मेरे जीवन में एक ऐसा वक़्त आ गया है 
जब खोने को 
कुछ भी नहीं है मेरे पास— 
दिन, दोस्ती, रवैया, 
राजनीति, 
गपशप, घास 
और स्त्री हालाँकि वह बैठी हुई है 
मेरे पास 
कई साल से 
क्षमाप्रार्थी हूँ मैं काल से 
मैं जिसके सामने निहत्था हूँ 
निसंग हूँ— 
मुझे न किसी ने प्रस्तावित किया है 
न पेश। 
मंच पर खड़े होकर 
कुछ बेवक़ूफ़ चीख़ रहे हैं 
कवि से 
आशा करता है 
सारा देश। 
मूर्खों! देश को खोकर ही 
मैंने प्राप्त की थी 
यह कविता 
जो किसी की भी हो सकती है 
जिसके जीवन में 
वह वक़्त आ गया हो 
जब कुछ भी नहीं हो उसके पास 
खोने को। 
जो न उम्मीद करता हो 
न अपने से छल 
जो न करता हो प्रश्न 
न ढूँढ़ता हो हल। 
हल ढूँढ़ने का काम 
कवियों ने ऊबकर 
सौंप दिया है 
गणितज्ञ पर 
और उसने 
राजनीति पर। 
कहाँ है तुम्हारा घर? अपना देश खोकर कई देश लाँघ 
पहाड़ से उतरती हुई 
चिड़ियों का झुंड 
यह पूछता हुआ ऊपर-ऊपर 
गुज़र जाता है : कहाँ है तुम्हारा घर? 
दफ़्तर में, होटल में, समाचार-पत्र में, 
सिनेमा में, 
स्त्री के साथ खाट में? 
नावें कई यात्रियों को 
उतारकर 
वेश्याओं की तरह 
थकी पड़ी हैं घाट में। 
मुझे दुख नहीं मैं किसी का नहीं हुआ। दुख है 
कि मैंने सारा समय 
हरेक का होने की 
कोशिश की। 
प्रेम किया। प्रेम करते हुए 
एक स्त्री के कहने पर 
भविष्य की खोज की और एक दिन 
सब कुछ पा लेने की 
सरहद पर 
दिखा एक द्वार: एक ड्राइंगरूम। 
भविष्य 
वर्तमान के लाउंज की तरह 
कहीं जाकर खुल 
जाता है। 
रुको, 
कोई आता है 
सुनाई पड़ती है 
किसी के पैरों की 
चाप। 
कोई मेरे जूतों का माप 
लेने आ रहा है। 
मेरे तलुए घिस गए हैं 
और फीतों की चाबुक 
हिला-हिला 
मैंने आस-पास की भीड़ को 
खदेड़ दिया है, 
भगा दिया है। 
औरों के साथ 
दग़ा करती है स्त्री 
मेरे साथ मैंने 
दग़ा किया है। 
पछतावा नहीं; यह एक क़ानून था जिसमें से होकर 
मुझे आना था। 
असल में यह एक 
बहाना था 
एक दिन अयोध्या से जाने का 
मैं अपने कारख़ाने का 
एक मज़दूर भी 
हो सकता था 
मैं अपना अफ़सोस 
ढो सकता था 
बाज़ार में लाने को 
बेचैन हो सकता था कविता 
सुनाने को 
फिर से एक बार इसे और उसे और उसे 
पाने को 
लेकिन एक बार उड़ जाने के बाद 
इच्छाएँ 
लौटकर नहीं आतीं 
किसी और जगह पर 
घोंसले बनाती हैं 
विधवाएँ बुड़बुड़ाती हैं 
रँडापे पर 
तरस खाती हैं 
बुढ़ापे पर 
नौजवान स्त्रियाँ 
गली में ताक़-झाँक करती हैं 
चेचक और हैजे से 
मरती हैं 
बस्तियाँ 
कैंसर से 
हस्तियाँ 
वकील 
रक्तचाप से 
कोई नहीं 
मरता 
अपने-पाप से 
धुँआ उठ रहा है कई 
माह से। दिन 
चला जाता है 
मारकर छलाँग एक ख़रगोश-सा। 
बंद होने वाली दुकानों के दिल में 
रह जाता है 
कुछ-कुछ अफ़सोस-सा।
---श्रीकांत वर्मा
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