23 अगस्त 2019

उपचार

बेवफ़ा प्रेमिका से तुम्हारे टूटे हुए दिल का उपचार
तुम करो तीन प्रक्रियाओं से आबद्ध
पहला कि उसे जाने दो
दूसरा कि करो स्वीकार कि तुम्हारी जगह किसी और को लाएगी
अपने बिस्तर पर सजाएगी
और तीसरा कि करो कल्पना वास्तविक
कि वह रही नहीं
वह मर गई पिछले वर्ष सितंबर में
हो एक सड़क हादसे का शिकार

--- Shayak Alok

21 अगस्त 2019

Poetry and prose

Sometimes I am caught
between poetry and prose, like two lovers
I can't decide between.

Prose says to me, let's build
something long and lasting.
Poetry takes me by the hand,
and whispers, come with me,
let's get lost for awhile.

--- Lang Leav

19 अगस्त 2019

औरतें हैं हम

औरतें हैं हम
खाना नहीं हैं
मेज़ पर धरा हुआ
छिलो, हड्डियाँ निकालो
भर लो अपना पेट
कूड़ा नहीं है कूड़ेदान में समा जाने के लिए

औरतें हैं हम
गुड़ियाँ नहीं
जिनसे खेलो, उतार दो कपड़े
तैयार करो, क़ैद करो
एक पालने में और सजा दो
एक शेल्फ पर

औरतें हैं हम
ज़मीन नहीं हैं जिसे खोदोगे ताम्बे
रत्न और स्वर्ण के लिए
उगाओ और परती छोड़ दो
फसल के बाद

गीली मिट्टी सा उसे
रौंदो या बना दो
एक गोद कंकालों के लिए

औरतें हैं हम
मनुष्य भी
रोबोट या चिथड़े नहीं
न ही बर्तन न शौचालय
सपना नहीं हैं जिसका मन नहीं कोई
तसवीर नहीं हैं भागो तुम जिसके पीछे
उड़ते बादल पर बैठकर

औरतें हैं हम
धात्रियाँ संतानों की
दुनिया के वारिसों की
हम जानती हैं करना अंतर
आकारों में दिन और रात में
अलग कर सकती हैं हम
इंद्रधनुष के रंग

हम जानती हैं सम्भालना
एक ढहती हुई आत्मा को
जानती हैं प्यार करना
एक सोचने वाले दिल को
हम जानती हैं भिड़ जाना
और सीधा करना टेढों को
बागबानी करते हुए
सँवारना दुनिया को ।

--- Marra Lanot (हिंदी अनुवाद : Su Jata)

15 अगस्त 2019

जन गण मन अधिनायक जय हे !

जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेजी के गायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय समाजवादी रंगवाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय हे जमींदार पूँजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतंत्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे

जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुंदरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे

--- गोरख पाण्डेय

10 अगस्त 2019

जिहाल-ए-मिस्कीं

जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।

कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।

ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।

--- गुलज़ार

9 अगस्त 2019

सुनो ब्राह्मण

हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें।
तुम, हमारे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर।
शाम को थककर पसर जाओ धरती पर
सूँघो खुद को
बेटों को, बेटियों को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से।

---मलखान सिंह

5 अगस्त 2019

राजे-महाराजे

राजे-महाराजे,
अब मुकुट पहन कर नहीं आते,
होती है उन्होंने जम्हूरियत की पोशाक पहनी,
बताने तुम्हे क्या गलत है और क्या सही,
तुम उनसे सवाल नहीं पूछते,
क्यूंकि राजाओं से सवाल नहीं पूछे जाते.

राजे,
अब तलवार लेकर नहीं आते,
वो आते हैं हाथों में संविधान ले कर,
जो पहले करता है उनके चुने जाने का मार्ग तय,
फिर उसे ही काट कर छाँट कर,
खुद के लिए उसे और मज़बूत हैं बनाते,
हम उनके बगलों में रखी छुरियां नहीं देख पाते,

राजे,
अब सेना नहीं इकट्ठा करते,
वो जुटाते हैं एक बिना वर्दी की गुमनाम भीड़,
सर्वव्यापी सर्वशक्तिशाली फिर भी धुंए सी अर्थहीन,
जिसके अट्टहासों या कीबोर्ड की खुट खुट से
कुछ उठती आवाजें हो जाती हैं शांत में विलीन,
तो कभी चलतीं हैं सड़कों पर करती न्याय
उन स्रोतों को हमेशा के लिए मिटाते.

