कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
के ज़िंदगी तिरी जुल्फों के नर्म सायों में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुकद्दर है
तेरी नज़र कि शुआयों में खो भी सकती थी
अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-आलम रह कर
तिरी जमाल कि रानाइयों में खो रहता
तिरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आंखें
इन्हीं हसीन फसानों में महव हो रहता
पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की
तिरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ के साए में छुप के जी लेता
मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तिरा गम ,तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे कि आरजू भी नहीं
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह गुजारों से
मुहीब साए मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से
ना कोई जादा, ना मंजिल, ना रोशनी का सुराग
भटक रही है खलायों में जिंदगी मेरी
इन्हीं खलायों में रह जाऊंगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफस मगर यूंही
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
---साहिर लुध्यानवी
21 मई 2010
एक असैनिक व्यथा...
दोस्त मेरे !
अच्छे लगते हो
अपनी आवाज बुलंद करते हुये
मुल्क के हर दूसरे मुद्दे पर
जब-तब, अक्सर ही
कि
शब्द तुम्हारे गुलाम हैं
कि
कलम तुम्हारी है कनीज़
बहुत भाते हो तुम
ओ कामरेड मेरे !
कवायद करते हुये
सूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के खिलाफ
बादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध
बुरे तब भी नहीं लगते,
यकीन जानो,
जब तौलते हो तुम
चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों पर
पूरी बिरादरी के वजन को
और तब भी नहीं
इंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जब
दमकती वर्दी की कलफ़ में लगे
कुछ अनचाहे धब्बों पर
बेशक
शेष वर्दी कितनी ही
दमक रही हो,
तुम्हारी पारखी नजरें
ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को
पसंद आता है
ये पैनापन तुम्हारी
नजरों का
कि
प्रेरित होता हूँ मैं इनसे
इन्हीं की तर्ज पर
पूरे दिल्लीवालों को
बलात्कारी कहने के लिये
नहीं, मैं नहीं कहता,
आँकड़े कहते हैं
"मुल्क की राजधानी में होते हैं
सबसे अधिक बलात्कार"
तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकर
पूरी दिल्ली को ये विशेषण देना
फिर अनुचित तो नहीं...?
कुछ इरोम शर्मिलाओं संग
एक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वारा
की गयी नाइंसाफी का तोहमत
तुम भी तो जड़ते हो
पूरे कुनबे पर
सफर में हुई चंद बदतमिजियों
की तोहमतें
तुम भी तो लगाते हो
तमाम तबके पर
...तो क्या हुआ
कि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के
लाखों अन्य भाई-बंधु
खड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे
...तो क्या हुआ
कि उन चंद बदतमिजों के
हजारों अन्य संगी-साथी
तुम्हारे पसीने से ज्यादा
अपना खून बहाते हैं
हर रोज
तुम्हें भान नहीं
मित्र मेरे,
कि
इन लाखों भाई-बंधु
इन हजारों संगी-साथी
की सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का
सच कहता हूँ
जरा भी बुरे नहीं लगते तुम
हमसाये मेरे
कि
तुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपन
तुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जाम
प्रेरक बनते हैं
मेरे कर्तव्य-पालन में
तुम्हीं कहो
कैसे नहीं अच्छे लगोगे
फिर तुम,
ऐ दोस्त मेरे...
--- गौतम राजरिशी
Poem taken from his blog and can be read there also.
अच्छे लगते हो
अपनी आवाज बुलंद करते हुये
मुल्क के हर दूसरे मुद्दे पर
जब-तब, अक्सर ही
कि
शब्द तुम्हारे गुलाम हैं
कि
कलम तुम्हारी है कनीज़
बहुत भाते हो तुम
ओ कामरेड मेरे !
कवायद करते हुये
सूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के खिलाफ
बादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध
बुरे तब भी नहीं लगते,
यकीन जानो,
जब तौलते हो तुम
चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों पर
पूरी बिरादरी के वजन को
और तब भी नहीं
इंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जब
दमकती वर्दी की कलफ़ में लगे
कुछ अनचाहे धब्बों पर
बेशक
शेष वर्दी कितनी ही
दमक रही हो,
तुम्हारी पारखी नजरें
ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को
पसंद आता है
ये पैनापन तुम्हारी
नजरों का
कि
प्रेरित होता हूँ मैं इनसे
इन्हीं की तर्ज पर
पूरे दिल्लीवालों को
बलात्कारी कहने के लिये
नहीं, मैं नहीं कहता,
आँकड़े कहते हैं
"मुल्क की राजधानी में होते हैं
सबसे अधिक बलात्कार"
तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकर
पूरी दिल्ली को ये विशेषण देना
फिर अनुचित तो नहीं...?
