मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूँ
मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ गुरिल्ला बाग़ियों से
पंक्ति को काट देता हूँ
मैंने अपनी जान की ख़ातिर
अपनी हज़ारों पंक्तियों की
इस तरह हत्या की है
उन पंक्तियों की रूहें
अक्सर मेरे चारों ओर मँडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं : कविवर!
कवि हो या कविता के हत्यारे?
सुना था इंसाफ़ करने वाले हुए कई इंसाफ़ के हत्यारे
धर्म के रखवाले भी सुना था कई हुए
ख़ुद धर्म की पावन आत्मा की
हत्या करने वाले
सिर्फ़ यही सुनना बाक़ी था
और यह भी सुन लिया
कि हमारे वक़्त में ख़ौफ़ के मारे
कवि भी हो गए
कविता के हत्यारे
~ सुरजीत पातर (अनुवाद : अनूप सेठी)
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11 जून 2024
14 मई 2021
फिर भी
उसका कुछ भी तो नहीं था
पास मेरे
न कोई ख़त, न सपना
न कोई याद, न दुआ
न कोई अँगूठी, न छल्ला
न कोई रूमाल
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास
न उसके साथ बिताया दिन कोई
न अकेले जाग कर काटी कोई रात
न ख़ामोशी, न आवाज़ कोई
न यादों में सुलगती कोई बात
कुछ भी नहीं था उसका
मेरे पास
न कोई पहाड़ों की स्मृति
न किसी समुन्दरी किनारे की रेत
न कोई गुनगुना दिन, न तीखी दोपहर
न किसी जाड़े की निघ्घी धूप
न उसकी हँसी, न गहरी चुप
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास
उसका
कुछ भी तो नहीं था
पास मेरे
लेकिन फिर भी न जाने क्यों
वह छटपटा रही थी
मुझसे मुक्त होने के लिए ।
पास मेरे
न कोई ख़त, न सपना
न कोई याद, न दुआ
न कोई अँगूठी, न छल्ला
न कोई रूमाल
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास
न उसके साथ बिताया दिन कोई
न अकेले जाग कर काटी कोई रात
न ख़ामोशी, न आवाज़ कोई
न यादों में सुलगती कोई बात
कुछ भी नहीं था उसका
मेरे पास
न कोई पहाड़ों की स्मृति
न किसी समुन्दरी किनारे की रेत
न कोई गुनगुना दिन, न तीखी दोपहर
न किसी जाड़े की निघ्घी धूप
न उसकी हँसी, न गहरी चुप
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास
उसका
कुछ भी तो नहीं था
पास मेरे
लेकिन फिर भी न जाने क्यों
वह छटपटा रही थी
मुझसे मुक्त होने के लिए ।
---अमरजीत कौंके
10 अप्रैल 2021
उत्तर आधुनिक आलोचक
जब मैंने भूख को भूख कहा
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा
जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा
परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चांद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी
तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!
---अमरजीत कौंके
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा
जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा
परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चांद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी
तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!
23 मार्च 2021
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गांव में
ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के
हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में
देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
---बल्ली सिंह चीमा
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के
हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में
देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
---बल्ली सिंह चीमा
23 फ़रवरी 2021
पुल बन गया था
मैं जिन लोगों के लिए
पुल बन गया था
वे जब मुझ पर से
गुज़र कर जा रहे थे
मैंने सुना—मेरे बारे में कह रहे थे :
वह कहाँ छूट गया
चुप-सा आदमी?
शायद पीछे लौट गया है!
