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20 दिसंबर 2024

किराए का घर

किराए का घर बदलने पर
सिर्फ़ एक किराए का घर नहीं छूटता
उसके साथ एक किराने की दुकान भी छूट जाती है

कुछ भले पड़ोसी छूट जाते हैं
कुछ पेड़
कुछ पखेरू
एक सब्ज़ी की दुकान भी छूट जाती है
उन्हीं के पास

छूट जाते हैं
चाय के अड्डे
वहाँ की धूप-हवा-पानी
कुछ ठेले और खोमचे
वहीं छूट जाते हैं
जिन सड़कों पर सुबह-शाम चलते थे
अचानक उनका साथ छूट जाता है

हमारे लिए एक साथ कितना कुछ छूट जाता है
और उन सबके लिए
बस एक अकेला मैं छूटता होऊँगा

--- संदीप तिवारी

6 दिसंबर 2024

अयोध्या, 1992

हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर - लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है।
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है!
हे राम, कहाँ यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहाँ यह नेता-युग!
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण - किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक...
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!

23 नवंबर 2024

हज़ारों कांटों से

हज़ारों कांटों से दामन बचा लिया मैंने,
अना को मार के सब कुछ बचा लिया मैंने!!

कहीं भी जाऊँ नज़र में हूँ इक ज़माने की,
ये कैसा ख़ुद को तमाशा बना लिया मैंने!!

अज़ीम थे ये दुआओं को उठने वाले हाथ,
न जाने कब इन्हें कासा बना लिया मैंने!!

अंधेरे बीच में आ जाते इससे पहले ही,
दिया तुम्हारे दिये से जला लिया मैंने!!

मुझे जुनून था हीरा तराशने का तो फिर,
कोई भी राह का पत्थर उठा लिया मैंने!!

जले तो हाथ मगर हाँ हवा के हमलों से,
किसी चराग़ की लौ को बचा लिया मैंने!!

17 नवंबर 2024

पत्रकारिता का सेल्फ़ीकरण

कई बार सोचता हूँ
बिलकुल सही समय पर
मर गए पत्रकारिता के पुरोधा,
नहीं रहे तिलक और गांधी,
नहीं रहे बाबूराव विष्णु पराड़कर
गणेश शंकर विद्यार्थी भी
हो गए शहीद
राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी
का भी हो गया अवसान।
आज ये ज़िंदा होते तो
खुद पर ही शर्मिन्दा होते
पत्रकारिता की झुकी कमर
और लिजलिजी काया देख कर
शोक मनाते
शायद जीते जी मर जाते
सुना है कि दिल्ली में
'सेल्फिश' पत्रकारिता अब
'सेल्फ़ी ' तक आ गयी है
हमारी खुदगर्ज़ी
हमको ही खा गयी है''

14 नवंबर 2024

ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें!

किसान के बच्चों ने
किताब का पहला पन्ना
खोला
देर तक किताबों में ढूँढ़ा
अपने पिता को

मिस्त्री का बच्चा
ढूँढ़ता रहा
मिस्त्री किताबों में
दुनिया के सबसे बड़े महलों
मीनारों का इतिहास
पढ़ता हुआ

घस्यारिन के बच्चे
घस्यारिने ढूँढ़ते रहे
पहाड़ों के बारे में पढ़ते हुए
किताबों में

नाई की बच्ची
ढूँढ़ती रही
क़ैंची से निकलती
गौरैया-सी आवाज़ के साथ

अपने पिता को
किताबों में
सफ़ाईकर्मी
का बच्चा ढूँढ़ता रहा

एक साफ़-सुथरी बात
कि उसका पिता क्यों नहीं है किताबों में
कौन इन्हें बताए
यह दुनिया केवल
डॉक्टर, इंजीनियर, मास्टर, प्रोफ़ेसरों की है
तहसीलदार, ज़िलाधीशों की है
इसमें मजूरों, किसानों,
नाई और घस्यारिनों की कोई जगह नहीं

मेरे प्यारे बच्चो,
ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें!

