कि दरअसल उस टेप में दिख रहा कोई भी आला हाकिम हुक्काम, अभिनेत्रियाँ या अभिनेता अबु सालेम को नहीं पहचानता...
और जो वह एक्ट्रेस उसकी गोद में बैठी चूमा चाटी कर रही थी
उसका बयान भी अदालत ने माना कि कोई जरूरी नहीं कि कोई औरत अगर किसी को चूमे
तो वह उसे पहचानती भी हो
तो लुब्बे लुआब यह कि अबु सालेम को पहचानने के मामले में सारे गवाह मुकर गए
उसी तरह जैसे बी एम डब्लू कांड में कार से कुचले गए पाँच लोगों के चश्मदीद गवाह संजीव नंदा और उसकी हत्यारी कार को पहचानने से मुकर गए
जैसे जेसिका लाल हत्याकांड के सारे प्रत्यक्षदर्शी मनु शर्मा को पहचानने से मुकर गए
हर कोई मुकर रहा है इस मुल्क में किसी भी सुनवाई, गवाही या निर्णय के वक्त
कोई नहीं कहता कि वह समाज या संस्कृति के किसी भी भूगोल के किसी भी हत्यारे
को पहचानता है
यह एक लुटेरा समय है
नई अर्थव्यवस्था की यह नई सामाजिक संरचना है
आवारा हिंसक पूँजी की यह एक बिल्कुल नई ताकत है और इसमें जो कुछ भी कहीं लोकप्रिय है
वह कोई न कोई अमरीकी ब्रांड है
गुलाम होने और गुलाम बनाने के सारे खेलों में अब बहुत बड़ा पूँजी निवेश है
और जो आजकल का साहित्य है, जिसमें लोलुप बूढ़ों और उनके वफादार चेलों की सांस्थानिक चहल-पहल है
वह भी अन्यायी सत्ता और अनैतिक पूँजी का देशी भाषा में किया गया एक उबाऊ करतब है
यह भ्रष्ट राजनीति का ही परम भ्रष्ट सांस्कृतिक विस्तार है एक उत्सव... एक समारोह..
एक राजनेता और आलोचक, कवि और दलाल, संगठन और गिरोह में
फर्क बहुत मुश्किल है
अनेकों हैं बुश
अनेकों हैं ब्लेयर
साथियो, यह एक लुटेरा अपराधी समय है
जो जितना लुटेरा है, वह उतना ही चमक रहा है और गूँज रहा है
हमारे पास सिर्फ अपनी आत्मा की आँच है और थोड़ा-सा नागरिक अंधकार
कुछ शब्द हैं जो अभी तक जीवन का विश्वास दिलाते हैं...
हम इन्हीं शब्दों से फिर शुरू करेंगे अपनी नई यात्रा...
---उदय प्रकाश