'हाउल' नहीं गिंसबर्ग
परवर्ती पीढ़ी हमारी
नहीं मालूम जिसे क्यों कब
किसने लिखा कुछ पढ़कर सो कुछ लिखकर सो
देख रही बिकती बोटियाँ जिगर कीं
छह दो सात पाँच बोली न्यूयॉर्क-टोक्यो की
हाँ ऐलेन क्यों आए थे बनारस
यहाँ तो छूटा फॉर्टी सेकंड स्ट्रीट बहुत पीछे
कुत्तों ने किया हमेशा सड़कों पर संभोग यहाँ
रंग-बिरंगी नंगी रंभाएँ बेच रहा ईश्वर ख़ुराक आज़ादी के मसीहे की
चीत्कार इस पीढ़ी की नहीं बनेगी लंबी कविता नहीं बजेंगे ढोल
यह वह बनारस नहीं बीटनिक बहुत बड़ा गड्ढा है
रेंग रहा कीड़ा जिसमें
नहीं किसी और ग्रह का, मेरा ही दिमाग़ है लिंग है
हे भगवान चली गोलियाँ छत्तीसगढ़
भाई मेरा भूमिगत मैं क्यों गड्ढे में फिर
पाखंडी पीढ़ी मेरी
जाँघियों में खटमल-सी
भूखी बहुत भूखी
बनारस ले गए कहाँ तुम
जाएँ कहाँ हम छिपकर इन ख़ाली-ख़ाली तक़दीरों से
इन नंगे राजाओं से
कहाँ वह औरत वह मोक्षदात्री
बहुत प्यार है उससे
चाहा मैंने भी विवस्त्र उसे हे सिद्धार्थ
भूखे मरते मजूर वह क्यों फैलाती जाँघें
कहते कोई डर नहीं उसे एड्स का
बहुत दुखी इस पीढ़ी का पीछे छूटा यह बीमार
कई शीशों के बीच खड़ा ढोता लाशें अनगिनत
उठो औरतों प्यार करो हमसे
बना दो दीवार बाँध की हमें
कहो गिंसबर्ग कहो हमें गाने को यह गीत
बनारस नहीं आवाज़ हमारी अंतिम कविता
कहो।
--- लाल्टू
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