मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !
--- काका हाथरसी
27 अप्रैल 2012
13 अप्रैल 2012
विफलता : शोध की मंज़िले
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे ! – लोकनायक जयप्रकाश नारायण
(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे ! – लोकनायक जयप्रकाश नारायण
(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)
12 अप्रैल 2012
What Must Be Said
Why do I stay silent, conceal for too long
What is obvious and has been
Practiced in war games, at the end of which we as survivors
Are at best footnotes.It is the alleged right to the first strike
That could annihilate the Iranian people–
Subjugated by a loud-mouth
And guided to organized jubilation–
Because in their sphere of power,
It is suspected, a nuclear bomb is being built.
Yet why do I forbid myself
To name that other country
In which, for years, even if secretly,
There has been a growing nuclear potential at hand
But beyond control, because not accessible to inspections?
The universal concealment of these facts,
To which my silence subordinated itself,
I sense as an incriminating lie
And coercion–the punishment is promised
As soon as it is ignored;
The verdict of “anti-Semitism” is familiar.
Now, though, because in my country
Which time and again has sought and confronted
Its very own crimes
That is without comparison
In turn on a purely commercial basis, if also
With nimble lips calling it a reparation, declares
A further U-boat should be delivered to Israel,
Whose specialty consists of guiding all-destroying warheads to where the existence
Of a single atomic bomb is unproven,
But fear wishes to be of conclusive evidence,
I say what must be said.
But why have I stayed silent until now?
Because I thought my origin,
Afflicted by a stain never to be expunged
Forbade this fact as pronounced truth
To be told to the nation of Israel, to which I am bound
And wish to stay bound.
Why do I say only now,
Aged and with my last ink,
The nuclear power Israel endangers
The already fragile world peace?
Because it must be said
What even tomorrow may be too late to say;
Also because we–as Germans burdened enough–
Could become suppliers to a crime
That is foreseeable, wherefore our complicity
Could not be redeemed through any of the usual excuses.
And granted: I am silent no longer
Because I am tired of the West’s hypocrisy;
In addition to which it is to be hoped
That this will free many from silence,
Appeal to the perpetrator of the recognizable danger
To renounce violence and
Likewise insist
That an unhindered and permanent control
Of the Israeli nuclear potential
And the Iranian nuclear sites
Be authorized through an international agency
By the governments of both countries.
Only this way are all, the Israelis and Palestinians,
Even more, all people, that in this
Region occupied by mania
Live cheek by jowl among enemies,
And also us, to be helped.
---Günter Grass
( Original Title - Was gesagt werden muss )
What is obvious and has been
Practiced in war games, at the end of which we as survivors
Are at best footnotes.It is the alleged right to the first strike
That could annihilate the Iranian people–
Subjugated by a loud-mouth
And guided to organized jubilation–
Because in their sphere of power,
It is suspected, a nuclear bomb is being built.
Yet why do I forbid myself
To name that other country
In which, for years, even if secretly,
There has been a growing nuclear potential at hand
But beyond control, because not accessible to inspections?
The universal concealment of these facts,
To which my silence subordinated itself,
I sense as an incriminating lie
And coercion–the punishment is promised
As soon as it is ignored;
The verdict of “anti-Semitism” is familiar.
Now, though, because in my country
Which time and again has sought and confronted
Its very own crimes
That is without comparison
In turn on a purely commercial basis, if also
With nimble lips calling it a reparation, declares
A further U-boat should be delivered to Israel,
Whose specialty consists of guiding all-destroying warheads to where the existence
Of a single atomic bomb is unproven,
But fear wishes to be of conclusive evidence,
I say what must be said.
But why have I stayed silent until now?
Because I thought my origin,
Afflicted by a stain never to be expunged
Forbade this fact as pronounced truth
To be told to the nation of Israel, to which I am bound
And wish to stay bound.
Why do I say only now,
Aged and with my last ink,
The nuclear power Israel endangers
The already fragile world peace?
