23 मार्च 2013

An Elegy on the Death of a Mad Dog

Good people all, of every sort,
Give ear unto my song;
And if you find it wondrous short,
It cannot hold you long.

In Islington there was a man,
Of whom the world might say
That still a godly race he ran,
Whene'er he went to pray.

A kind and gentle heart he had,
To comfort friends and foes;
The naked every day he clad,
When he put on his clothes.

And in that town a dog was found,
As many dogs there be,
Both mongrel, puppy, whelp and hound,
And curs of low degree.

This dog and man at first were friends;
But when a pique began,
The dog, to gain some private ends,
Went mad and bit the man.

Around from all the neighbouring streets
The wondering neighbours ran,
And swore the dog had lost his wits,
To bite so good a man.

The wound it seemed both sore and sad
To every Christian eye;
And while they swore the dog was mad,
They swore the man would die.

But soon a wonder came to light,
That showed the rogues they lied:
The man recovered of the bite,
The dog it was that died.

--- Oliver Goldsmith

15 मार्च 2013

नयी तरह से निभाने की दिल ने ठानी है

नयी तरह से निभाने की दिल ने ठानी है
वगरना उससे मोहब्बत बहुत पुरानी है

ख़ुदा वो दिन न दिखाए कि मैं किसी से सुनूं
कि तूने भी गमे दुनिया से हार मानी है

ज़मीन पे रह के सितारे शिकार करते हैं
मिजाज़ अहले-मोहब्बत का आसमानी है

हमें अज़ीज़ हो क्योंकर न शामे-गम कि यही
बिछड़ने वाले तेरी आखिरी निशानी है

उतर पड़े हो तो दरया से पूछना कैसा
के साहिलों से उधर कितना तेज़ पानी है

बहुत दिनों में तेरी याद ओढ़ कर उतरी
ये शाम कितनी सुनहरी है क्या सुहानी है

साभार: हस्बे-हाल

10 जनवरी 2013

10 बेहतरीन शेर !!!

1) खुद से चल कर नहीं ये तर्ज ए सुखन आया है ,
पाँव दाबे हैं बुजुर्गों के , तो फ़न आया है .....!"

2)शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।

 लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
---धूमिल

3) हवा का रुख ही काफी बहाना होता है,
अगर चिराग किसी को जलाना होता है,
जुबानी दावे तो बहुत लोग करते रहते हैं
जुनू के काम को करके दिखाना होता है।
--- ‘शहरयार’

4) मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर
लोग साथ आते गये कारवां बनता गया
--- मजरूह सुल्‍तानपुरी

5) यूँ ही रक्खा था किसी ने, संग इक दीवार पर,
सर झुकाए मैं खड़ा था, वो ख़ुदा बनता गया ।.
कौन है वो, पाक दामन जो हर इक लहजे से है,
गलतियां होती गईं और ये जहां बनता गया ।

6) वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।
---धूमिल

7) बहक कर बाग-ए-जन्नत से चला आया था दुनिया में,
सुना है बाद महशर फिर उसी जन्नत की दावत है,
चला तो जाओं जन्नत मे मगर यह सोच कर चुप हु,
मैं आदमज़द हु मुझको बहक जाने की आदत है |

8) जितना दर्द दे सकता है देदे ऐ खुदा ,
मैं तेरी ही इबदाद से उनपर फ़तेह करूंगा|

9)मिल जाये दुनिया की उलझनों से फुर्सत, तो सोचना ...
की क्या सिर्फ फुरसतों में याद करने का रिश्ता बनाया था हम से ..

10)जाते हुए उस शक्स ने एक अजीब बददुआ सी दी....
तुझे मिले दो जहाँ की खुशियाँ पर कोई मुझ सा न मिले..

