वह जो कुर्सी पर बैठा अख़बार पढ़ने का ढोंग कर रहा है जासूस की तरह वह दरअसल मृत्यु का फ़रिश्ता है ।
क्या शानदार डॉक्टरों जैसी बेदाग़ सफ़ेद पोशाक है उसकी दवाओं की स्वच्छ गंध से भरी मगर अभी जब उबासी लेकर अख़बार फड़फड़ाएगा, जो दरअसल उसके पंख हैं तो भयानक बदबू से भर जायेगा यह कमरा और ताजा खून के गर्म छींटे तुम्हारे चेहरे और बालों को भी लथपथ कर देंगे हालांकि बैठा है वह समुद्रों के पार और तुम जो उसे देख प् रहे हो
वह सिर्फ तकनीक है ताकि तुम उसकी सतत उपस्तिथि को विस्मृत न कर सको
बालू पर चलते हैं अविश्वसनीय रफ़्तार से सरसराते हुए भारी-भरकम टैंक घरों पर बुलडोजर बस्तियों पर बम बरसते हैं बच्चों पर गोलियां
एक कुत्ता भागा जा रहा है धमाकों की आवाज़ के बीच मुंह में किसी बच्चे की उखड़ी बची हुई भुजा दबाये कान पूँछ हलके से दबे हुए उसे किसी परिकल्पित सुरक्षित ठिकाने की तलाश है जहाँ वह इत्मीनान से खा सके अपना शानदार भोज वह ठिकाना उसे कभी मिलेगा नहीं ।
संदर्भ:कविता हिंदी के यथार्थवादी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध से प्रेरित है। फिल्म "जॉली एलएलबी 3" में किसान की आत्मकथा की तरह सुनाई गई वह कविता हिंदी साहित्य के महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रेरणा से बनायी गई है। यह कविता किसान की भावनाओं और संघर्ष को गहरे और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है।
यह पोस्ट निराला के जीवन के अंतिम वर्षों में लिखा गया एक अनोखा और ध्वन्यात्मक गीत प्रस्तुत करता है, जो उनकी मृत्यु के बाद "सान्ध्य काकली" में संकलित हुआ। यह गीत पारंपरिक ध्रुपद गायन की शैली के समान शब्दों के उलटफेर और पुनरावृत्ति से भरा है, जिसे रामविलास शर्मा ने निराला की "क्लासिकी" संगीत रचना बताया है।
सुन सुन सुन मेरे नन्हे सुन, सुन सुन सुन मेरे मुन्ने सुन, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
सुन सुन सुन मेरी नन्ही सुन, सुन सुन सुन मेरी मुन्नी सुन, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
ख़त्म काली रात हो, रोशनी की बात हो, दोस्ती की बात हो, ज़िन्दगी की बात हो। बात हो इंसान की, बात हो हिन्दुस्तान की, सारा भारत ये कहे – प्यार की गंगा बहे, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
अब ना दुश्मनी पाले, अब ना कोई घर जले, अब नहीं उजड़े सुहाग, अब नहीं फैले ये आग। अब ना हों बच्चे अनाथ, अब ना हो नफ़रत की घाट, सारा भारत ये कहे – प्यार की गंगा बहे, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
सारे बच्चे बच्चियाँ, सारे बूढ़े और जवाँ, यानि सब हिन्दुस्तान। एक मंज़िल पर मिलें, एक साथ फिर चलें, एक साथ फिर रहें, एक साथ फिर कहें। एक साथ फिर कहें, फिर कहें – प्यार की गंगा बहे, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे, देश में एकता रहे, सारा भारत ये कहे, सारा भारत ये कहे – देश में एकता रहे।
गीत “प्यार की गंगा बहे” 1993 में निर्देशक सुभाष घई ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के आग्रह पर बनाया, जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में साम्प्रदायिक तनाव था। गीतकार जावेद अख्तर और संगीतकार लक्ष्मीकांत–प्यारेलाल ने इसे रचा। इसमें बॉलीवुड सितारे सलमान खान, आमिर खान, अनिल कपूर, गोविंदा, जैकी श्रॉफ, ऋषि कपूर, नसीरुद्दीन शाह तथा दक्षिण और क्षेत्रीय सितारे रजनीकांत, मम्मूटी, चिरंजीवी, प्रसेंजीत, सचिन पिलगांवकर आदि शामिल हुए। सभी कलाकारों ने बिना पारिश्रमिक भाग लेकर अपने बच्चों को भी इसमें शामिल किया। गीत का उद्देश्य था देश में प्रेम, भाईचारा और एकता का संदेश फैलाना।
