हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी
--- निदा फ़ाज़ली
12 अक्टूबर 2020
9 अक्टूबर 2020
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
वैसे भी ये बड़े लोग हैं अक्सर धूप चढ़े जगते हैं,
व्यवहारों से कहीं अधिक तस्वीरों में अच्छे लगते हैं,
इनका है इतिहास गवाही जैसे सोए वैसे जागे,
इनके स्वार्थ सचिव चलते हैं नयी सुबह के रथ के आगे,
माना कल तक तुम सोये थे लेकिन ये तो जाग रहे थे,
फिर भी कहाँ चले जाते थे जाने सब उपहार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
इनके हित औ अहित अलग हैं इन्हें चमन से क्या मतलब है,
राम कृपा से इनके घर में जो कुछ होता है वह सब है,
संघर्षों में नहीं जूझते साथ समय के बहते भर हैं,
वैसे ये हैं नहीं चमन के सिर्फ चमन में रहते भर हैं,
इनका धर्म स्वयं अपने आडम्बर से हल्का पड़ता हैं,
शुभचिंतक बनने को आतुर बैठे हैं ग़द्दार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
सूरज को क्या पड़ी भला जो दस्तक देकर तुम्हें पुकारे,
गर्ज़ पड़े सौ बार तुम्हारी खोलो अपने बंद किवाड़े,
नयी रोशनी गले लगाओ आदर सहित कहीं बैठाओ,
ठिठुरी उदासीनता ओढ़े सोया वातावरण जगाओ,
हो चैतन्य ऊंघती आँखें फिर कुछ बातें करो काम की,
कैसे कौन चुका सकता है कितने कब उपकार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
धरे हाथ पर हाथ न बैठो कोई नया विकल्प निकालो,
ज़ंग लगे हौंसले माँज लो बुझा हुआ पुरुषार्थ जगा लो,
उपवन के पत्ते पत्ते पर लिख दो युग की नयी ऋचाएँ,
वे ही माली कहलाएँगे जो हाथों में ज़ख्म दिखाएँ,
जिनका ख़ुशबूदार पसीना रूमालों को हुआ समर्पित,
उनको क्या अधिकार कि पाएं वे महंगे सत्कार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
जिनको आदत है सोने की उपवन की अनुकूल हवा में,
उनका अस्थि शेष भी उड़ जाता है बनकर धूल हवा में,
लेकिन जो संघर्षों का सुख सिरहाने रखकर सोते हैं,
युग के अंगड़ाई लेने पर वे ही पैग़म्बर होते हैं,
जो अपने को बीज बनाकर मिटटी में मिलना सीखे हैं,
सदियों तक उनके साँचे में ढलते हैं व्यवहार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
--- उदयप्रताप सिंह
5 अक्टूबर 2020
Start Close In
Start close in,
don’t take the second step
or the third,
start with the first
thing
close in,
the step
you don’t want to take.
Start with
the ground
you know,
the pale ground
beneath your feet,
your own
way to begin
the conversation.
Start with your own
question,
give up on other
people’s questions,
don’t let them
smother something
simple.
To hear
another’s voice,
follow
your own voice,
wait until
that voice
becomes an
intimate
private ear
that can
really listen
to another.
Start right now
take a small step
you can call your own
don’t follow
someone else’s
heroics,
be humble
and focused,
start close in,
don’t mistake
that other
for your own.
Start close in,
don’t take
the second step
or the third,
start with the first
thing
close in,
the step
you don’t want to take.
--- David Whyte A poem from River Flow: New & Selected Poems
Many Rivers Press
2 अक्टूबर 2020
वसीयत
गांधी के मरने के बाद
चश्मा मिला
अंधी जनता को
घड़ी ले गए अंग्रेज़
धोती और सिद्धांत
जल गए चिता के साथ
गांधीजनों ने पाया
राजघाट
संस्थाओं ने आत्मकथा
और डंडा
नेताओं ने हथियाया
और हांक रहे हैं
देश को
गांधी से पूछे बिना
गांधी को बांट लिया हमने
अपनी अपनी तरह से
--- हूबनाथ पांडेय
चश्मा मिला
अंधी जनता को
घड़ी ले गए अंग्रेज़
धोती और सिद्धांत
जल गए चिता के साथ
गांधीजनों ने पाया
राजघाट
संस्थाओं ने आत्मकथा
और डंडा
नेताओं ने हथियाया
और हांक रहे हैं
देश को
गांधी से पूछे बिना
गांधी को बांट लिया हमने
अपनी अपनी तरह से
--- हूबनाथ पांडेय
30 सितंबर 2020
ज्वालामुखी के मुहाने
तुमने कहा —
'मैं ईश्वर हूँ'
हमारे सिर झुका दिए गए।
तुमने कहा —
'ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या'
हमसे आकाश पुजाया गया।
तुमने कहा —
'मैंने जो कुछ भी कहा —
केवल वही सच है'
हमें अन्धा
हमें बहरा
हमें गूँगा बना
गटर में धकेल दिया
ताकि चुनौती न दे सकें
तुम्हारी पाखण्डी सत्ता को।
मदान्ध ब्राह्मण
धरती को नरक बनाने से पहले
यह तो सोच ही लिया होता
कि ज्वालामुखी के मुहाने
कोई पाट सका है
जो तुम पाट पाते !