कुछ इरोम शर्मिलाओं संग
एक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वारा
की गयी नाइंसाफी का तोहमत
तुम भी तो जड़ते हो
पूरे कुनबे पर
सफर में हुई चंद बदतमिजियों
की तोहमतें
तुम भी तो लगाते हो
तमाम तबके पर
...तो क्या हुआ
कि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के
लाखों अन्य भाई-बंधु
खड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे
...तो क्या हुआ
कि उन चंद बदतमिजों के
हजारों अन्य संगी-साथी
तुम्हारे पसीने से ज्यादा
अपना खून बहाते हैं
हर रोज
तुम्हें भान नहीं
मित्र मेरे,
कि
इन लाखों भाई-बंधु
इन हजारों संगी-साथी
की सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का
सच कहता हूँ
जरा भी बुरे नहीं लगते तुम
हमसाये मेरे
कि
तुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपन
तुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जाम
प्रेरक बनते हैं
मेरे कर्तव्य-पालन में
तुम्हीं कहो
कैसे नहीं अच्छे लगोगे
फिर तुम,
ऐ दोस्त मेरे...
--- गौतम राजरिशी
Poem taken from his blog and can be read there also.
20 मई 2010
If
f you can keep your head when all about you
Are losing theirs and blaming it on you;
If you can trust yourself when all men doubt you,
But make allowance for their doubting too;
If you can wait and not be tired by waiting,
Or, being lied about, don't deal in lies,
Or, being hated, don't give way to hating,
And yet don't look too good, nor talk too wise;
If you can dream - and not make dreams your master;
If you can think - and not make thoughts your aim;
If you can meet with triumph and disaster
And treat those two imposters just the same;
If you can bear to hear the truth you've spoken
Twisted by knaves to make a trap for fools,
Or watch the things you gave your life to broken,
And stoop and build 'em up with wornout tools;
If you can make one heap of all your winnings
And risk it on one turn of pitch-and-toss,
And lose, and start again at your beginnings
And never breath a word about your loss;
If you can force your heart and nerve and sinew
To serve your turn long after they are gone,
And so hold on when there is nothing in you
Except the Will which says to them: "Hold on";
If you can talk with crowds and keep your virtue,
Or walk with kings - nor lose the common touch;
If neither foes nor loving friends can hurt you;
If all men count with you, but none too much;
If you can fill the unforgiving minute
With sixty seconds' worth of distance run -
Yours is the Earth and everything that's in it,
And - which is more - you'll be a Man my son!
--- Rudyard_Kipling
Are losing theirs and blaming it on you;
If you can trust yourself when all men doubt you,
But make allowance for their doubting too;
If you can wait and not be tired by waiting,
Or, being lied about, don't deal in lies,
Or, being hated, don't give way to hating,
And yet don't look too good, nor talk too wise;
If you can dream - and not make dreams your master;
If you can think - and not make thoughts your aim;
If you can meet with triumph and disaster
And treat those two imposters just the same;
If you can bear to hear the truth you've spoken
Twisted by knaves to make a trap for fools,
Or watch the things you gave your life to broken,
And stoop and build 'em up with wornout tools;
If you can make one heap of all your winnings
And risk it on one turn of pitch-and-toss,
And lose, and start again at your beginnings
And never breath a word about your loss;
If you can force your heart and nerve and sinew
To serve your turn long after they are gone,
And so hold on when there is nothing in you
Except the Will which says to them: "Hold on";
If you can talk with crowds and keep your virtue,
Or walk with kings - nor lose the common touch;
If neither foes nor loving friends can hurt you;
If all men count with you, but none too much;
If you can fill the unforgiving minute
With sixty seconds' worth of distance run -
Yours is the Earth and everything that's in it,
And - which is more - you'll be a Man my son!
--- Rudyard_Kipling
17 मई 2010
Can you imprison poetry?
‘While briefly chilled, I want to tell
without vengeance and what’s more with joy
how from my bed in Buenos Aires
the police took me to prison.
It was late, we had just arrived from Chile,
and without saying anything to us
they plundered my friend’s papers,
they offended the house in which I slept,
My wife vented her disdain
but there were orders to be executed
and in a moving car we roved about
the tyrannous black night.
They it was not Peron, it was another,
a new tyrant for Argentina
and by his orders doors opened,
bolt after bolt was unlocked
in order to swallow me, the patios passed,
forty bars and the infirmary,
but still they took me up into a cell,
the most impenetrable and hidden:
only there did they feel protected
from the exhalations of my poetry.’
--- Pablo Neruda
without vengeance and what’s more with joy
how from my bed in Buenos Aires
the police took me to prison.
