15 दिसंबर 2012

धर्म

जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है..

जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है.

हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है.

आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है...

जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है.

---गोपाल दास नीरज

10 दिसंबर 2012

ये किसका लहू है कौन मरा


ये किसका लहू है कौन मरा
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.

ये जलते हुए घर किसके हैं
ये कटते हुए तन किसके है,
तकसीम के अंधे तूफ़ान में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं,
बदबख्त फिजायें किसकी हैं
बरबाद नशेमन किसके हैं,

कुछ हम भी सुने, हमको भी सुना.

ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.

किस काम के हैं ये दीन धरम
जो शर्म के दामन चाक करें,
किस तरह के हैं ये देश भगत
जो बसते घरों को खाक करें,
ये रूहें कैसी रूहें हैं
जो धरती को नापाक करें,

आँखे तो उठा, नज़रें तो मिला.

ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.

जिस राम के नाम पे खून बहे
उस राम की इज्जत क्या होगी,
जिस दीन के हाथों लाज लूटे
उस दीन की कीमत क्या होगी,
इन्सान की इस जिल्लत से परे
शैतान की जिल्लत क्या होगी,

ये वेद हटा, कुरआन उठा.

ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.

--- साहिर लुधियानवी

8 दिसंबर 2012

किताबें झाँकती है

किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाक़ातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है

जो ग़ज़लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े-उधड़े है
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े है
बिना पत्तों के सूखे टूँड लगते है वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है

जबाँ पर ज़ायका आता था सफ़्हे पलटने का
अब उँगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुज़रती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
क़िताबों से जो ज़ाती राब्ता था वो कट-सा गया है

कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रहल की सूरत बनाकर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो उन क़िताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रूक्के
क़िताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा...!!

--- गुलज़ार

1 दिसंबर 2012

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की ?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की .

*** अदम गोंडवी

27 नवंबर 2012

तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले

तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्‍हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।

प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्‍टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !

तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!

क्‍या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्‍क करो तुम, आ जाएगा
उल्‍टे पाँव चलते जाना
ध्‍यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।

आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।

--- फ़हमीदा रियाज़

25 नवंबर 2012

बर्बरता की ढाल ठाकरे

बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!!
कैसे फासिस्टी प्रभुओं की-
गला रहा है दाल ठाकरे !

अबे सम्हल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे!
सबने हां की, कौन ना करे!
छिप जा, मत तू उधर ताक रे!

शिवसेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे!
सभी डर गये, बजा रहा है गाल ठाकरे!
अपने भक्तों को कर देगा अब तो मालामाल ठाकरे!

गूंज रही सह्याद्रि घाटियाँ, मचा रहा भूचाल ठाकरे!
मन ही मन कहते राजा जी, जिए भला सौ साल ठाकरे!

चुप है कवि, डरता है शायद खींच नहीं ले खाल ठाकरे!
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे!

बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!

बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र का काल ठाकरे !

धन पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे !

चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे!

--- नागार्जुन(जून १९७०)

10 नवंबर 2012

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

--- अदम गोंडवी