ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है 
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा 
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे 
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे 
तेग़-ए-बे-दाद पे या लाशा-ए-बिस्मिल पे जमे 
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा 
लाख बैठे कोई छुप-छुप के कमीं-गाहों में 
ख़ून ख़ुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़ 
साज़िशें लाख उड़ाती रहीं ज़ुल्मत की नक़ाब 
ले के हर बूँद निकलती है हथेली पे चराग़ 
ज़ुल्म की क़िस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुस्वा से कहो 
जब्र की हिकमत-ए-परकार के ईमा से कहो 
महमिल-ए-मज्लिस-ए-अक़्वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है दामन पे लपक सकता है 
शोला-ए-तुंद है ख़िर्मन पे लपक सकता है 
तुम ने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा 
आज वो कूचा ओ बाज़ार में आ निकला है 
कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन कर 
ख़ून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से 
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से 
ज़ुल्म की बात ही क्या ज़ुल्म की औक़ात ही क्या 
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है आग़ाज़ से अंजाम तलक 
ख़ून फिर ख़ून है सौ शक्ल बदल सकता है
ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाए न बने 
ऐसे शोले कि बुझाओ तो बुझाए न बने 
ऐसे नारे कि दबाओ तो दबाए न बने 
---साहिर लुधियानवी
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