राजे,
अब पैगाम या सन्देश ढोल से नहीं भिजवाते,
बुलेट प्रूफ खेमे से वो देते हैं राष्ट्र के नाम सन्देश,
रख रखे हैं उन्होंने कुछ सन्देश वाहक,
जो उनकी ज़ेबों से झाँक कर गला फाड़ कर,
या जनता को नाग नागिन के डांस में रख उलझा,
कर देते हैं समस्या का दहन उसके ज़िन्दा रहते,

राजे ,
न कभी गए थे वो और न कहीं हैं वो जाते,
भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है,
और जहाँ प्रजा है वहां तो होंगे ही राजे,
तुम्हे आज़ादी का एहसास कराते.
इसलिए प्रजा की सरकार में,
प्रजा के लिए प्रजा द्वारा,
अब चुने जाते हैं राजे.

---अभय मिश्र

आग़ा शाहिद अली की कविताएं

मैदानों के मौसम

कश्मीर में, जहां साल में
चार चिन्हित अलग-अलग मौसम होते हैं
अम्मी अपने लखनऊ के मैदानी इलाके में बीते बचपन की बात करती हैं
और उस मौसम की भी,
मानसून,
जब कृष्ण की बांसुरी
जमुना के किनारों पर सुनाई देती है.
वह बनारस के ठुमरी गायकों के पुराने रिकार्ड्स बजाया करती थीं—
सिद्धेश्वरी और रसूलन,
उनकी आवाजों में चाह होती,
जब भी बादल जमा होते,
उस अदृश्य, नीले भगवान के लिए. बिछोह
संभव नहीं है जब बारिशें आती हैं,
उनके हर गीत में यह होता था.
जब बच्चे दौड़ते थे गलियों में
अपनी अपनी उष्णता को भिंगोते हुए,
प्रेमियों के बीच
चिट्ठियां बदल ली जाती थीं.
हीर-रांझा और दूसरे कई किस्से,
उनका प्रेम, कुफ़्र.
और फिर सारी रात जलते हुए खुशबू की तरह
होता जवाब का इंतजार. अम्मी
हीर का दर्द गुनगुनाती थीं
पर मुझसे कभी नहीं कहा
कि क्या उन्होंने भी जैस्मिन की अगरबत्तियां
जलाईं जो, खाक होते हुए,
राख की छोटी मुलायम चोटियां
बनाती जाती हैं. मैं कल्पना करता था कि
हर चोटी उमस भरी हवा पर
लद जाती है.
अम्मी बस इतना कहती थीं :
मानसून कभी पहाड़ों को फांद कर
कश्मीर नहीं आता.

चांदनी चौक, दिल्ली

इस गर्मी के चौराहे को निगल जाओ
और फिर मानसून का इंतजार करो.
बारिश की सूइयां
जीभ पर पिघल जाती हैं. थोड़ी दूर
और जाओगे? सूखे की एक याद
जकड़ती है तुमको : तुम्हें याद आता है
भूखे शब्दों का स्वाद
और तुमने नमक के अक्षर चबाए थे.
क्या तुम इस शहर को पाक कर सकते हो
जो कटी हुई जीभ पर खून की तरह जज्ब होता है?

कश्मीर से आया ख़त

कश्मीर सिमट जाता है मेरे मेलबॉक्स में.
चार गुने छह का सुलझा हुआ मेरा घर.
मुझे साफ चीजों से प्यार था हमेशा. अब
मेरे हाथों में है आधा इंच हिमालय.
ये घर है. और ये सबसे करीब
जहां मैं हूं अपने घर से. जब मैं लौटूंगा,
ये रंग इतने बेहतरीन नहीं होंगे,
झेलम का पानी इतना साफ,
इतना गहरा नीला. मेरी मुहब्बत
इतनी जाहिर.
और मेरी याद धुंधली होगी थोड़ी
उसमे एक बड़ा नेगेटिव,
काला और सफेद, अभी भी पूरा रौशन नहीं.

---आग़ा शाहिद अली
अनुवाद और प्रस्तुति : अंचित

4 अगस्त 2019

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो

पत्थरों में भी ज़ुबाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर की दर-ओ-दीवार सजा कर देखो

फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढा़ कर देखो

--- निदा फ़ाज़ली

2 अगस्त 2019

एक ट्रक आयेगा

कभी वे चाँद पर
जाने की बात करते हैं
कभी बाघों के
दर्शन के लिए
अभयारण्य की सैर

सिर्फ़ हत्या
और बलात्कार पर
कुछ नहीं कहते

वह तो आये दिन का
कारोबार है
उस पर क्या कहना ?

एक ट्रक आयेगा
इंसाफ़ की उम्मीदों को
कुचलता चला जायेगा

आप इस ट्रक पर बैठ सकें
तो चाँद की
सैर कर सकते हैं
अभयारण्य की भी

---पंकज चतुर्वेदी