Aug 10, 2012

तानाशाह

वह अभी तक सोचता है
कि तानाशाह बिल्‍कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा

यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्‍ले-तमगे और
भीड़ को सम्‍मोहित करने की वाकपटुता

जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्‍ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्‍त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्‍चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा|

---उदयप्रकाश

Jul 31, 2012

"लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदा-ए-लखनऊ"

"ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क का वतन
यही तो वो मकाम है
जहाँ अवध की शाम है
जवां-जवां, हसीं-हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये एहल-ए-इल्म का नगर
है मंजिलों की गोद में
यहाँ की हर एक रहगुज़र
ये शहर लालाज़ार है
यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

यहाँ की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर एहल-ए-दिल यहाँ
गरीब जां-निसार हैं
हर इक शाख पर यहाँ
हैं बुलबुलों के चहचहे
गली गली में ज़िन्दगी
क़दम क़दम पे कहकहे
हर इक नज़ारा दिलनशीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

यहाँ के दोस्त बा-वफ़ा
मोहब्बतों से आशना
किसी के हो गए अगर
रहे उसी के उम्र भर
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबान भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती का हो यकीं

ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ कि सरज़मीं"

-- शकील बदायुनी

Jun 7, 2012

ये मेघ साहसिक सैलानी!

ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत साँसों से लालसा भरे,
ये ढीठ समीरण के झोंके,
कंटकित हुए रोएँ तन के
किन अदृश करों से आलोड़ित
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर-झर झर-झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!

झर -
नदी कूल के झर नरसल
झर - उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल

झर -
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करुण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की साँसों में सिहरी,
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी-सी आँखड़ियाँ
झर! सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!

झर -
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया-सा भूरा पानी
थिगलियाँ-भरे-छीजे आँचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी,
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर-झर झर-झर
द्रुत मंद स्वर
आए दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!

कंपित फरास की ध्वनि सर-सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर -
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!

ओ कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हाँ कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली,
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरुथल के रेणुक कण रुखे!
झर-जीवन गाति आनी जानी
उठती गिरतीं सूनी साँसें
लोचन अंतस प्यासे भूखे

अलमस्त चल दिए छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!

- अज्ञेय