4 जनवरी 2013

ख्वाबे सहर

मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफलाक पर,
रात ही तारी रही इंसान की अदराक पर।
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा,
दिल में तारिकी दिमागों में अंधेरा ही रहा।
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे,
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे।
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए उमराँ भी उठे,
राम व गौतम भी उठे, फिरऔन व हामॉ भी उठे।
मस्जिदों में मौलवी खुतवे सुनाते ही रहे,
मन्दिरों में बरहमन श्लोक गाते ही रहे।
एक न एक दर पर जबींए शौक घिसटती ही रही,
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही।
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही,
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही।
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते ही रहे,
जहल के तारीक साये हाथ फैलाते ही रहे।
जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है।

---मजाज़ लखनवी

3 जनवरी 2013

जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

जो ग़मे हबीब से दूर थे, वो ख़ुद अपनी आग में जल गए
जो ग़मे हबीब को पा गए, वो ग़मों से हंस के निकल गए

जो थके थके से थे हौसले, वो शबाब बन के मचल गए
वो नज़र-नज़र से गले मिले, तो बुझे चिराग़ भी जल गए

ये शिकस्त-ए-दीद की करवटें भी बड़ी लतीफ़-ओ-जमील थीं
मैं नज़र झुका के तड़प गया, वो नज़र बचा के निकल गए

न ख़िज़ा में है कोई तीरगी, न बहार में कोई रोशनी
ये नज़र-नज़र के चिराग़ हैं, कहीं बुझ गए कहीं जल गए

जो संभल-संभल के बहक गए, वो फ़रेब ख़ुर्द-ए-राह थे
वो मक़ाम-ए-इश्क़ को पा गए, जो बहक-बहक के संभल गए

जो खिले हुए हैं रविश-रविश, वो हज़ार हुस्न-ए-चमन सही
मगर उन गुलों का जवाब क्या जो कदम-कदम पे कुचल गए

न है शायर अब ग़म-ए-नौ-ब-नौ न वो दाग़-ए-दिल न आरज़ू
जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

(हबीब: मेहबूब, शिकस्त-ए-दीद: नज़र की हार, लतीफ़-ओ-जमील: आकर्षक और आनन्ददायक, खिज़ा: पतझड़, तीरगी: अन्धेरा, ख़ुर्द: सूक्ष्म, रविश: बग़ीचे के बीच छोटे-छोटे रास्ते, नौ-ब-नौ: ताज़ा, एतमाद: पक्का यक़ीन)

---शायर लखनवी

1 जनवरी 2013

सौ में सत्तर आदमी

सौ में सत्तर आदमी
फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रखकर हाथ कहिये
देश क्या आजाद है। सौ में सत्तर …

कोठियों से मुल्क के
मेयार को मत आंकिये
असली हिंदुस्तान तो
फुटपाथ पर आबाद है । सौ में सत्तर आदमी ….

सत्ताधारी लड़ पड़े है
आज कुत्तों की तरह
सूखी रोटी देखकर
हम मुफ्लिसों के हाथ में ! सौ में सत्तर आदमी …

जो मिटा पाया न अब तक
भूख के अवसाद को
दफन कर दो आज उस
मफ्लूश पूंजीवाद को । सौ में सत्तर आदमी…

बुढा बरगद साक्षी है
गावं की चौपाल पर
रमसुदी की झोपडी भी
ढह गई चौपाल में । सौ में सत्तर आदमी…

जिस शहर के मुन्तजिम
अंधे हों जलवामाह के
उस शहर में रोशनी की
बात बेबुनियाद है । सौ में सत्तर आदमी…

जो उलझ कर रह गई है
फाइलों के जाल में
रोशनी वो गांव तक
पहुँचेगी कितने साल में । सौ में सत्तर आदमी…

लेखक ----- अदम गोंडवी

24 दिसंबर 2012

लहू का रंग एक है

बने हो एक ख़ाक से, तो दूर क्या क़रीब क्या
लहु का रंग एक है, अमीर क्या गरीब क्या
बने हो एक ...

वो ही जान वो ही तन, कहाँ तलक़ छुपाओगे -
पहन के रेशमी लिबाज़, तुम बदल न जाओगे
के एक जात हैं सभी
तो बात है अजीब सी
लहु का रंग एक है ...

गरीब है वो इस लिये, तुम अमीर हो गये
के एक बादशाह हुआ, तो सौ फ़कीर हो गये
खता यह है समाज की -(२)
भला बुरा नसीब क्या
लहु का रंग एक है ...

जो एक हो तो क्यूँ ना फिर, दिलों का दर्द बाँट लो
लहु की प्यास बाँट लो, रुको कि दर्द बाँट लो
लगा लो सब को तुम गले
हबीब क्या, रक़ीब क्या
लहु का रंग एक है ...

---मजरूह सुल्तानपुरी

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