मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूँ
मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ गुरिल्ला बाग़ियों से
पंक्ति को काट देता हूँ
मैंने अपनी जान की ख़ातिर
अपनी हज़ारों पंक्तियों की
इस तरह हत्या की है
उन पंक्तियों की रूहें
अक्सर मेरे चारों ओर मँडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं : कविवर!
कवि हो या कविता के हत्यारे?
सुना था इंसाफ़ करने वाले हुए कई इंसाफ़ के हत्यारे
धर्म के रखवाले भी सुना था कई हुए
ख़ुद धर्म की पावन आत्मा की
हत्या करने वाले
सिर्फ़ यही सुनना बाक़ी था
और यह भी सुन लिया
कि हमारे वक़्त में ख़ौफ़ के मारे
कवि भी हो गए
कविता के हत्यारे
~ सुरजीत पातर (अनुवाद : अनूप सेठी)
Bahut badhiya. Achhi lagi
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