- अनिल कार्की

2 नवंबर 2024

चाँदनी की पाँच परतें

चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

एक जल में,
एक थल में,
एक नीलाकाश में ।
एक आँखों में तुम्हारे झिलमिलाती,
एक मेरे बन रहे विश्वास में ।

क्या कहूँ , कैसे कहूँ.....
कितनी ज़रा सी बात है ।
चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

एक जो मैं आज हूँ,
एक जो मैं हो न पाया,
एक जो मैं हो न पाऊँगा कभी भी,
एक जो होने नहीं दोगी मुझे तुम,
एक जिसकी है हमारे बीच यह अभिशप्त छाया ।

क्यों सहूँ, कब तक सहूँ....
कितना कठिन आघात है ।
चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

15 अक्टूबर 2024

लीक पर वे चलें

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रहा है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।

शेष जो भी हैं—
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मंडली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यंत्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के सहारे हैं।

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

--- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

26 सितंबर 2024

पेट की आग बुझाने का सबब कर रहे हैं

पेट की आग बुझाने का सबब कर रहे हैं
इस ज़माने के कई मीर मतब कर रहे हैं

कोई हमदर्द भरे शहर में बाक़ी हो तो हो
इस कड़े वक़्त में गुमराह तो सब कर रहे हैं

कहीं ख़तरे में न पड़ जाए बुज़ुर्गी अपनी
लोग इस ख़ौफ़ से छोटों का अदब कर रहे हैं

सब लिफ़ाफ़े की हुसूली के लिए हो रहा है
हम जो ये शग़्ल जो ये कार-ए-अदब कर रहे हैं

हर कोई जान हथेली पे लिए फिर रहा है
इन दिनों वो लब-ओ-रुख़्सार ग़ज़ब कर रहे हैं

--- शकील जमाली

19 सितंबर 2024

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों.

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे ।

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाईऔर हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर
जो बात-बात में बात करे लाठी-डंडे की
कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
महुआ का लट और खजूर का गुड़
ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
मेला हाट जाते-जाते
मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!

- निर्मला पुतुल

12 सितंबर 2024

|| कविताएँ देशहित में नहीं होतीं ||

कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
जैसे
हवाएँ नेत्रहित में नहीं होतीं
वही उकसाती हैं रेतकणों को
उछलकर किरकिरी बन जाने के लिए
वैसे ही
कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
वही बताती हैं कि सीमाएँ क़ैद करती हैं
इंसान को
इस तरफ़ भी और उस तरफ़ भी
देती हैं इल्म
कि क्या रहम है और क्या ज़ुल्म
बताइए साँप को
ज़हर मारने की दवा भाएगी क्या!

--- विवेक आसरी

5 सितंबर 2024

बुख़ार में कविता

'मंच पर खड़े होकर
कुछ बेवक़ूफ़ चीख़ रहे हैं
कवि से
आशा करता है
सारा देश।
मूर्खों! देश को खोकर ही
मैंने प्राप्त की थी
यह कविता...'

~ श्रीकान्त वर्मा
_________________
{'बुख़ार में कविता' से}

27 अगस्त 2024

15 बेहतरीन शेर - 12 !!!

1. कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आँकिए, असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है.
    जिस शहर में मुंतज़िम अंधे हों जल्वागाह के, उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है. 
    - अदम गोंडवी

2. अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं, अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
    और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं, अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं
    - मुईन अह्सन जज़्बी

3- मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है, 
    कि हरकत तेज़-तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता - मुनीर नियाज़ी

4- तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था, 
    उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था हबीब जालिब

3. शाम-ए-फ़िराक़ अब ना पूछ, आई और आ के टल गई | 
    दिल था कि फिर बहल गया , जां थी कि फिर संभल गई...!!! - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

4. शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूं , फ़रिश्तों अब तो सोने दो, 
 
    कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता - आहिस्ता...!!! - अमीर मीनाई

5. वही कारवाँ,वही रास्ते, वही ज़िंदगी, वही मरहले,  
 
    मगर अपने अपने मक़ाम पर, कभी तुम नहीं,कभी हम नहीं - शकील बदायूनी

6. जहाँ हर सिंगार फ़ुज़ूल हों जहाँ उगते सिर्फ़ बबूल हों,  
    जहाँ ज़र्द रंग हो घास का वहाँ क्यूँ न शक हो बहार पर  ~ विकास शर्मा राज़

7. वो तुझ को भूलें हैं तो तुझ पे भी लाज़िम है मीर,
    ख़ाक डाल. आग लगा. नाम न ले. याद न कर ! - मीर तक़ी मीर

8. गुलशन-ए-फ़िरदौस पर क्या नाज़ है रिज़वां तुझे, 
    पूछ उस के दिल से जो है रुत्बा-दान-ए-लखनऊ ! - नज़्म तबातबाई