It was late, we had just arrived from Chile,
and without saying anything to us
they plundered my friend’s papers,
they offended the house in which I slept,
My wife vented her disdain
but there were orders to be executed
and in a moving car we roved about
the tyrannous black night.
They it was not Peron, it was another,
a new tyrant for Argentina
and by his orders doors opened,
bolt after bolt was unlocked
in order to swallow me, the patios passed,
forty bars and the infirmary,
but still they took me up into a cell,
the most impenetrable and hidden:
only there did they feel protected
from the exhalations of my poetry.’
--- Pablo Neruda
15 मई 2010
AUF WIEDERSEHEN (Until we meet again!)
Of the familiar words, that men repeat
At parting in the street.
Ah yes, till then! but when death intervening
Rends us asunder, with what ceaseless pain
We wait for the Again!
The friends who leave us do not feel the sorrow
Of parting, as we feel it, who must stay
Lamenting day by day,
And knowing, when we wake upon the morrow,
We shall not find in its accustomed place
The one beloved face.
It were a double grief, if the departed,
Being released from earth, should still retain
A sense of earthly pain;
It were a double grief, if the true-hearted,
Who loved us here, should on the farther shore
Remember us no more.
Believing, in the midst of our afflictions,
That death is a beginning, not an end,
We cry to them, and send
Farewells, that better might be called predictions,
Being fore-shadowings of the future, thrown
Into the vast Unknown.
Faith overleaps the confines of our reason,
And if by faith, as in old times was said,
Women received their dead
Raised up to life, then only for a season
Our partings are, nor shall we wait in vain
Until we meet again!
--- Henry Wadsworth Longfellow (Written in memory of the Poet's long time friend and publisher, Mr James T. Fields..)
At parting in the street.
Ah yes, till then! but when death intervening
Rends us asunder, with what ceaseless pain
We wait for the Again!
The friends who leave us do not feel the sorrow
Of parting, as we feel it, who must stay
Lamenting day by day,
And knowing, when we wake upon the morrow,
We shall not find in its accustomed place
The one beloved face.
It were a double grief, if the departed,
Being released from earth, should still retain
A sense of earthly pain;
It were a double grief, if the true-hearted,
Who loved us here, should on the farther shore
Remember us no more.
Believing, in the midst of our afflictions,
That death is a beginning, not an end,
We cry to them, and send
Farewells, that better might be called predictions,
Being fore-shadowings of the future, thrown
Into the vast Unknown.
Faith overleaps the confines of our reason,
And if by faith, as in old times was said,
Women received their dead
Raised up to life, then only for a season
Our partings are, nor shall we wait in vain
Until we meet again!
--- Henry Wadsworth Longfellow (Written in memory of the Poet's long time friend and publisher, Mr James T. Fields..)
आंसू
आंखों में पानी देख
कहीं तुम्हे
रोने का भ्रम ना हो जाए
तुम नहीं जानते
कि
रोते हुए ,
आंसू
बाहर नहीं
अन्दर गिरते हैं
--- गुरमीत बराङ
4 मई 2010
Concert in the Garden
Concert in the Garden
It rained.
The hour is an enormous eye.
Inside it we come and go like reflections.
The river of music
enters my blood.
If I say body, it answers wind.
If I say earth, it answers where?
The world, a double blossom, opens:
sadness of having come,
joy of being here.
I walk lost in my own center.
by Octavio Paz
from The Collected Poems 1957-1987;
Carcanet Press Limited
Concierto en el Jardín
Llovío.
La hora es un ojo inmenso.
En ella andamos como reflejos.
El río de la música
entra en mi sangre.
Si digo: cuerpo, contesta: viento.
Si digo: tierra, contesta: ¿dónde?
Se abre, flor doble, el mundo:
tristeza de haber venido,
alegría de estar aquí.
Ando perdido en mi propio centro.
Octavio Paz
It rained.
The hour is an enormous eye.
Inside it we come and go like reflections.
The river of music
enters my blood.
If I say body, it answers wind.
If I say earth, it answers where?
The world, a double blossom, opens:
sadness of having come,
joy of being here.
I walk lost in my own center.
by Octavio Paz
from The Collected Poems 1957-1987;
Carcanet Press Limited
Concierto en el Jardín
Llovío.
La hora es un ojo inmenso.
En ella andamos como reflejos.
El río de la música
entra en mi sangre.
Si digo: cuerpo, contesta: viento.
Si digo: tierra, contesta: ¿dónde?
Se abre, flor doble, el mundo:
tristeza de haber venido,
alegría de estar aquí.
Ando perdido en mi propio centro.
Octavio Paz
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