Because it must be said
What even tomorrow may be too late to say;
Also because we–as Germans burdened enough–
Could become suppliers to a crime
That is foreseeable, wherefore our complicity
Could not be redeemed through any of the usual excuses.
And granted: I am silent no longer
Because I am tired of the West’s hypocrisy;
In addition to which it is to be hoped
That this will free many from silence,
Appeal to the perpetrator of the recognizable danger
To renounce violence and
Likewise insist
That an unhindered and permanent control
Of the Israeli nuclear potential
And the Iranian nuclear sites
Be authorized through an international agency
By the governments of both countries.
Only this way are all, the Israelis and Palestinians,
Even more, all people, that in this
Region occupied by mania
Live cheek by jowl among enemies,
And also us, to be helped.
---Günter Grass
( Original Title - Was gesagt werden muss )
31 मार्च 2012
तंग आ चुके हैं हम...
तंग आ चुके कश्मकशे जिंदगी से हम...
ठुकरा न दे जहाँ को कहीं बेरुखी से हम...
हम गमजदा हैं लाये कहाँ से खुशी के गीत....
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम...
उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवाले...
माना की दब गए हैं गम-ऐ-जिंदगी से हम...
लो आज हमने आज तोड़ दिया रिश्ता-ऐ-उम्मीद....
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम...
---साहिर लुधियानवी.
ठुकरा न दे जहाँ को कहीं बेरुखी से हम...
हम गमजदा हैं लाये कहाँ से खुशी के गीत....
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम...
उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवाले...
माना की दब गए हैं गम-ऐ-जिंदगी से हम...
लो आज हमने आज तोड़ दिया रिश्ता-ऐ-उम्मीद....
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम...
---साहिर लुधियानवी.
30 मार्च 2012
कुछ दूर हमारे साथ चलो
कुछ दूर हमारे साथ चलो हम दिल की कहानी कह देंगे
समझे न जिसे तुम आँखों से वो बात ज़ुबानी कह देंगे
जो प्यार करेंगे जानेंगे हर बात हमारी मानेंगे
जो ख़ुद न जले हों उल्फ़त में वो आग को पानी कह देंगे,
जब प्यास जवाँ हो जायेगी एहसास की मंज़िल पायेगी
ख़ामोश रहेंगे और तुम्हें हम अपनी कहानी कह देंगे
इस दिल में ज़रा तुम बैठो तो कुछ हाल हमारा पूछो तो
हम सादा दिल हैं 'अश्क' मगर हर बात पुरानी कह देंगे|
---इब्राहीम अश्क़
समझे न जिसे तुम आँखों से वो बात ज़ुबानी कह देंगे
जो प्यार करेंगे जानेंगे हर बात हमारी मानेंगे
जो ख़ुद न जले हों उल्फ़त में वो आग को पानी कह देंगे,
जब प्यास जवाँ हो जायेगी एहसास की मंज़िल पायेगी
ख़ामोश रहेंगे और तुम्हें हम अपनी कहानी कह देंगे
इस दिल में ज़रा तुम बैठो तो कुछ हाल हमारा पूछो तो
हम सादा दिल हैं 'अश्क' मगर हर बात पुरानी कह देंगे|
---इब्राहीम अश्क़
20 मार्च 2012
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
---अज्ञेय
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
---अज्ञेय
16 मार्च 2012
कॉलेज के रोमांस में
कॉलेज के रोमांस में ऐसा होता था/
डेस्क के पीछे बैठे-बैठे/
चुपके से दो हाथ सरकते
धीरे-धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक पूरा हाथ पकड़ लेता था,
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है चाँद का हाथ फ़लक में आज।।
---गुलज़ार...
डेस्क के पीछे बैठे-बैठे/
चुपके से दो हाथ सरकते
धीरे-धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक पूरा हाथ पकड़ लेता था,
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है चाँद का हाथ फ़लक में आज।।
---गुलज़ार...
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