Hindi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Hindi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

1 अप्रैल 2025

आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

- गोपालप्रसाद व्यास

25 मार्च 2025

15 बेहतरीन शेर - 14 !!!

1-तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री, तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए - अबुल मुजाहिद ज़ाहिद

2- पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है - मीर तक़ी मीर

3- नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं, ये मोहब्बतों के चराग़ हैं इन्हें नफ़रतों की हवा न दे- बशीर बद्र

4-जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं, ख़ुदा मिलाए उन्हें ज़िंदगी के मारों से - नज़ीर सिद्दीक़ी

5- चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम - सरशार सैलानी

6- ये कोई क़त्ल थोड़ी है कि बात आई-गई हो, मैं और अपना नज़र-अंदाज़ होना भूल जाऊँ? - जव्वाद शेख़

7- अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल, हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया - जिगर मुरादाबादी

8- मैंने गिनती सिखाई थी जिसको, वो पहाड़ा पढ़ा रहा है मुझे। ~ फ़हमी बदायूँनी

9- मिले खाक में नौजवां कैसे कैसे, ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे - प्रेम धवन

10- उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सिर पर , ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ...!!! - अकबर इलाहाबादी

11- साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन, तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है - आल-ए-अहमद सुरूर

12- लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को, मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं - अकबर इलाहाबादी

13-देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख - मजरूह सुल्तानपुरी

14- इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के - मिर्ज़ा ग़ालिब

15- सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें, आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत - बशीर बद्र

10 मार्च 2025

कपास के फूल

वे देवता को पसंद नहीं
लेकिन आश्चर्य इस पर नहीं
आश्चर्य तो ये है कि कविगण भी
लिखते नहीं कविता कपास के फूल पर
प्रेमीजन भेंट में देते नहीं उसे
कभी एक-दूसरे को
जबकि वह है कि नंगा होने से
बचाता है सबको
और सुतर गया मौसम
तो भूख और प्यास से भी
बचाता है वह

ईश्वर को तो ठंड लगती नहीं
वैसे नंगा होना भी
वहां उतना ही सहज है
उतना ही दिव्य
इसलिए इतना यह है कि ठंड के विरुद्ध
आदमी ने ही खोजा होगा
पृथ्वी पर पहला कपास का फूल

पर पहला झिंगोला
कब पहना उसने
पहले तागे से पहली सुई की
कब हुई थी भेंट
यह भूल गई है हमारी भाषा
जैसे अपनी कमीज़ पहनकर
भूल जाते हैं हम
अपने दर्ज़ी का नाम

पर क्या कभी सोचा है आपने
वह जो आपकी कमीज़ है
किसी खेत में खिला
एक कपास का फूल है
जिसे पहन रखा है आपने

जब फ़ुर्सत मिले
तो कृपया एक बार इस पर सोचें ज़रूर
कि इस पूरी कहानी में सूत से सुई तक
सब कुछ है
पर वह कहां गया
जो इसका शीर्षक था

--- केदारनाथ सिंह
कविता संग्रह: सृष्टि पर पहरा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन


22 फ़रवरी 2025

डोरेमोन थीम सॉन्ग (Doraemon Theme Song) - हिंदी

ज़िंदगी संवार दूं
इक नई बहार दूं
दुनिया ही बदल दूं मैं तो
प्यारा सा चमत्कार हूं
मैं किसी का सपना हूं
जो आज बन चुका हूं सच
अब ये मेरा सपना है कि
सब के सपने सच मैं करूं
आसमान को छू लूं
तितली बन उड़ूं
(हां... हेलीकॉप्टर)
अन अन अन...

मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन
अन अन अन...

मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन

14 फ़रवरी 2025

परीक्षाओं में असफल हुए पुरुष

परीक्षाओं में असफल हुए पुरुष
अक्सर प्रेम में भी असफल हो जाते हैं

विवाह की पहली रस्म
पुरुष की आय पूछना होती है
दूसरी पुरुष की आयु
तीसरी पुरुष का आवास
और चौथी, पुरुष का गोत्र

परीक्षाओं में असफल पुरुष
अक्सर गँवा बैठते हैं
आय, आयु, और आवास
परीक्षाएँ देते-देते

असफल पुरुष का
कोई गोत्र नहीं होता
न ही कोई प्रेम कहानी
असफलता उसका अस्तित्व होती है

परीक्षा उसका जीवन
शर्म, उसके हिस्से आये ढाई अक्षर

- अभिषेक शुक्ला

26 जनवरी 2025

तुमने इतिहास पढ़ा

तुमने इतिहास पढ़ा
तुमने सीखा
बर्बरता के खिलाफ़ गूंज करना,
विद्रोह करना

तुमने संविधान पढ़ा
तुमने सीखा- अपने हक़ की मांग करना

तुमने सीखा- अपने अधिकारों हेतु लड़ना

तुमने पढ़ा साहित्य
तुमने सीख लिया दुनिया से प्रेम करना

तुम्हारा किताबें पढ़ना ही
दुनिया की सबसे महान क्रांति है। 

--- अभिषेक पटेल 'नभ'

7 जनवरी 2025

यह हौसला कैसे झुके

यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..

