चक्रव्यूह मैं घुसने से पहले,
कौन था मैं और कैसा था,
यह मुझे याद ही न रहेगा.
चक्रव्यूह मैं घुसने के बाद,
मेरे और चक्रव्यूह के बीच,
सिर्फ एक जानलेवा निकट’ता थी,
इसका मुझे पता ही न चलेगा.
चक्रव्यूह से निकलने के बाद,
मैं मुक्त हूँ जाऊं भले ही,
फिर भी चक्रव्यूह की रचना मैं
फर्क ही न पड़ेगा.
मरुँ या मारून,
मारा जाऊं या जान से मार्डून.
इसका फैसला कभी न हूँ पायेगा.
सोया हुआ आदमी जब
नींद से उठकर चलना शुरू करता है,
तब सपनों का संसार उसे,
दोबारा दिख ही न पायेगा.
उस रौशनी मैं जो निर्णय की रौशनी है
सब कुछ स’मान होगा क्या?
एक पलड़े मैं नपुंसकता,
एक पलड़े मैं पौरुष,
और ठीक तराजू के कांटे पर
अर्ध सत्य।
Ardh Satya (Half Truth) is a 1983 film directed by Govind Nihalani. The English Translation of poem can be found on wikipedia.
Jan 21, 2010
Jan 17, 2010
Aadmi Nama
दुनिया मैं बादशाह है सो है वोह भी आदमी
और मुफलिस ओ गदा है सो है वोह भी आदमी
जार दर बे नवा है सो है वोह भी आदमी
नेमत जो खा रहा है सो है वोह भी आदमी
टुकड़े जो मांगता है सो है वोह भी आदमी
अब्दाल ओ कुतब ओ घुस ओ वाली आदमी हुई
मुनकर भी आदमी हुए और कुफ्र से भरे
क्या क्या करिश्मे कश्फ़ ओ करामत के किये
हद ता के अपने जोर ओ रियाज़त के जोर पे
खालिक से जा मिला है सो है वोह भी आदमी
फिर'औं ने किया था जो दावा खुदाई का
शाद्दाद भी बहिश्त बना कर हुआ खुदा
नमरूद भी खुदा ही कहाता था बार माला
यह बात है समझने की आगे कहूं मैं क्या
यां तक जो हूँ चूका है सो है वोह भी आदमी
यां आदमी ही नार है और आदमी ही नूर
यां आदमी ही पास है और आदमी ही दूर
कुल आदमी का हुस्न ओ काबा मिएँ है यान ज़हूर
शैतान भी आदमी है जो करता है मकर ओ जोर
और हादी, रहनुमा है सो है वोह भी आदमी
मस्जिद भी आदमी ने बने है यां मियां
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबा ख्वान
पढ़ते हैं आदमी ही नमाज़ और कुरान यां
और आदमी ही उन की चुराते हैं जूतियाँ
उनको जो ताड़ता है सो है वोह भी आदमी
यां आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी ही तेग से मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है सो है वोह भी आदमी!
Here is an excerpt from "Aadmi Nama" ; Rediscovering Nazir Akbarabadi through Agra Bazaar.
और मुफलिस ओ गदा है सो है वोह भी आदमी
जार दर बे नवा है सो है वोह भी आदमी
नेमत जो खा रहा है सो है वोह भी आदमी
टुकड़े जो मांगता है सो है वोह भी आदमी
अब्दाल ओ कुतब ओ घुस ओ वाली आदमी हुई
मुनकर भी आदमी हुए और कुफ्र से भरे
क्या क्या करिश्मे कश्फ़ ओ करामत के किये
हद ता के अपने जोर ओ रियाज़त के जोर पे
खालिक से जा मिला है सो है वोह भी आदमी
फिर'औं ने किया था जो दावा खुदाई का
शाद्दाद भी बहिश्त बना कर हुआ खुदा
नमरूद भी खुदा ही कहाता था बार माला
यह बात है समझने की आगे कहूं मैं क्या
यां तक जो हूँ चूका है सो है वोह भी आदमी
यां आदमी ही नार है और आदमी ही नूर
यां आदमी ही पास है और आदमी ही दूर
कुल आदमी का हुस्न ओ काबा मिएँ है यान ज़हूर
शैतान भी आदमी है जो करता है मकर ओ जोर
और हादी, रहनुमा है सो है वोह भी आदमी
मस्जिद भी आदमी ने बने है यां मियां
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबा ख्वान
पढ़ते हैं आदमी ही नमाज़ और कुरान यां
और आदमी ही उन की चुराते हैं जूतियाँ
उनको जो ताड़ता है सो है वोह भी आदमी
यां आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी ही तेग से मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है सो है वोह भी आदमी!
Here is an excerpt from "Aadmi Nama" ; Rediscovering Nazir Akbarabadi through Agra Bazaar.
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना......
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
" सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना "
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।
-पाश
One can't fathom the experiences of a poet , who wrote the following lines. Adapted from Yaatri's Blog.
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
" सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना "
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।
-पाश
One can't fathom the experiences of a poet , who wrote the following lines. Adapted from Yaatri's Blog.
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