आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है
तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेहताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने
हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के म’आनी सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मंडराते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है|
--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Jun 11, 2010
चुनरी में दाग
मनवा में मेरे आँधी है उठी, और स्तब्ध खड़ी हूँ मैं
सांसो में बाँध अपनी ही सांस, निशब्द खड़ी हूँ मैं
दुनिया से जीती जीती, खुद से हारी बर ध्वस्त खड़ी हूँ मैं
आइना में और अक्स में, मद मस्त खड़ी हूँ मैं
लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग
चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग
झम झम झम झम झमजवात
अंतर में गूँजे दिवस रात
एक शून्य शून्य कपटी विशाल
माया की दशे से लड़ती मैं भिड़ी
विश्वस्त खड़ी हूँ मैं
मेरी लाज में हूँ, चूनर भी मैं हूँ
चुनर पे दाग भी मैं
[ हो गयी मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया] - 2
हाँ जाके बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे
घर जाऊँ कैसे
[लगा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे] - 2
मैं ध्वस्त ध्वस्त, मैं नष्ट पष्ट
मैं सरल विरल, मैं अति विशिष्ट
मैं श्याम श्वेत, बादल में रेत
निर्झर सी झरी हूँ मैं
अंधियारी रात, दीपक में बाती
स्वपनिल सी खड़ी हूँ मै
कंचन की काया, अपना ही साया
बस खुद से डरी हूँ में
लकड़ी मैं गीली, थोड़ी सीली सीली
थम थम के जली हूँ मैं
मैं माया माया, मैं छाया छाया
आत्मा और काया मैं
[निशब्द खड़ी हूँ मैं] - 2
विश्वस्त खड़ी हूँ मैं
लागा चुनरी में दाग
सर्वत्र खड़ी हूँ मैं
लागा चुनरी में दाग
सर्वत्र खड़ी हूँ मैं
--- स्वानंद किरकिरे
सांसो में बाँध अपनी ही सांस, निशब्द खड़ी हूँ मैं
दुनिया से जीती जीती, खुद से हारी बर ध्वस्त खड़ी हूँ मैं
आइना में और अक्स में, मद मस्त खड़ी हूँ मैं
लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग
चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग
झम झम झम झम झमजवात
अंतर में गूँजे दिवस रात
एक शून्य शून्य कपटी विशाल
माया की दशे से लड़ती मैं भिड़ी
विश्वस्त खड़ी हूँ मैं
मेरी लाज में हूँ, चूनर भी मैं हूँ
चुनर पे दाग भी मैं
[ हो गयी मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया] - 2
हाँ जाके बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे
घर जाऊँ कैसे
[लगा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे] - 2
मैं ध्वस्त ध्वस्त, मैं नष्ट पष्ट
मैं सरल विरल, मैं अति विशिष्ट
मैं श्याम श्वेत, बादल में रेत
निर्झर सी झरी हूँ मैं
अंधियारी रात, दीपक में बाती
स्वपनिल सी खड़ी हूँ मै
कंचन की काया, अपना ही साया
बस खुद से डरी हूँ में
लकड़ी मैं गीली, थोड़ी सीली सीली
थम थम के जली हूँ मैं
मैं माया माया, मैं छाया छाया
आत्मा और काया मैं
[निशब्द खड़ी हूँ मैं] - 2
विश्वस्त खड़ी हूँ मैं
लागा चुनरी में दाग
सर्वत्र खड़ी हूँ मैं
लागा चुनरी में दाग
सर्वत्र खड़ी हूँ मैं
--- स्वानंद किरकिरे
Jun 8, 2010
Aaj bazaar main pa ba jolan chalo
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो
चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीं
तोहमत-ए-इश्क़ पोशीदा काफी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो
दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो
खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो
हाकिम-ए-शहर भी, मजम-ए-आम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी
सुबह-ए-नाशाद भी, रोज़-ए-नाकाम भी
इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जानां मे अब बा-सफा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायां रहा कौन है
रख्त-ए-दिल बांध लो दिलफिगारों चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलो
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो
--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Check Jahane Rumi's webpage for translation and explanation;
Video Weblink of the Poetry Reading by Faiz himself.
दमसाज़ an intimate friend, a cosinger; पा-ब-जौला with fetters in feet, prisoner, helpless; पोशीदा hidden, concealed रक़्सां dancing; रख्त baggage, property; शायां suitable, fit, worthy; शोरीदा mad, desperately in love, disturbed, dejected
चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीं
तोहमत-ए-इश्क़ पोशीदा काफी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो
दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो
खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो
हाकिम-ए-शहर भी, मजम-ए-आम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी
सुबह-ए-नाशाद भी, रोज़-ए-नाकाम भी
इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जानां मे अब बा-सफा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायां रहा कौन है
रख्त-ए-दिल बांध लो दिलफिगारों चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलो
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो
--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Check Jahane Rumi's webpage for translation and explanation;
Video Weblink of the Poetry Reading by Faiz himself.
दमसाज़ an intimate friend, a cosinger; पा-ब-जौला with fetters in feet, prisoner, helpless; पोशीदा hidden, concealed रक़्सां dancing; रख्त baggage, property; शायां suitable, fit, worthy; शोरीदा mad, desperately in love, disturbed, dejected
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