मंजिल मुश्किल तो क्या,
धुधंला साहिल तो क्या,
तन्हा ये दिल तो क्या

राह पे कांटे बिखरे अगर,
उसपे तो फिर भी चलना ही है,
शाम छुपाले सूरज मगर,
रात को एक दिन ढलना ही है,

रुत ये टल जाएगी,
हिम्मत रंग लाएगी,
सुबह फिर आएगी

यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..

होगी हमे तो रहमत अदा,
धूप कटेगी साए तले,
अपनी खुदा से है ये दुआ,
मंजिल लगाले हमको गले

जुर्रत सो बार रहे,
ऊंचा इकरार रहे,
जिंदा हर प्यार रहे

यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..

--- मीर अली हुसेन

20 दिसंबर 2024

किराए का घर

किराए का घर बदलने पर
सिर्फ़ एक किराए का घर नहीं छूटता
उसके साथ एक किराने की दुकान भी छूट जाती है

कुछ भले पड़ोसी छूट जाते हैं
कुछ पेड़
कुछ पखेरू
एक सब्ज़ी की दुकान भी छूट जाती है
उन्हीं के पास

छूट जाते हैं
चाय के अड्डे
वहाँ की धूप-हवा-पानी
कुछ ठेले और खोमचे
वहीं छूट जाते हैं
जिन सड़कों पर सुबह-शाम चलते थे
अचानक उनका साथ छूट जाता है

हमारे लिए एक साथ कितना कुछ छूट जाता है
और उन सबके लिए
बस एक अकेला मैं छूटता होऊँगा

--- संदीप तिवारी

6 दिसंबर 2024

अयोध्या, 1992

हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर - लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है।
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है!
हे राम, कहाँ यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहाँ यह नेता-युग!
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण - किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक...
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!

23 नवंबर 2024

हज़ारों कांटों से

हज़ारों कांटों से दामन बचा लिया मैंने,
अना को मार के सब कुछ बचा लिया मैंने!!

कहीं भी जाऊँ नज़र में हूँ इक ज़माने की,
ये कैसा ख़ुद को तमाशा बना लिया मैंने!!

अज़ीम थे ये दुआओं को उठने वाले हाथ,
न जाने कब इन्हें कासा बना लिया मैंने!!

अंधेरे बीच में आ जाते इससे पहले ही,
दिया तुम्हारे दिये से जला लिया मैंने!!

मुझे जुनून था हीरा तराशने का तो फिर,
कोई भी राह का पत्थर उठा लिया मैंने!!

जले तो हाथ मगर हाँ हवा के हमलों से,
किसी चराग़ की लौ को बचा लिया मैंने!!

17 नवंबर 2024

पत्रकारिता का सेल्फ़ीकरण

कई बार सोचता हूँ
बिलकुल सही समय पर
मर गए पत्रकारिता के पुरोधा,
नहीं रहे तिलक और गांधी,
नहीं रहे बाबूराव विष्णु पराड़कर
गणेश शंकर विद्यार्थी भी
हो गए शहीद
राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी
का भी हो गया अवसान।
आज ये ज़िंदा होते तो
खुद पर ही शर्मिन्दा होते
पत्रकारिता की झुकी कमर
और लिजलिजी काया देख कर
शोक मनाते
शायद जीते जी मर जाते
सुना है कि दिल्ली में
'सेल्फिश' पत्रकारिता अब
'सेल्फ़ी ' तक आ गयी है
हमारी खुदगर्ज़ी
हमको ही खा गयी है''

14 नवंबर 2024

ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें!

किसान के बच्चों ने
किताब का पहला पन्ना
खोला
देर तक किताबों में ढूँढ़ा
अपने पिता को

मिस्त्री का बच्चा
ढूँढ़ता रहा
मिस्त्री किताबों में
दुनिया के सबसे बड़े महलों
मीनारों का इतिहास
पढ़ता हुआ

घस्यारिन के बच्चे
घस्यारिने ढूँढ़ते रहे
पहाड़ों के बारे में पढ़ते हुए
किताबों में

नाई की बच्ची
ढूँढ़ती रही
क़ैंची से निकलती
गौरैया-सी आवाज़ के साथ

अपने पिता को
किताबों में
सफ़ाईकर्मी
का बच्चा ढूँढ़ता रहा

एक साफ़-सुथरी बात
कि उसका पिता क्यों नहीं है किताबों में
कौन इन्हें बताए
यह दुनिया केवल
डॉक्टर, इंजीनियर, मास्टर, प्रोफ़ेसरों की है
तहसीलदार, ज़िलाधीशों की है
इसमें मजूरों, किसानों,
नाई और घस्यारिनों की कोई जगह नहीं

मेरे प्यारे बच्चो,
ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें!

- अनिल कार्की

2 नवंबर 2024

चाँदनी की पाँच परतें

चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

एक जल में,
एक थल में,
एक नीलाकाश में ।
एक आँखों में तुम्हारे झिलमिलाती,
एक मेरे बन रहे विश्वास में ।

क्या कहूँ , कैसे कहूँ.....
कितनी ज़रा सी बात है ।
चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

एक जो मैं आज हूँ,
एक जो मैं हो न पाया,
एक जो मैं हो न पाऊँगा कभी भी,
एक जो होने नहीं दोगी मुझे तुम,
एक जिसकी है हमारे बीच यह अभिशप्त छाया ।

क्यों सहूँ, कब तक सहूँ....
कितना कठिन आघात है ।
चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

15 अक्टूबर 2024

लीक पर वे चलें

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रहा है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।

शेष जो भी हैं—
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मंडली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यंत्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के सहारे हैं।

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

--- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

26 सितंबर 2024

पेट की आग बुझाने का सबब कर रहे हैं

पेट की आग बुझाने का सबब कर रहे हैं
इस ज़माने के कई मीर मतब कर रहे हैं

कोई हमदर्द भरे शहर में बाक़ी हो तो हो
इस कड़े वक़्त में गुमराह तो सब कर रहे हैं

कहीं ख़तरे में न पड़ जाए बुज़ुर्गी अपनी
लोग इस ख़ौफ़ से छोटों का अदब कर रहे हैं

सब लिफ़ाफ़े की हुसूली के लिए हो रहा है
हम जो ये शग़्ल जो ये कार-ए-अदब कर रहे हैं

हर कोई जान हथेली पे लिए फिर रहा है
इन दिनों वो लब-ओ-रुख़्सार ग़ज़ब कर रहे हैं

--- शकील जमाली

19 सितंबर 2024

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों.

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे ।

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाईऔर हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर
जो बात-बात में बात करे लाठी-डंडे की
कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
महुआ का लट और खजूर का गुड़
ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
मेला हाट जाते-जाते
मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!

- निर्मला पुतुल

12 सितंबर 2024

|| कविताएँ देशहित में नहीं होतीं ||

कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
जैसे
हवाएँ नेत्रहित में नहीं होतीं
वही उकसाती हैं रेतकणों को
उछलकर किरकिरी बन जाने के लिए
वैसे ही
कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
वही बताती हैं कि सीमाएँ क़ैद करती हैं
इंसान को
इस तरफ़ भी और उस तरफ़ भी
देती हैं इल्म
कि क्या रहम है और क्या ज़ुल्म
बताइए साँप को
ज़हर मारने की दवा भाएगी क्या!

--- विवेक आसरी

5 सितंबर 2024

बुख़ार में कविता

'मंच पर खड़े होकर
कुछ बेवक़ूफ़ चीख़ रहे हैं
कवि से
आशा करता है
सारा देश।
मूर्खों! देश को खोकर ही
मैंने प्राप्त की थी
यह कविता...'

~ श्रीकान्त वर्मा
_________________
{'बुख़ार में कविता' से}

27 अगस्त 2024

15 बेहतरीन शेर - 12 !!!

1. कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आँकिए, असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है.
    जिस शहर में मुंतज़िम अंधे हों जल्वागाह के, उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है. 
    - अदम गोंडवी

2. अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं, अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
    और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं, अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं
    - मुईन अह्सन जज़्बी

3- मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है, 
    कि हरकत तेज़-तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता - मुनीर नियाज़ी

4- तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था, 
    उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था हबीब जालिब

3. शाम-ए-फ़िराक़ अब ना पूछ, आई और आ के टल गई | 
    दिल था कि फिर बहल गया , जां थी कि फिर संभल गई...!!! - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

4. शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूं , फ़रिश्तों अब तो सोने दो, 
 
    कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता - आहिस्ता...!!! - अमीर मीनाई

5. वही कारवाँ,वही रास्ते, वही ज़िंदगी, वही मरहले,  
 
    मगर अपने अपने मक़ाम पर, कभी तुम नहीं,कभी हम नहीं - शकील बदायूनी

6. जहाँ हर सिंगार फ़ुज़ूल हों जहाँ उगते सिर्फ़ बबूल हों,  
    जहाँ ज़र्द रंग हो घास का वहाँ क्यूँ न शक हो बहार पर  ~ विकास शर्मा राज़

7. वो तुझ को भूलें हैं तो तुझ पे भी लाज़िम है मीर,
    ख़ाक डाल. आग लगा. नाम न ले. याद न कर ! - मीर तक़ी मीर

8. गुलशन-ए-फ़िरदौस पर क्या नाज़ है रिज़वां तुझे, 
    पूछ उस के दिल से जो है रुत्बा-दान-ए-लखनऊ ! - नज़्म तबातबाई

9. इस दर्जा होशियार तो पहले कभी न थे, 
    अब क्यों क़दम क़दम पे संभलने लगे हैं हम ! - वाली आसी

10. 'रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात,  
       जितना ऊँचा आदमी, उतनी नीची बात।' - अंसार कम्बरी

11. बेगुनाही जुर्म था अपना, सो इस कोशिश में हूं,  
       सुर्ख़-रू मैं भी रहूं, क़ातिल भी शर्मिंदा न हो ! - सुरूर बाराबंकवी

12- इलेक्शन तक गरीबों का वो हुजरा देखते हैं, 
       हुकूमत मिल गई तो सिर्फ "मुजरा" देखते हैं। ~उस्मान मीनाई

13- है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है, 
    कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है ~ बशीर बद्र

14- हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए, 
       बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए - अकबर इलाहाबादी

15-  जो मैं सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा, 
        तिरा दिल तो है सनम-आश्ना  तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में - अल्लामा इक़बाल

15 अगस्त 2024

एक ईमानदार दुनिया के लिए

तुम्हें तो कुछ भी याद नहीं होगा
किसी का नाम-गाम
संघर्ष, अपमान, लात-घूँसे
यातना के दिन
सपने, स्वाधीनता और जय-जयकार

कुछ भी तो याद नहीं होगा तुम्हें
सिर्फ़ बड़े हो गए हो
रोशनी में चलते हुए
पूरे मुँह पर अँधेरे की उदासी लेकर
हर क़दम पर
संशय, कड़वाहट और बीमार दिनों को गिनते

देखता हूँ तुम्हारे कपड़े फट गए हैं
देखता हूँ पिता का पुराना मफ़लर
जगह-जगह रफ़ू किया है
गले में डाल कर तुम बड़े हो गए हो
धक्के खाते हुए
शाम होते ही तुम्हें घर पहुँचना है

तुम्हें याद नहीं होगा
बाज़ार रोशनी से लक-दक है
सिर्फ़ तुम्हीं हो
छुट्टी के दिन का मातम मनाते हुए
बड़े होते हुए
पच्चीस वर्ष पहले की तुम्हें याद नहीं होगी
जूते नीचे से फट गए हैं
इसकी भी याद नहीं होगी तुम्हें
इन इमारतों पर
इतना चटकदार रंग हो गया है इन दिनों
तुम्हारी उम्र के लड़के
दफ़्तर की सीढ़ियों पर
एक बेरहम आदमी की प्रतीक्षा में बैठे हैं
शाम के मटमैले सूरज की रोशनी में

उम्र बीतती है
दुःख के आर-पार
लंबी दौड़ और एक उत्साह रहित
मैदान की तरफ़ देखते हुए

एक फ़ैसला अपने मन में करो
वर्षा में चलो
या कि जेठ-बैसाख में
वर्ष स्मृतिहीन, शब्दहीन
गुज़रें या कि पल
चलो और फ़ैसला करो
इस तरह कुछ भी न बीते
न बीते यह अनुर्वरा दिन, उम्र
इसका फ़ैसला करो

तुम्हें याद नहीं होगा
इतिहास के मलबे पर
उन बेशुमार, आततायी, बर्बर लोगों के चेहरे
क्लीव बुद्धिजीवी, निठ्ठले पंडित
लालची कठमुल्ले, मौलवी
हारी हुई बाज़ी के प्यादे

फ़ैसला करो
इस नर्क के दरवाज़े पर...