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August 4, 2025

उस शहर में मत जाओ

उस शहर में मत जाओ
जहाँ तुम्हारा बचपन गुज़रा
अब वो वैसा नहीं मिलेगा
जिस घर में तुम किराएदार थे
वहाँ कोई और होगा
तुम उजबक की तरह
खपरैल वाले उस घर के दरवाजे पर खड़े होगे और
कोई तुम्हें पहचान नहीं पाएगा !

— विनय सौरभ

August 1, 2025

स्थानीयता के संघर्ष

आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना
मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल
विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है
लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।

अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है
हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना
थोड़ा मेहनत का काम
बड़े पावर प्लांट का विरोध करना
एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं
लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए
ट्रैक्टर की शिकायत जानलेवा है।

स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं
भले ही वे कविता में हों या जीवन में।

--- प्रदीप सैनी

July 9, 2025

शासन सचमुच बंदरों के हाथ में है!

एक दिन बंदरों ने हथिया ली सत्ता
उंगलियों में सोने की अंगूठी ठूंस ली
सफ़ेद कलफ़दार क़मीज़ें पहनीं
सुगंधित हवाना सिगार का कश लगाया
अपने पांव में डाले चमाचम काले जूते!

हमें पता ही न चला, क्योंकि हम दूसरे कामों में व्यस्त थे
कोई अरस्तू पढ़ता रहा, तो कोई आकंठ प्यार में डूबा हुआ था
शासकों के भाषण ऊटपटांग होने लगे
गपड़-सपड़, लेकिन हमने कभी इन्हें ध्यान से सुना ही नहीं
हमें संगीत ज़्यादा पसंद था
युद्ध अधिक वहशी होने लगे
जेलख़ाने पहले से और गंदे हो गये
तब जाकर लगा कि शासन सचमुच बंदरों के हाथ में है!

- आदम ज़गायेव्स्की 

June 23, 2025

रद्दी

एकदा रेशन संपल्यावर
घरातली रद्दी विकायला काढली
तेव्हा तू हसत म्हणालीस,
तुमच्या कवितांचे कागद
यात घालू का ?
तेवढंच वजन वाढेल !

मी उत्तरलो, जे काम काळ उद्या करणार आहे
ते तू आज करू नकोस.
तुझ्या डोळ्यांत अनपेक्षित आसवं तरारली
आणि तू म्हणालीस,
मी तर नाहीच,
पण काळही ते करणार नाही

- कुसुमाग्रज

रद्दी

एक दफा, 
जब राशन खत्म हुआ था तो 
रद्दी निकाली थी घर से
 कि बेच आएँ! 
हँस के कहा था तू ने तब
कहो तुम्हारी नज़्में भी, डाल दूँ उन में? 
उन से वज़न बढ़ जाएगा।

मैंने कहा था :
"कल जो वक़्त करेगा, 
वो मत आज करो!" 
आँखे भर आई थीं तेरी ! 
और कहा थाः
"मैं तो क्या.... 
वो वक़्त भी न कर पाएगा!!"

अनुवादगुलजार

June 16, 2025

15 बेहतरीन शेर - 16 !!!

1. चराग़ों के बदले मकाँ जल रहे हैं नया है ज़माना नई रौशनी है - खुमार बाराबंकवी

2. ये अलग बात है कि ख़ामोश खड़े रहते हैं, फिर भी जो लोग बड़े हैं, वो बड़े रहते हैं ~राहत इंदौरी

3. पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला, मैं मोम हूँ उस ने मुझे छू कर नहीं देखा -बशीर बद्र

4. और क्या था बेचने के लिए, अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं। -जौन एलिया

5. फ़क़ीराना आए सदा कर चले, मियाँ ख़ुश रहो दुआ कर चले - मीर तकि मीर

6. बाग़बाँ दिल से वतन को ये दुआ देता है, मैं रहूँ या न रहूँ ये चमन आबाद रहे। - बृजनारायण चकबस्त

7. उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें, हमारी उम्र का एक और दिन तमाम हुआ - अख़्तरुल ईमान

8. हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और - मिर्ज़ा ग़ालिब

9. मैं इन दिनों हूँ ख़ुद से इतना बेख़बर, मैं बुझ चुका हूँ और मुझे पता नहीं -तहज़ीब हाफ़ी

10. वादा-ए-यार की बात न छेड़ो, ये धोखा भी खा रक्खा है. - नासिर काज़मी

11. कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम, कह दिया तू ने गुनहगार गुनहगार हैं हम - फ़िराक़ गोरखपुरी

12. ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ, हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते - उम्मीद फ़ाज़ली

13. कौन सीखा है सिर्फ बातों से सबको एक हादसा ज़रूरी है - जौन एलिया

14. रात ही रात में तमाम तय हुए उम्र के मक़ाम, हो गई ज़िंदगी की शाम अब मैं सहर को क्या करूं - हफ़ीज़ जालंधरी

15. फ़ारेहा क्या बहुत जरूरी है हर किसी शेरसाज़ को पढ़ना, मेरे ग़ुस्से के बाद भी तुमने नहीं छोड़ा मजाज़ को पढ़ना -जौन एलिया

June 8, 2025

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए
वक्त रुकता नहीं किसी के लिए

दिल को अपने सज़ा न दे यूँ ही
इस ज़माने की बेरुखी के लिए

कल जवानी का हश्र क्या होगा
सोच ले आज दो घड़ी के लिए

हर कोई प्यार ढूंढता है यहाँ
अपनी तनहा सी ज़िन्दगी के लिए

वक्त के साथ साथ चलता रहे
यही बेहतर है आदमी के लिए

May 22, 2025

जंगल जंगल बात चली है (Jungle Book) (Old Doordarshan Serial Title Song)

जंगल जंगल बात चली है
पता चला है.. 
जंगल जंगल बात चली है। 
पता चला है..

अरे चड्डी पहन के फूल खिला है
फूल खिला है 
अरे चड्डी पहन के फूल खिला हैं 
फूल खिला है

जंगल जंगल पता चला है, 
चड्डी पहन के फूल खिला है 
जंगल जंगल पता चला है, 
चड्डी पहन के फूल खिला है

एक परिंदा है शर्मिंदा, 
था वो नंगा
भाई इससे तो अंडे के अंदर, 
था वो चंगा

सोच रहा है 
बाहर आखिर क्यों निकला है 
अरे चड्डी पहन के फूल खिला है 
फूल खिला है


 

April 30, 2025

Gullak (गुल्लक) Theme Song

कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी

कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी
थोड़ी अकड़ी थी, थोड़ी जकड़ी थी
पर लपक के हमने पकड़ी थी

थोड़ी गीली थी, थोड़ी dry थी
कभी low सी थी, कभी high थी
घुल जाए तो इलायची
घिस जाती तो अदरक थी

ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी गुल्लक सी

बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला
बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला

हाँ, ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी
छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी
ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी

छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी 
बातों की दातुन से चलती
Unlimited WiFi थी
फ़ुरसत का petrol पड़ा के

Slowly, slowly भगाई थी
हम सब के हिस्से आई थी
हम सब ने गले लगाई थी
एक चम्मच थी, पर too much थी

ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी, गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
ज़िंदगी गुल्लक सी

April 25, 2025

ना नर में कोई राम बचा

ना नर में कोई राम बचा,
नारी में ना कोई सीता है !
ना धरा बचाने के खातिर,
विष कोई शंकर पीता है !!

ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,
किसी में ज्ञान बचा है!
ना हरिश्चंद्र सा सत्य,
किसी के अंदर रचा बसा है !!

न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,
न नानक जी सा परम त्याग !
बस नाच रही है नर के भीतर
प्रतिशोध की कुटिल आग !!

फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,
क्या अंश बाकि तुम में !
कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…

तुम भीष्म पितामह की भांति,
अपने ही जिद पर अड़े रहे !
तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,
तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!

एक दुर्योधन फिर,
सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !
कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर
थोड़ा धर्म जगाता है !!

फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की
चिंगारी से आग लगाकर!
चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…

--- शुभम शाम

 

April 15, 2025

एक कविता पढ़ रहा था

एक कविता पढ़ रहा था
लम्बी न थी
शब्दों को सोचता हुआ
मन जाने कहाँ-कहाँ की
यात्राएँ करता रहा
आँख उठाकर देखा :
पहर बीत चला था
एक कविता और इतना समय?
अरे भोले!
एक उम्र गँवा दी थी कवि ने
इन शब्दों तक
पहुँचने के लिए

---पंकज चतुर्वेदी

April 9, 2025

प्रासादों के कनकाभ शिखर

“प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर वैभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.

चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.

उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.”

--- रामधारी सिंह 'दिनकर'

April 1, 2025

आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

- गोपालप्रसाद व्यास

March 25, 2025

15 बेहतरीन शेर - 14 !!!

1-तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री, तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए - अबुल मुजाहिद ज़ाहिद

2- पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है - मीर तक़ी मीर

3- नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं, ये मोहब्बतों के चराग़ हैं इन्हें नफ़रतों की हवा न दे- बशीर बद्र

4-जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं, ख़ुदा मिलाए उन्हें ज़िंदगी के मारों से - नज़ीर सिद्दीक़ी

5- चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम - सरशार सैलानी

6- ये कोई क़त्ल थोड़ी है कि बात आई-गई हो, मैं और अपना नज़र-अंदाज़ होना भूल जाऊँ? - जव्वाद शेख़

7- अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल, हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया - जिगर मुरादाबादी

8- मैंने गिनती सिखाई थी जिसको, वो पहाड़ा पढ़ा रहा है मुझे। ~ फ़हमी बदायूँनी

9- मिले खाक में नौजवां कैसे कैसे, ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे - प्रेम धवन

10- उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सिर पर , ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ...!!! - अकबर इलाहाबादी

11- साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन, तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है - आल-ए-अहमद सुरूर

12- लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को, मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं - अकबर इलाहाबादी

13-देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख - मजरूह सुल्तानपुरी

14- इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के - मिर्ज़ा ग़ालिब

15- सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें, आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत - बशीर बद्र

March 10, 2025

कपास के फूल

वे देवता को पसंद नहीं
लेकिन आश्चर्य इस पर नहीं
आश्चर्य तो ये है कि कविगण भी
लिखते नहीं कविता कपास के फूल पर
प्रेमीजन भेंट में देते नहीं उसे
कभी एक-दूसरे को
जबकि वह है कि नंगा होने से
बचाता है सबको
और सुतर गया मौसम
तो भूख और प्यास से भी
बचाता है वह

ईश्वर को तो ठंड लगती नहीं
वैसे नंगा होना भी
वहां उतना ही सहज है
उतना ही दिव्य
इसलिए इतना यह है कि ठंड के विरुद्ध
आदमी ने ही खोजा होगा
पृथ्वी पर पहला कपास का फूल

पर पहला झिंगोला
कब पहना उसने
पहले तागे से पहली सुई की
कब हुई थी भेंट
यह भूल गई है हमारी भाषा
जैसे अपनी कमीज़ पहनकर
भूल जाते हैं हम
अपने दर्ज़ी का नाम

पर क्या कभी सोचा है आपने
वह जो आपकी कमीज़ है
किसी खेत में खिला
एक कपास का फूल है
जिसे पहन रखा है आपने

जब फ़ुर्सत मिले
तो कृपया एक बार इस पर सोचें ज़रूर
कि इस पूरी कहानी में सूत से सुई तक
सब कुछ है
पर वह कहां गया
जो इसका शीर्षक था

--- केदारनाथ सिंह
कविता संग्रह: सृष्टि पर पहरा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन


February 22, 2025

डोरेमोन थीम सॉन्ग (Doraemon Theme Song) - हिंदी

ज़िंदगी संवार दूं
इक नई बहार दूं
दुनिया ही बदल दूं मैं तो
प्यारा सा चमत्कार हूं
मैं किसी का सपना हूं
जो आज बन चुका हूं सच
अब ये मेरा सपना है कि
सब के सपने सच मैं करूं
आसमान को छू लूं
तितली बन उड़ूं
(हां... हेलीकॉप्टर)
अन अन अन...

मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन
अन अन अन...

मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन

February 14, 2025

परीक्षाओं में असफल हुए पुरुष

परीक्षाओं में असफल हुए पुरुष
अक्सर प्रेम में भी असफल हो जाते हैं

विवाह की पहली रस्म
पुरुष की आय पूछना होती है
दूसरी पुरुष की आयु
तीसरी पुरुष का आवास
और चौथी, पुरुष का गोत्र

परीक्षाओं में असफल पुरुष
अक्सर गँवा बैठते हैं
आय, आयु, और आवास
परीक्षाएँ देते-देते

असफल पुरुष का
कोई गोत्र नहीं होता
न ही कोई प्रेम कहानी
असफलता उसका अस्तित्व होती है

परीक्षा उसका जीवन
शर्म, उसके हिस्से आये ढाई अक्षर

- अभिषेक शुक्ला

January 26, 2025

तुमने इतिहास पढ़ा

तुमने इतिहास पढ़ा
तुमने सीखा
बर्बरता के खिलाफ़ गूंज करना,
विद्रोह करना

तुमने संविधान पढ़ा
तुमने सीखा- अपने हक़ की मांग करना

तुमने सीखा- अपने अधिकारों हेतु लड़ना

तुमने पढ़ा साहित्य
तुमने सीख लिया दुनिया से प्रेम करना

तुम्हारा किताबें पढ़ना ही
दुनिया की सबसे महान क्रांति है। 

--- अभिषेक पटेल 'नभ'

January 7, 2025

यह हौसला कैसे झुके

यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..

मंजिल मुश्किल तो क्या,
धुधंला साहिल तो क्या,
तन्हा ये दिल तो क्या

राह पे कांटे बिखरे अगर,
उसपे तो फिर भी चलना ही है,
शाम छुपाले सूरज मगर,
रात को एक दिन ढलना ही है,

रुत ये टल जाएगी,
हिम्मत रंग लाएगी,
सुबह फिर आएगी

यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..

होगी हमे तो रहमत अदा,
धूप कटेगी साए तले,
अपनी खुदा से है ये दुआ,
मंजिल लगाले हमको गले

जुर्रत सो बार रहे,
ऊंचा इकरार रहे,
जिंदा हर प्यार रहे

यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..

--- मीर अली हुसेन

December 20, 2024

किराए का घर

किराए का घर बदलने पर
सिर्फ़ एक किराए का घर नहीं छूटता
उसके साथ एक किराने की दुकान भी छूट जाती है

कुछ भले पड़ोसी छूट जाते हैं
कुछ पेड़
कुछ पखेरू
एक सब्ज़ी की दुकान भी छूट जाती है
उन्हीं के पास

छूट जाते हैं
चाय के अड्डे
वहाँ की धूप-हवा-पानी
कुछ ठेले और खोमचे
वहीं छूट जाते हैं
जिन सड़कों पर सुबह-शाम चलते थे
अचानक उनका साथ छूट जाता है

हमारे लिए एक साथ कितना कुछ छूट जाता है
और उन सबके लिए
बस एक अकेला मैं छूटता होऊँगा

--- संदीप तिवारी

December 6, 2024

अयोध्या, 1992

हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर - लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है।
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है!
हे राम, कहाँ यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहाँ यह नेता-युग!
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण - किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक...
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!