---मलखान सिंह
'मैं ईश्वर हूँ'
हमारे सिर झुका दिए गए।
तुमने कहा —
'ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या'
हमसे आकाश पुजाया गया।
तुमने कहा —
'मैंने जो कुछ भी कहा —
केवल वही सच है'
हमें अन्धा
हमें बहरा
हमें गूँगा बना
गटर में धकेल दिया
ताकि चुनौती न दे सकें
तुम्हारी पाखण्डी सत्ता को।
मदान्ध ब्राह्मण
धरती को नरक बनाने से पहले
यह तो सोच ही लिया होता
कि ज्वालामुखी के मुहाने
कोई पाट सका है
जो तुम पाट पाते !
---मलखान सिंह
17 सितंबर 2020
सुनो ब्राह्मण
हम जानते हैं
हमारे सब कुछ
भौंडा लगता है तुम्हें।
हमारी बगल में खड़ा होने पर
कद घटा है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं।
सुनो भू-देव
तुम्हारा कद
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय के नाम पर
जीवन को चौखटों में कस
कसाई बाड़ा बना दिया था।
और खुद को शीर्ष पर
स्थापित करने हेतु
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंजिला जीने पे।
वहीं बीच आंगन में
स्वर्ग के नरक के
ऊंच के नीच के
छूत के अछूत के
भूत के भभूत के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध
और गुण-धर्म के
सियासी प्रपंच गढ़
रेवड़ बना दिया था
पूरे के पूरे देश को।
तुम अकसर कहते हो कि
आत्मा कुंआ है
जुड़ी है जो मूल सी
फिर निश्चय ही हमारी घृणा चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल सी।
यदि नहीं-
तुम सुनो वशिष्ठ!
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं
मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारे बोझ ढोने को
तैयार नहीं हैं
बिल्कुल तैयार नहीं है।
देखो!
बंद किले से बाहर
झांक कर तो देखो
बरफ पिघल रही है
बछड़े मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है
---मलखान सिंह
हमारे सब कुछ
भौंडा लगता है तुम्हें।
हमारी बगल में खड़ा होने पर
कद घटा है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं।
सुनो भू-देव
तुम्हारा कद
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय के नाम पर
जीवन को चौखटों में कस
कसाई बाड़ा बना दिया था।
और खुद को शीर्ष पर
स्थापित करने हेतु
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंजिला जीने पे।
वहीं बीच आंगन में
स्वर्ग के नरक के
ऊंच के नीच के
छूत के अछूत के
भूत के भभूत के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध
और गुण-धर्म के
सियासी प्रपंच गढ़
रेवड़ बना दिया था
पूरे के पूरे देश को।
तुम अकसर कहते हो कि
आत्मा कुंआ है
जुड़ी है जो मूल सी
फिर निश्चय ही हमारी घृणा चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल सी।
यदि नहीं-
तुम सुनो वशिष्ठ!
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं
मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारे बोझ ढोने को
तैयार नहीं हैं
बिल्कुल तैयार नहीं है।
देखो!
बंद किले से बाहर
झांक कर तो देखो
बरफ पिघल रही है
बछड़े मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है
---मलखान सिंह
14 सितंबर 2020
हमारी हिन्दी
हमारी हिन्दी एक दुहाजू की नयी बीवी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाये
पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुँचाती जाये
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली मं छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अन्दर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढँनगते गिलास
खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जायेंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अन्दर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और सन्तान भी जिसका जिगर बढ़ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिन्दी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिन्दी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे।
---रघुवीर सहाय
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाये
पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुँचाती जाये
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली मं छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अन्दर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढँनगते गिलास
खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जायेंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अन्दर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और सन्तान भी जिसका जिगर बढ़ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिन्दी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिन्दी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे।
---रघुवीर सहाय
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