इस गीत का मतलब है कि देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की धुन हर तरफ बज रही है, जो सभी को जोड़ती है और आगे बढ़ने की ताकत देती है। इसमें भारत के मशहूर गायक, वादक और नर्तकी देश की मुख्य परंपरागत कलाओं का सुंदर प्रदर्शन करते हैं। राग जो कि शास्त्रीय संगीत की आत्मा है, के साथ तबला, संतूर, सरोद, सितार, कथक, भरतनाट्यम, मणिपुरी और ओड़िसी जैसे कई नृत्य और संगीत शैलियाँ इस वीडियो में एक ही संगति में भारत की एकता और खूबसूरती को दर्शाती हैं।
उस शहर में मत जाओ जहाँ तुम्हारा बचपन गुज़रा अब वो वैसा नहीं मिलेगा जिस घर में तुम किराएदार थे वहाँ कोई और होगा तुम उजबक की तरह खपरैल वाले उस घर के दरवाजे पर खड़े होगे और कोई तुम्हें पहचान नहीं पाएगा !
आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।
अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना थोड़ा मेहनत का काम बड़े पावर प्लांट का विरोध करना एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए ट्रैक्टर की शिकायत जानलेवा है।
स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं भले ही वे कविता में हों या जीवन में।
एक दिन बंदरों ने हथिया ली सत्ता उंगलियों में सोने की अंगूठी ठूंस ली सफ़ेद कलफ़दार क़मीज़ें पहनीं सुगंधित हवाना सिगार का कश लगाया अपने पांव में डाले चमाचम काले जूते!
हमें पता ही न चला, क्योंकि हम दूसरे कामों में व्यस्त थे कोई अरस्तू पढ़ता रहा, तो कोई आकंठ प्यार में डूबा हुआ था शासकों के भाषण ऊटपटांग होने लगे गपड़-सपड़, लेकिन हमने कभी इन्हें ध्यान से सुना ही नहीं हमें संगीत ज़्यादा पसंद था युद्ध अधिक वहशी होने लगे जेलख़ाने पहले से और गंदे हो गये तब जाकर लगा कि शासन सचमुच बंदरों के हाथ में है!
ना नर में कोई राम बचा, नारी में ना कोई सीता है ! ना धरा बचाने के खातिर, विष कोई शंकर पीता है !!
ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का, किसी में ज्ञान बचा है! ना हरिश्चंद्र सा सत्य, किसी के अंदर रचा बसा है !!
न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा, न नानक जी सा परम त्याग ! बस नाच रही है नर के भीतर प्रतिशोध की कुटिल आग !!
फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का, क्या अंश बाकि तुम में ! कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो, तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
तुम भीष्म पितामह की भांति, अपने ही जिद पर अड़े रहे ! तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे, तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!
एक दुर्योधन फिर, सत्ता के लिए युद्ध में जाता है ! कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर थोड़ा धर्म जगाता है !!
फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की चिंगारी से आग लगाकर! चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है, तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
एक कविता पढ़ रहा था लम्बी न थी शब्दों को सोचता हुआ मन जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करता रहा आँख उठाकर देखा : पहर बीत चला था एक कविता और इतना समय? अरे भोले! एक उम्र गँवा दी थी कवि ने इन शब्दों तक पहुँचने के लिए