एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था
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गुलज़ार
Nov 12, 2009
देह की गोलाईयों तक आ गये |
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये
देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये
प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये
सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये
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चंद्रसेन विराट
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये
देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये
प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये
सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये
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चंद्रसेन विराट
अजनबी शहर
अजनबी शहर के/में अजनबी रास्ते , मेरी तन्हाईयों पे मुस्कुराते रहे ।
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे ।।
ज़ख्म मिलता रहा, ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे,
जिंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे ।।
ज़ख्म जब भी कोई ज़हनो दिल पे लगा, तो जिंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला
हम भी किसी साज़ की तरह हैं, चोट खाते रहे और गुनगुनाते रहे ।।
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया,
इतनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे ।।
सख्त हालात के तेज़ तूफानों, गिर गया था हमारा जुनूने वफ़ा
हम चिराग़े-तमन्ना़ जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे ।।
--- डॉ. राही मासूम रजा़
अशोक खोसला की आवाज़ में सुनिए राही साहब की वो ग़ज़ल, जिसमें अपने शहर को छोड़कर किसी अजनबी शहर में गये एक नौजवान के अहसासात को बयां किया गया है ।
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे ।।
ज़ख्म मिलता रहा, ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे,
जिंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे ।।
ज़ख्म जब भी कोई ज़हनो दिल पे लगा, तो जिंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला
हम भी किसी साज़ की तरह हैं, चोट खाते रहे और गुनगुनाते रहे ।।
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया,
इतनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे ।।
सख्त हालात के तेज़ तूफानों, गिर गया था हमारा जुनूने वफ़ा
हम चिराग़े-तमन्ना़ जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे ।।
--- डॉ. राही मासूम रजा़
अशोक खोसला की आवाज़ में सुनिए राही साहब की वो ग़ज़ल, जिसमें अपने शहर को छोड़कर किसी अजनबी शहर में गये एक नौजवान के अहसासात को बयां किया गया है ।
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