23 फ़रवरी 2020

“To Our Land”

To our land,
and it is the one near the word of god,
a ceiling of clouds

To our land,
and it is the one far from the adjectives of nouns,
the map of absence

To our land,
and it is the one tiny as a sesame seed,
a heavenly horizon ... and a hidden chasm

To our land,
and it is the one poor as a grouse’s wings,
holy books ... and an identity wound

To our land,
and it is the one surrounded with torn hills,
the ambush of a new past

To our land, and it is a prize of war,
the freedom to die from longing and burning
and our land, in its bloodied night,
is a jewel that glimmers for the far upon the far
and illuminates what’s outside it ...

As for us, inside,
we suffocate more

---Mahmoud Darwish

21 फ़रवरी 2020

दो अर्थ का भय

मैं अभी आया हूँ सारा देश घूमकर
पर उसका वर्णन दरबार में करूँगा नहीं
राजा ने जनता को बरसों से देखा नहीं
यह राजा जनता की कमज़ोरियाँ न जान सके इसलिए मैं
जनता के क्लेश का वर्णन करूँगा नहीं इस दरबार में

सभा में विराजे हैं बुद्धिमान
वे अभी राजा से तर्क करने को हैं
आज कार्यसूची के अनुसार
इसके लिए वेतन पाते हैं वे
उनके पास उग्रस्वर ओजमयी भाषा है

मेरा सब क्रोध सब कारुण्य सब क्रन्दन
भाषा में शब्द नहीं दे सकता
क्योंकि जो सचमुच मनुष्य मरा
उसके भाषा न थी

मुझे मालूम था मगर इस तरह नहीं कि जो
ख़तरे मैंने देखे थे वे जब सच होंगे
तो किस तरह उनकी चेतावनी देने की भाषा
बेकार हो चुकी होगी
एक नयी भाषा दरकार होगी
जिन्होंने मुझसे ज़्यादा झेला है
वे कह सकते हैं कि भाषा की ज़रूरत नहीं होती
साहस की होती है
फिर भी बिना बतलाये कि एक मामूली व्यक्ति
एकाएक कितना विशाल हो जाता है
कि बड़े-बड़े लोग उसे मारने पर तुल जायें
रहा नहीं जा सकता

मैं सब जानता हूँ पर बोलता नहीं
मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है
पुलिस के दिमाग़ में वह रहस्य रहने दो
वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं
जहाँ सुना नहीं उनका ग़लत अर्थ लिया और मुझे मारा

इसलिए कहूँगा मैं
मगर मुझे पाने दो
पहले ऐसी बोली
जिसके दो अर्थ न हों
---रघुवीर सहाय

13 फ़रवरी 2020

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये
इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये

गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये

बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये

उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ
इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये

 ---दुष्यंत कुमार

10 फ़रवरी 2020

समकालीन प्रेम कविता का प्रारूप

निश्चय ही सफ़ेद का
सबसे अच्छा वर्णन धूसर के ज़रिये होता है
चिड़िया का पत्थर के ज़रिये
सूरजमुखी के फूलों का दिसम्बर में

पुराने दिनों में प्रेम कविताएँ
शरीर का वर्णन किया करती थीं
अलां और फलां का वर्णन
उदाहरणार्थ पलकों का वर्णन

निश्चय ही लाल का वर्णन
धूसर के ज़रिये किया जाना चाहिए
सूरज का बारिश के ज़रिये
पोस्त के फूलों का नवम्बर में
होठों का रात में

रोटी का सबसे मार्मिक वर्णन
भूख का वर्णन है

उसमें एक नम छलनी जैसा केंद्र रहता है
एक गर्म अन्तःस्थल
रात में सूरजमुखी
मातृदेवी साइबल का वक्ष पेट और जांघें

पानी के झरने जैसा
एक पारदर्शी वर्णन
प्यास का वर्णन है
राख का वर्णन
रेगिस्तान है
उसमें एक मरीचिका की कल्पना होती है
बादल और पेड़ आईने में
प्रवेश करते हैं

भूख अभाव
और शरीर की अनुपस्थिति
प्रेम का वर्णन है
समकालीन प्रेम कविता का.

