May 29, 2011

सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया
नीली नदी के परे, गीला सा चाँद खिल गया
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

तुमसे मिली जो ज़िन्दगी, हमने अभी बोई नहीं
तुमसे मिली जो ज़िन्दगी, हमने अभी बोई नहीं
तेरे सिवा कोई न था, तेरे सिवा कोई नहीं
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

जाने कहाँ कैसे शहर, ले के चला ये दिल मुझे
जाने कहाँ कैसे शहर, ले के चला ये दिल मुझे
तेरे बगैर दिन न जला, तेरे बगैर शब् न बुझे
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

जितने भी तै करते गए, बढे गए ये फासले
जितने भी तै करते गए, बढे गए ये फासले
मीलों से दिन छोड़ आये, सालों सी रात ले के चले
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया
नीली नदी के परे, गीला सा चाँद खिल गया.

--- गुलज़ार

May 28, 2011

3 Poems from संग्रह: उजाले अपनी यादों के

1.
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगा

ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा

मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगा

तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा

2.
जब सहर चुप हो, हँसा लो हमको
जब अन्धेरा हो, जला लो हमको

हम हक़ीक़त हैं, नज़र आते हैं
दास्तानों में छुपा लो हमको

ख़ून का काम रवाँ रहना है
जिस जगह चाहे बहा लो हमको

दिन न पा जाए कहीं शब का राज़
सुबह से पहले उठा लो हमको

दूर हो जाएंगे सूरज की तरह
हम न कहते थे, उछालो हमको

हम ज़माने के सताये हैं बहोत
अपने सीने से लगा लो हमको

वक़्त के होंट हमें छू लेंगे
अनकहे बोल हैं गा लो हमको

3.
गज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखायेंगे
रोयेंगे बहुत, लेकिन आँसू नहीं आयेंगे

कह देना समन्दर से, हम ओस के मोती हैं
दरिया की तरह तुझ से मिलने नहीं आयेंगे

वो धूप के छप्पर हों या छाँव की दीवारें
अब जो भी उठायेंगे, मिलजुल के उठायेंगे

जब कोई साथ न दे, आवाज़ हमें देना
हम फूल सही लेकिन पत्थर भी उठायेंगे.

---बशीर बद्र

जिन्दगी आयी बनारस का जहाँ नाम आया

मेरे होते भी अगर उनको न आराम आया
जिन्दगी फिर मेरा जीना मेरे किस काम आया

सिर्फ सहबा ही नहीं रात हुई है बदनाम
आप की मस्त निगाहों पे भी इल्जाम आया

तेरे बचने की घड़ी गर्दिशे अय्याम आया
मुझसे हुशियार मेरे हाथ में अब जाम आया

फिर वो सूरज की कड़ी धूप कभी सह न सका
जिसको जुल्फों की घनी छाँव में आराम आया

आज हर फूल को मैं देख रहा था ऐसे
मेरे महबूब का खत जैसे मेरे नाम आया

मौजे गंगा की तरह झूम उठी बज्म नजीर
जिन्दगी आयी बनारस का जहाँ नाम आया

- नजीर बनारसी