हमें पहले ही ख़बर थी
उसमें दम नहीं है।
--- सुरजीत पातर
पंजाबी से अनुवाद : चमनलाल
1 मई 2018
मैं घास हूँ
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो होस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मुझे क्या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊंगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूंगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।
---पाश
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो होस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मुझे क्या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊंगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूंगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।
---पाश
1 मई 2017
सपने
सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुयी
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते|
--- अवतार सिंह संधू "पाश"
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुयी
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते|
--- अवतार सिंह संधू "पाश"
23 जनवरी 2017
अंत में
अंत में
हमें पैदा नहीं होना था
हमें लड़ना नहीं था
हमें तो हेमकुंठ पर बैठ कर
भक्ति करनी थी
लेकिन जब सतलुज के पानी से भाप उठी
जब क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की जुबाान रुकी
जब लड़को के पास देखा 'जेम्स बांड'
तो मैं कह उठा, चल भाई संत संधू*
नीचे धरती पर चले
पापों का बोझ तो बढ़ता जाता हैं
और अब हम आएं है
यह लो हमारा ज़फरनामा
हमारे हिस्से की कटार हमें दे दो
हमारा पेट हाज़िर हैं……।
हमें पैदा नहीं होना था
हमें लड़ना नहीं था
हमें तो हेमकुंठ पर बैठ कर
भक्ति करनी थी
लेकिन जब सतलुज के पानी से भाप उठी
जब क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की जुबाान रुकी
जब लड़को के पास देखा 'जेम्स बांड'
तो मैं कह उठा, चल भाई संत संधू*
नीचे धरती पर चले
पापों का बोझ तो बढ़ता जाता हैं
और अब हम आएं है
यह लो हमारा ज़फरनामा
हमारे हिस्से की कटार हमें दे दो
हमारा पेट हाज़िर हैं……।
12 जनवरी 2012
हम लड़ेंगे
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे
---पाश
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे
---पाश
11 अक्टूबर 2010
Bullah ki jaana
Bulla, ki jaana main kaun
Bulla, ki jaana main kaun
Na main moman vich maseetan
Na main vich kufar dian reetan
Na main pakan vich paleetan
Na main andar bed kitaban
Na main rehnda bhaang sharaban
Na main rehnda mast kharaban
Na main shadi na ghamnaki
Na main vich paleetan pakeen
Na main aaabi na main khaki
Na main aatish na paun
Bulla ki jaana main kaun
Na main arabi na lahori
Na main hindi shehar nagaori
Na hindu na turk pashauri
Na main bhet mazhab de paya
Na main aadam hawwa jaya
Na koi apna naam dharaya
Avval-aakhar aap nu jana
Na koi dooja hor pacchana
Maithon na koi har syana
Bulle shauh Kharha hai kaun
Bulla ki jaana main kaun
English Translation:
Bulleh! to me, I am not known
Not a believer inside the mosque, am I
Nor a pagan disciple of false rites
Not the pure amongst the impure
Neither Moses, nor the Pharoh
Bulleh! to me, I am not known
Not in the holy Vedas, am I
Nor in opium, neither in wine
Not in the drunkard`s intoxicated craze
Niether awake, nor in a sleeping daze
Bulleh! to me, I am not known
In happiness nor in sorrow, am I
Neither clean, nor a filthy mire
Not from water, nor from earth
Neither fire, nor from air, is my birth
Bulleh! to me, I am not known
Not an Arab, nor Lahori
Neither Hindi, nor Nagauri
Hindu, Turk (Muslim), nor Peshawari
Nor do I live in Nadaun
Bulleh! to me, I am not known
Secrets of religion, I have not known
From Adam and Eve, I am not born
I am not the name I assume
Not in stillness, nor on the move
Bulleh! to me, I am not known
I am the first, I am the last
None other, have I ever known
I am the wisest of them all
Bulleh! do I stand alone?
Bulleh! to me, I am not known
---This poem is a Kafi (a classical form of Sufi poetry, mostly in Punjabi, Sindhi and Seraiki language) written by the Sufi saint Bulleh Shah.Listen this poetry with music on Youtube;
Bulla, ki jaana main kaun
Na main moman vich maseetan
Na main vich kufar dian reetan
Na main pakan vich paleetan
Na main andar bed kitaban
Na main rehnda bhaang sharaban
Na main rehnda mast kharaban
Na main shadi na ghamnaki
Na main vich paleetan pakeen
Na main aaabi na main khaki
Na main aatish na paun
Bulla ki jaana main kaun
Na main arabi na lahori
Na main hindi shehar nagaori
Na hindu na turk pashauri
Na main bhet mazhab de paya
Na main aadam hawwa jaya
Na koi apna naam dharaya
Avval-aakhar aap nu jana
Na koi dooja hor pacchana
Maithon na koi har syana
Bulle shauh Kharha hai kaun
Bulla ki jaana main kaun
English Translation:
Bulleh! to me, I am not known
Not a believer inside the mosque, am I
Nor a pagan disciple of false rites
Not the pure amongst the impure
Neither Moses, nor the Pharoh
Bulleh! to me, I am not known
Not in the holy Vedas, am I
Nor in opium, neither in wine
Not in the drunkard`s intoxicated craze
Niether awake, nor in a sleeping daze
Bulleh! to me, I am not known
In happiness nor in sorrow, am I
Neither clean, nor a filthy mire
Not from water, nor from earth
Neither fire, nor from air, is my birth
Bulleh! to me, I am not known
Not an Arab, nor Lahori
Neither Hindi, nor Nagauri
Hindu, Turk (Muslim), nor Peshawari
Nor do I live in Nadaun
Bulleh! to me, I am not known
Secrets of religion, I have not known
From Adam and Eve, I am not born
I am not the name I assume
Not in stillness, nor on the move
Bulleh! to me, I am not known
I am the first, I am the last
None other, have I ever known
I am the wisest of them all
Bulleh! do I stand alone?
Bulleh! to me, I am not known
---This poem is a Kafi (a classical form of Sufi poetry, mostly in Punjabi, Sindhi and Seraiki language) written by the Sufi saint Bulleh Shah.Listen this poetry with music on Youtube;
15 मई 2010
आंसू
आंखों में पानी देख
कहीं तुम्हे
रोने का भ्रम ना हो जाए
तुम नहीं जानते
कि
रोते हुए ,
आंसू
बाहर नहीं
अन्दर गिरते हैं
--- गुरमीत बराङ
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