We didn’t go to the stage,
nor were we called.
With a wave of the hand
we were shown our place.
There we sat
and were congratulated,
and “they”, standing on the stage,
kept on telling us of our sorrows.
Our sorrows remained ours,
they never became theirs.
When we whispered out doubts
they perked their ears to listen,
and sighing,
tweaking our ears,
told us to shut up,
apologize; or else...
--Waharu Sonavane; translated by Bharat Patankar, Gail Omvedt, and Suhas Paranjape
Jun 14, 2013
Jun 7, 2013
कहा था किसने के अहदे-वफ़ा करो उससे
कहा था किसने के अहदे-वफ़ा करो उससे
जो यूं किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे
ये अह्ले-बाज़ तुनक हौसला सही फिर भी
ज़रा फ़साना-ए-दिल इब्तिदा करो उससे
ये क्या के तुम ही गमे -हिज्र के फ़साने कहो
कभी तो बहाने सुना करो उस से
नसीब फिर कोई तकरीब-ए-कुर्ब हो के न हो
जो दिल में हो यही बातें किया करो उससे
फ़राज़ तर्के -ताल्लुक तो खैर क्या होगा
यही बहुत है के कम-कम मिला करो उससे|
---: अहमद फराज़
जो यूं किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे
ये अह्ले-बाज़ तुनक हौसला सही फिर भी
ज़रा फ़साना-ए-दिल इब्तिदा करो उससे
ये क्या के तुम ही गमे -हिज्र के फ़साने कहो
कभी तो बहाने सुना करो उस से
नसीब फिर कोई तकरीब-ए-कुर्ब हो के न हो
जो दिल में हो यही बातें किया करो उससे
फ़राज़ तर्के -ताल्लुक तो खैर क्या होगा
यही बहुत है के कम-कम मिला करो उससे|
---: अहमद फराज़
Jun 5, 2013
मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।
तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने आ जकड़ी है।
तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब जाल-पूरती मकड़ी है।
तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल पात-चबाती बकरी है।
---कुँअर बेचैन
कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।
तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने आ जकड़ी है।
तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब जाल-पूरती मकड़ी है।
तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल पात-चबाती बकरी है।
---कुँअर बेचैन
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