9. इस दर्जा होशियार तो पहले कभी न थे, 
    अब क्यों क़दम क़दम पे संभलने लगे हैं हम ! - वाली आसी

10. 'रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात,  
       जितना ऊँचा आदमी, उतनी नीची बात।' - अंसार कम्बरी

11. बेगुनाही जुर्म था अपना, सो इस कोशिश में हूं,  
       सुर्ख़-रू मैं भी रहूं, क़ातिल भी शर्मिंदा न हो ! - सुरूर बाराबंकवी

12- इलेक्शन तक गरीबों का वो हुजरा देखते हैं, 
       हुकूमत मिल गई तो सिर्फ "मुजरा" देखते हैं। ~उस्मान मीनाई

13- है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है, 
    कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है ~ बशीर बद्र

14- हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए, 
       बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए - अकबर इलाहाबादी

15-  जो मैं सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा, 
        तिरा दिल तो है सनम-आश्ना  तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में - अल्लामा इक़बाल

15 अगस्त 2024

एक ईमानदार दुनिया के लिए

तुम्हें तो कुछ भी याद नहीं होगा
किसी का नाम-गाम
संघर्ष, अपमान, लात-घूँसे
यातना के दिन
सपने, स्वाधीनता और जय-जयकार

कुछ भी तो याद नहीं होगा तुम्हें
सिर्फ़ बड़े हो गए हो
रोशनी में चलते हुए
पूरे मुँह पर अँधेरे की उदासी लेकर
हर क़दम पर
संशय, कड़वाहट और बीमार दिनों को गिनते

देखता हूँ तुम्हारे कपड़े फट गए हैं
देखता हूँ पिता का पुराना मफ़लर
जगह-जगह रफ़ू किया है
गले में डाल कर तुम बड़े हो गए हो
धक्के खाते हुए
शाम होते ही तुम्हें घर पहुँचना है

तुम्हें याद नहीं होगा
बाज़ार रोशनी से लक-दक है
सिर्फ़ तुम्हीं हो
छुट्टी के दिन का मातम मनाते हुए
बड़े होते हुए
पच्चीस वर्ष पहले की तुम्हें याद नहीं होगी
जूते नीचे से फट गए हैं
इसकी भी याद नहीं होगी तुम्हें
इन इमारतों पर
इतना चटकदार रंग हो गया है इन दिनों
तुम्हारी उम्र के लड़के
दफ़्तर की सीढ़ियों पर
एक बेरहम आदमी की प्रतीक्षा में बैठे हैं
शाम के मटमैले सूरज की रोशनी में

उम्र बीतती है
दुःख के आर-पार
लंबी दौड़ और एक उत्साह रहित
मैदान की तरफ़ देखते हुए

एक फ़ैसला अपने मन में करो
वर्षा में चलो
या कि जेठ-बैसाख में
वर्ष स्मृतिहीन, शब्दहीन
गुज़रें या कि पल
चलो और फ़ैसला करो
इस तरह कुछ भी न बीते
न बीते यह अनुर्वरा दिन, उम्र
इसका फ़ैसला करो

तुम्हें याद नहीं होगा
इतिहास के मलबे पर
उन बेशुमार, आततायी, बर्बर लोगों के चेहरे
क्लीव बुद्धिजीवी, निठ्ठले पंडित
लालची कठमुल्ले, मौलवी
हारी हुई बाज़ी के प्यादे

फ़ैसला करो
इस नर्क के दरवाज़े पर...

9 अगस्त 2024

घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे :

घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे :
समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे :
अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे।
 
मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधता, स्वप्न, खो के,
और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके।
 
प्रकृति औ' पाखंड के ये घने लिपटे
बँटे, ऐंठे तार—
जिनसे कहीं गहरा, कहीं सच्चा,
मैं समझता—प्यार,
मेरी अमरता की नहीं देंगे ये दुहाई,
छीन लेगा इन्हें हमसे देह-सा संसार।
 
राख-सी साँझ, बुझे दिन की घिर जाएगी :
वही रोज़ संसृति का अपव्यय दुहराएगी।

3 अगस्त 2024

15 बेहतरीन शेर - 11 !!!

1- लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है, उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी - फ़िराक़ गोरखपुरी

2- माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं,  तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख - अल्लामा इक़बाल

3- शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं - वसीम बरेलवी

4-  किया तबाह तो दिल्ली ने भी बहुत 'बिस्मिल', मगर ख़ुदा की क़सम लखनऊ ने लूट लिया - बिस्मिल सईदी

5- यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है,  हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है - मंज़ूर हाशमी

6- ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना,  पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना - मेराज फ़ैज़ाबादी

7- मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर, मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता - रियाज़ ख़ैराबादी

8- कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे, हर ज़माने में शहादत के यही अस्बाब थे - हसन नईम

9-  इंक़िलाबों की घड़ी है,  हर नहीं हाँ से बड़ी है - जाँ निसार अख़्तर

10- झुक कर सलाम करने में क्या हर्ज है मगर,  सर इतना मत झुकाओ कि दस्तार गिर पड़े - इक़बाल अज़ीम

11- साया है कम खजूर के ऊँचे दरख़्त का, उम्मीद बाँधिए न बड़े आदमी के साथ - कैफ़ भोपाली

12 - शाख़ें रहीं तो फूल भी पत्ते भी आएँगे, ये दिन अगर बुरे हैं तो अच्छे भी आएँगे - अज्ञात

13-  सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं,  जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं - सुदर्शन फ़ाकिर

14-  छोड़ा नहीं ख़ुदी को दौड़े ख़ुदा के पीछे, आसाँ को छोड़ बंदे मुश्किल को ढूँडते हैं - अब्दुल हमीद अदम

15- इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ,  जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से - साहिर लुधियानवी

27 जुलाई 2024

एक आँख वाला इतिहास

मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा--
रंग में काला और धुन में कठोर ।

मैंने उस हाथ की आत्मा देखी--
साँवली और कोमल
और कथा-कहानियों से भरपूर !

मैंने पत्थरों में खिंचा
सन्नाटा देखा ।
जिसे संस्कृति कहते हैं ।

मैंने एक आँख वाला
इतिहास देखा
जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं ।

--- दूधनाथ सिंह

20 जुलाई 2024

तुम बंजर हो जाओगे

तुम बंजर हो जाओगे
यदि इतने व्यवस्थित ढंग से रहोगे
यदि इतने सोच समझकर
बोलोगे चलोगे
कभी मन की नहीं कहोगे
सच को दबाकर झूठे प्रेम के गाने गाओगे
तो मैं तुमसे कहता हूँ
तुम बंजर हो जाओगे.

~ भवानीप्रसाद मिश्र

12 जुलाई 2024

कैसे बताऊं मैं

कैसे बताऊं मैं तुम्हें 
मेरे लिए तुम कौन हो 
कैसे बताऊं
कैसे बताऊं मैं 
तुम धड़कनों का गीत हो 
जीवन का तुम संगीत हो

तुम ज़िंदगी तुम बंदगी तुम रोशनी तुम ताज़गी
तुम हर खुशी तुम प्यार हो तुम प्रीत हो मनमीत हो
आँखों में तुम यादों में तुम साँसों में तुम आहों में तुम
नींदों में तुम ख्वाबों में तुम
तुम हो मेरी हर बात में तुम हो मेरे दिन रात में
तुम सुबह में तुम शाम में तुम सोच में तुम काम में
मेरे लिए पाना भी तुम मेरे लिए खोना भी तुम
मेरे लिए हँसना भी तुम मेरे लिए रोना भी तुम
और जागना सोना भी तुम
जाऊं कहीं देखूं कहीं तुम हो वहां तुम हो वहीं
कैसे बताऊं मैं …

ये जो तुम्हारा रूप है ये ज़िंदगी की धूप है
चन्दन से तरशा है बदन बहती है जिसमें इक अगन
ये शोखियां ये मस्तियां तुमको हवाओं से मिलीं
ज़ुल्फ़ें घटाओं से मिलीं
होंठों में कलियां खिल गईं आँखों को झीलें मिल गईं
चेहरे में सिमटी चाँदनी आवाज़ में है रागिनी
शीशे के जैसा अंग है फूलों के जैसा रंग है
नदियों के जैसी चाल है क्‌या हुस्न है क्‌या हाल है
ये जिस्म की रंगीनियां जैसे हज़ारों तितलियां
बाहों की ये गोलाइयां आँचल में ये परछाइयाँ
ये नगरिया है ख्वाब की
कैसे बताऊं मैं तुम्हें हालत दिल-ए-बेताब की
कैसे बताऊं मैं …