---Tadeusz Borowski
--अनुवाद: मंगलेश डबराल

7 फ़रवरी 2020

दुनिया भर में डर

जो लोग काम पर लगे हैं
वे भयभीत हैं
कि उनकी नौकरी छूट जायेगी

 जो काम पर नहीं लगे
 वे भयभीत हैं
 कि उनको कभी काम नहीं मिलेगा

जिन्हें चिंता नहीं है
भूख की वे भयभीत हैं
खाने को लेकर

 लोकतंत्र भयभीत है
 याद दिलाये जाने से
 और भाषा भयभीत है

बोले जाने को लेकर आम नागरिक डरते हैं सेना से,
सेना डरती है हथियारों की कमी से
हथियार डरते हैं कि युद्धों की कमी है

यह भय का समय है
स्त्रियाँ डरती हैं हिंसक पुरुषों से
और पुरुष डरते हैं निर्भय स्त्रियों से

चोरों का डर,
पुलिस का डर
डर बिना ताले के दरवाज़ों का,

घड़ियों के बिना समय का बिना टेलीविज़न बच्चों का,
डर नींद की गोली के बिना रात का
और दिन जगने वाली गोली के बिना भीड़ का भय,

एकांत का भय
भय कि क्या था पहले
और क्या हो सकता है
मरने का भय,
जीने का भय.

 --- एदुआर्दो_गालेआनो

1 फ़रवरी 2020

हम कागज़ नहीं दिखाएंगे

हम कागज़ नहीं दिखाएंगे,
तानाशाह आके जायेंगे,

तानाशाह आके जायेंगे,
हम कागज़ नहीं दिखाएंगे,

तुम आंसू गैस उछालोगे,
तुम ज़हर की चाय उबालोगे,
हम प्यार की शक्कर घोलके इसको,
गट-गट-गट पी जायेंगे,
हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।

 ये देश ही अपना हासिल है,
 जहां राम प्रसाद भी बिस्मिल है,
 मिट्टी को कैसे बांटोगे,
 सबका ही खून तो शामिल है,

 ये देश ही अपना हासिल है,
 जहां राम प्रसाद भी बिस्मिल है,
 मिट्टी को कैसे बांटोगे,
 सबका ही खून तो शामिल है,

तुम पुलिस से लट्ठ पड़ा दोगे,
तुम मेट्रो बाँदा करादोगे,
हम पैदल-पैदल आएंगे,
 हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।

 हम मंजी यहीं बिछाएंगे,
 हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।

 हम संविधान को बचाएंगे,
 हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।

 हम जन-गन-मन भी जाएंगे,
 हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।

 तुम जात-पात से बांटोगे,
 हम भात मांगते जायेंगे,
 हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।

 ---वरुण ग्रोवर

हत्यारों ने हमारी दुनिया से बदल ली है

हत्यारों ने हमारी दुनिया से बदल ली है
अपनी दुनिया

बदल लिये हैं सभ्यता के नये प्रतिमानों से अपने जंग लगे
पुराने हथियार

बांचने लगे हैं कुरान और भागवत कथाएं
खड़े हो गये हैं मंदिरों और मस्जिदों के द्वार
या मेलों के घाट पर

वे हमारा ही चेहरा पहने
खड़े हैं जंगलों पहाड़ों और नदियों के दोनों पाट पर

खोल रखी हैं
हमारी ही मनपसंद पकवान, सौंदर्य-प्रसाधन और खिलौनों की दुकानें

बेचने लगे हैं
गांधी, टेरेसा, मंडेला, मार्टिन लूथर और बुद्ध के मुखौटे

जुलूसों, पंचायतों और संसद-सभाओं में
वे उपस्थित होने लगे हैं हमारे ही किरदार में

दोस्तों-परिजनों की आंखों में जब नहीं रहे आंसू
वे आने लगे हैं
हमारे मरघट और
कब्रिस्तान में!

--- योगेंद्र कृष्णा