29 मई 2011

सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया
नीली नदी के परे, गीला सा चाँद खिल गया
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

तुमसे मिली जो ज़िन्दगी, हमने अभी बोई नहीं
तुमसे मिली जो ज़िन्दगी, हमने अभी बोई नहीं
तेरे सिवा कोई न था, तेरे सिवा कोई नहीं
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

जाने कहाँ कैसे शहर, ले के चला ये दिल मुझे
जाने कहाँ कैसे शहर, ले के चला ये दिल मुझे
तेरे बगैर दिन न जला, तेरे बगैर शब् न बुझे
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया

जितने भी तै करते गए, बढे गए ये फासले
जितने भी तै करते गए, बढे गए ये फासले
मीलों से दिन छोड़ आये, सालों सी रात ले के चले
सिली हवा छू गयी, सिला बदन छिल गया
नीली नदी के परे, गीला सा चाँद खिल गया.

--- गुलज़ार

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें