26 जनवरी 2019

हमारे शासक

हमारे शासक ग़रीबी के बारे में चुप रहते हैं
शोषण के बारे में कुछ नहीं बोलते
अन्याय को देखते ही वे मुंह फेर लेते हैं
हमारे शासक ख़ुश होते हैं जब कोई उनकी पीठ पर हाथ रखता है
वे नाराज़ हो जाते हैं जब कोई उनके पैरों में गिर पड़ता है
दुर्बल प्रजा उन्हें अच्छी नही लगती
हमारे शासक ग़रीबों के बारे में कहते हैं कि वे हमारी समस्या हैं
समस्या दूर करने के लिए हमारे शासक
अमीरों को गले लगाते रहते हैं
जो लखपति रातोंरात करोड़पति जो करोड़पति रातोंरात
अरबपति बन जाते हैं उनका वे और भी सम्मान करते हैं

हमारे शासक हर व़क़्त देश की आय बढ़ाना चाहते हैं
और इसके लिए वे देश की भी परवाह नहीं करते हैं
जो देश से बाहर जाकर विदेश में संपति बनाते हैं
उन्हें हमारे शासक और भी चाहते हैं
हमारे शासक सोचते हैं अगर पूरा देश ही इस योग्य हो जाये
कि संपति बनाने के लिए बाहर चला जाये
तो देश की आय काफ़ी बढ़ जाये

हमारे शासक अक्सर ताक़तवरों की अगवानी करने जाते हैं
वे अक्सर आधुनिक भगवानों के चरणों में झुके हुए रहते हैं
हमारे शासक आदिवासियों की ज़मीनों पर निगाह गड़ाये रहते हैं
उनकी मुर्गियों पर उनकी कलाकृतियों पर उनकी औरतों पर
उनकी मिट्टी के नीचे दबी हुई बहुत सी चमकती हुई चीज़ों पर
हमारे शासक अक्सर हवाई जहाज़ों पर चढ़ते और उनसे उतरते हैं
हमारे शासक पगड़ी पहने रहते हैं
अक्सर कोट कभी-कभी टाई कभी लुंगी
अक्सर कुर्ता-पाजामा कभी बरमूडा टी-शर्ट अलग-अलग मौक़ों पर
हमारे शासक अक्सर कहते हैं हमें अपने देश पर गर्व है।

--- मंगलेश डबराल

25 जनवरी 2019

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता

मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता

कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता |

--- बशीर बद्र

24 जनवरी 2019

हुआ सवेरा

हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब
से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
नदी में स्नान करने सूरज
सुनारी मलमल की
पगड़ी बाँधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में
दुआओं के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियाँ
सोते रास्तों को जगा रही
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने
हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
फ़रिश्ते निकले रोशनी के
हर एक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल सा धड़क रहा है
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
बच्चे स्कूल जा रहे हैं....

--- निदा फ़ाज़ली

16 जनवरी 2019

दुर्दिन

देवे कुर्वति दुर्दिनव्यतिकरं नास्त्येव तन्मन्दिरं
यत्राहारगवेषणाय बहुशो नासीद् गता वायसी ।
किन्तु प्राप न किञ्चन क्वचिदपि प्रस्वापहेतोस्तथा
प्युद्भिन्नार्भकचञ्चुषु भ्रमयति स्वं रिक्त-चञ्चुपुटम् ।।

अर्थात्
कैसा दुर्दिन दिखाया देव ने
पानी बरसता ही रहा लगातार
कोई घर नहीं था जहाँ न गई हो कौवी
दाना खोजने के लिये.
पर कहीं से कुछ न पा सकी.
चोंचें खोले हुए चूजों को सुलाने के लिये अब वह
घुमा रही है अपनी खाली चोंच
उनकी चोंचों में.

--- अज्ञात (संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा)
अनुवाद - डा राधावल्लभ त्रिपाठी