कैसे बताऊं मैं तुम्हें मेरे लिए तुम धर्म हो
मेरे लिए ईमान हो तुम्हीं इबादत हो मेरी
तुम्हीं तो चाहत हो मेरी तुम्हीं मेरा अरमान हो
तकता हूँ मैं हर पल जिसे तुम्हीं तो वो तस्वीर हो
तुम्हीं मेरी तक़दीर हो
तुम्हीं सितारा हो मेरा तुम्हीं नज़ारा हो मेरा
यूं ध्यान में मेरे हो तुम जैसे मुझे घेरे हो तुम
पूरब में तुम पश्चिम में तुम उत्तर में तुम दक्षिण में तुम
सारे मेरे जीवन में तुम हर पल में तुम हर क्षण में तुम
मेरे लिए रस्ता भी तुम मेरे लिए मंज़िल भी तुम
मेरे लिए सागर भी तुम मेरे लिए साहिल भी तुम
मैं देखता बस तुमको हूँ मैं सोचता बस तुमको हूँ
मैं जानता बस तुमको हूँ मैं मानता बस तुमको हूँ
तुम्हीं मेरी पहचान हो
कैसे बनाऊं मैं तुम्हें देवी हो तुम मेरे लिए
मेरे लिए भगवान हो

कैसे बताऊं मैं …

--- जावेद अख्तर

5 जून 2024

15 बेहतरीन शेर - 10 !!!

1.  एक बार तो यूँ होगा, थोड़ा सा सुकूं होगा, न दिल में कसक होगी, न सर में जुनूँ होगा. - गुलज़ार  

2. मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त, आह! अब मुझसे तेरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं - फ़िराक़ गोरखपुरी

3. शिकवा समुनदरों का कोई किस तरह करे, साहिल भी ख़ुद नहीं थे सफ़ीनों के ख़ैर-ख़्वाह

4. निगाह पड़ने न पाए यतीम बच्चों की, ज़रा छुपा के खिलौने दुकान में रखना - महबूब ज़फ़र

5. दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे, जो रंज की घड़ी भी ख़ुशी से गुज़ार दे - दाग़ देहलवी

6. कभी चराग़, कभी तीरगी से हार गये, जो बे-शऊर थे वे हर किसी से हार गये...!!! - अनवर जलालपुरी

7- फ़ितूर होता है हर उम्र में जुदा-जुदा, खिलौना, माशूक़ा, रूतबा, ख़ुदा...!!!

8- तिरी मौजूदगी में तेरी दुनिया कौन देखेगा, तुझे मेले में सब देखेंगे मेला कौन देखेगा -नज़ीर बनारसी
 
9- एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है, तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना. - मुनव्वर राणा

10 - तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे, मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गए ~ मुनव्वर राना

11- चाह लेते या मुकम्मल ही किनारा करते, अपने हिस्से का कोई काम तो सारा करते - उमैना यूसफ़

12- वाइज़ को जो आदत है पेचीदा-बयानी की, हैरां है कि रिंदों की हर बात खरी क्यों है ! - असद मुल्तानी

13-  मेरे इश्क से मिली तेरे हुस्न को ये शोहरत, तेरा ज़िक्र ही कहाँ था मेरी दास्तान से पहले ! - जाकिर खान

14-  अज़ीम लोग थे टूटे तो इक वक़ार के साथ, किसी से कुछ न कहा बस उदास रहने लगे - इक़बाल अशहर

15- एक बार हम भी रहनुमा बन के देख लें,  फिर उसके बाद क़ौम का जो कुछ भी हाल हो...!!! - दिलावर फ़िग़ार

10 मई 2024

एक आदमी इस मुल्क में

एक आदमी इस मुल्क में
अपने हर सम्भव प्रतिपक्ष का
उपहास और
अपमान करता हुआ
घूम रहा है

उसे किसी सवाल का
जवाब नहीं देना
बल्कि उसकी हँसी में
यह हिक़ारत है
कि प्रश्न करने की
ज़रूरत और हिम्मत
अभी बाक़ी है

लोग ताली बजा रहे हैं
क्योंकि जो वे स्वयं
करते हैं ज़िन्दगी में
उसका वह
सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि है

समाज में बहस की
ताब नहीं रह गई

विद्वेष और हिंसा ने उसे
विस्थापित कर दिया है

― पंकज चतुर्वेदी ("काजू की रोटी" कविता संग्रह)