Apr 28, 2020

जावेद अख्तर के नाम

1)
जादू, बयान तुम्हारा, और पुकार सुनी है
तुम ‘एकला’ नहीं, हमने वो ललकार सुनी है

बोली लगी थी कल, कि सिंहासन बिकाऊ थे
नीलाम होती कल, सर-ए-बाज़ार सुनी थी

तुम ने भी खून-ए-दिल में डुबोई हैं उंगलियां
हमने क़लम की पहले भी झंकार सुनी है

2)
जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख
इतनी अंधेरी थी ना कभी पहले रात, लिख

जिनसे क़सीदे लिखे थे, वो फेंक दे क़लम
फिर खून-ए-दिल से सच्चे कलाम की सिफ़त लिख

जो रोज़नामचे में कहीं पाती नहीं जगह
जो रोज़ हर जगह की है, वो वारदात लिख

जितने भी तंग दायरे हैं सारे तोड़ दे
अब आ खुली फिज़ाओं में, अब कायनात लिख

जो वाक़यात हो गए उनका तो जिक्र है
लेकिन जो होने चाहिए, वो वाक़यात लिख

इस जगह में जो देखनी है तुझ को फिर बहार
तू डाल-डाल दे सदा, तू पात-पात लिख

--- गुलज़ार

Apr 23, 2020

And yet the books

And yet the books will be there on the shelves, separate beings,
That appeared once, still wet
As shining chestnuts under a tree in autumn,
And, touched, coddled, began to live
In spite of fires on the horizon, castles blown up,
Tribes on the march, planets in motion.
“We are, ” they said, even as their pages
Were being torn out, or a buzzing flame
Licked away their letters. So much more durable
Than we are, whose frail warmth
Cools down with memory, disperses, perishes.
I imagine the earth when I am no more:
Nothing happens, no loss, it’s still a strange pageant,
Women’s dresses, dewy lilacs, a song in the valley.
Yet the books will be there on the shelves, well born,
Derived from people, but also from radiance, heights.

--- Czeslaw Milosz

Apr 14, 2020

मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ

सड़क पर सिगरेट पीते वक़्त
जो अजां सुनाई दी मुझको
तो याद आया के वक़्त है क्या
और बात ज़हन में ये आई
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?

मैं शिया हूं या सुन्नी हूं
मैं खोजा हूं या बोहरी हूं
मैं गांव से हूं या शहरी हूं
मैं बाग़ी हूं या सूफी हूं
मैं क़ौमी हूं या ढोंगी हूं

मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?

मैं सजदा करने वाला हूं
या झटका खाने वाला हूं
मैं टोपी पहन के घूमता हूं
या दाढ़ी बड़ा के रहता हूं
मैं आयत कौल से पढ़ता हूं
या फ़िल्मी गाने रमता हूं
मैं अल्लाह अल्लाह करता हूं
या शेखों से लड़ पड़ता हूं?

मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?

दक्कन से हूँ , यूपी से हूँ
भोपाल से हूँ दिल्ली से हूँ
कश्मीर से हूँ गुजरात से हूँ
हर ऊंची नीची जात से हूँ

मैं ही हूँ जुलाहा मोची भी
मैं डॉक्टर भी हूँ दर्ज़ी भी
मुझमे गीता का सार भी है
एक उर्दू का अख़बार भी है

मेरा एक महीना रमज़ान भी है
मैंने किया तो गंगा स्नान भी है
मैं अपने तौर से जीता हूँ
दारू सिगरेट भी पीता हूँ

कोई नेता मेरी नस में नहीं
मैं किसी पार्टी के बस में नहीं।
ख़ूनी दरवाज़ा मुझमे है
इक भूलभलैया मुझमे है

मैं बाबरी का एक गुम्बद हूँ
मैं शहर के बीच में सरहद हूँ
झुग्गियों में पलती ग़ुरबत मैं
मदरसों की टूटी सी छत में मैं

दंगों में भड़कता शोला मैं
कुर्ते पर खून का धब्बा मैं
मंदिर की चौखट मेरी है
मस्जिद के किबले मेरे है

गुरूद्वारे का दरबार मेरा
यीशु के गिरजे मेरे हैं
सौ में से चौदह हूँ
चौदह ये कम न पड़ते हैं
मैं पूरे सौ में बसता हूँ
पूरे सौ मुझ में बसते हैं

मुझे एक नज़र से देख न तू
मेरे एक नहीं सौ चेहरे हैं
सौ रंग के हैं किरदार मेरे
सौ रंग में लिखी कहानी हूँ
मैं जितना मुसलमाँ हूँ भाई
मैं उतना हिंदुस्तानी हूँ

मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ भाई
मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ .

--- हुसैन हैदरी