जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे 
मैं उनसे मिलने 
उनके पास चला जाऊँगा।
  
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर 
नदी जैसे लोगों से मिलने 
नदी किनारे जाऊँगा 
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा 
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब 
असंख्य पेड़ खेत 
कभी नहीं आएँगे मेरे घर 
खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने 
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा। 
जो लगातार काम में लगे हैं 
मैं फ़ुरसत से नहीं 
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह 
मिलता रहूँगा— 
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह 
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।
  
--- विनोद कुमार शुक्ल
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