4 जनवरी 2011

Stanzas Written in Dejection, near Naples

The sun is warm, the sky is clear,
The waves are dancing fast and bright,
Blue isles and snowy mountains wear
The purple noon's transparent might,
The breath of the moist earth is light,
Around its unexpanded buds;
Like many a voice of one delight,
The winds, the birds, the ocean floods,
The City's voice itself, is soft like Solitude's.

I see the Deep's untrampled floor
With green and purple seaweeds strown;
I see the waves upon the shore,
Like light dissolved in star-showers, thrown:
I sit upon the sands alone,—
The lightning of the noontide ocean
Is flashing round me, and a tone
Arises from its measured motion,
How sweet! did any heart now share in my emotion.

Alas! I have nor hope nor health,
Nor peace within nor calm around,
Nor that content surpassing wealth
The sage in meditation found,
And walked with inward glory crowned—
Nor fame, nor power, nor love, nor leisure.
Others I see whom these surround—
Smiling they live, and call life pleasure;
To me that cup has been dealt in another measure.

Yet now despair itself is mild,
Even as the winds and waters are;
I could lie down like a tired child,
And weep away the life of care
Which I have borne and yet must bear,
Till death like sleep might steal on me,
And I might feel in the warm air
My cheek grow cold, and hear the sea
Breathe o'er my dying brain its last monotony.

Some might lament that I were cold,
As I, when this sweet day is gone,
Which my lost heart, too soon grown old,
Insults with this untimely moan;
They might lament—for I am one
Whom men love not,—and yet regret,
Unlike this day, which, when the sun
Shall on its stainless glory set,
Will linger, though enjoyed, like joy in memory yet.

--- P B Shelley

2 जनवरी 2011

ढाका से वापसी पर

हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद

कब नज़र में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मह्र सुब्हें मह्रबाँ रातों के बाद

दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद

उनसे जो कहने गए थे “फ़ैज़” जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद

--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Dua

आइए हाथ उठायें हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत, कोई ख़ुदा याद नहीं

आइए अर्ज़ गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फ़र्दाँ भर दे
वो जिंन्हें ताबे गराँबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब-ओ-रोज़ को हल्का कर दे

जिनकी आँखों को रुख़े सुब्हे का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शम्अ् मुनव्वर कर दे
जिनके क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दे

जिनका दीं पैरवी-ए-कज़्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ़्र मिले, जुरअते-तहक़ीक़ मिले
जिनके सर मुंतज़िरे-तेग़े-जफ़ा हैं उनको
दस्ते-क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले

इश्क़ का सर्रे-निहाँ जान-तपाँ है जिससे
आज इक़रार करें और तपिश मिट जाये
हर्फ़े-हक़ दिल में ख़टकता है जो काँटे की तरह
आज इज़हार करें और ख़लिश मिट जाये

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

25 दिसंबर 2010

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है|
मगर वो आज भी बर्हम नहीं है|

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है|

बहुत कुछ और भी है जहाँ में,
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है|

मेरी बर्बादियों के हम्नशिनों,
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है|

अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुर्नम नहीं है|

'मज़ाज़' एक बादाकश तो है यक़ीनन,
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है|

---मजाज़ लखनवी

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

---मजाज़ लखनवी

15 दिसंबर 2010

Be Nobody’s Darling

Be nobody’s darling;
Be an outcast.

Take the contradictions
Of your life
And wrap around
You like a shawl,
To parry stones
To keep you warm.

Watch the people succumb
To madness
With ample cheer;
Let them look askance at you
And you askance reply.
Be an outcast;

Be pleased to walk alone
(Uncool)
Or line the crowded
River beds
With other impetuous
Fools.

Make a merry gathering
On the bank
Where thousands perished
For brave hurt words
They said.

But be nobody’s darling;
Be an outcast.

Qualified to live
Among your dead.

--- Dedicated to Julian Assange, Co-founder of Wikileaks From Revolutionary Petunias and Other Poems, Harcourt Brace Jovanovich 1986 by Alice Walker.

4 दिसंबर 2010

The Bridge Poem

I’ve had enough
I’m sick of seeing and touching
Both sides of things
Sick of being the damn bridge for everybody
Nobody
Can talk to anybody
Without me
Right?

I explain my mother to my father
my father to my little sister
My little sister to my brother
my brother to the white feminists
The white feminists to the Black church folks
the Black church folks to the ex-hippies
the ex-hippies to the Black separatists
the Black separatists to the artists
the artists to my friends’ parents…

Then
I’ve got to explain myself
To everybody

I do more translating
Than the Gawdamn U.N.

Forget it
I’m sick of it.

I’m sick of filling in your gaps

Sick of being your insurance against
the isolation of your self-imposed limitations

Sick of being the crazy at your holiday dinners

Sick of being the odd one at your Sunday Brunches

Sick of being the sole Black friend to 34 individual white people

Find another connection to the rest of the world
Find something else to make you legitimate
Find some other way to be political and hip

I will not be the bridge to your womanhood
Your manhood
Your humanness

I’m sick of reminding you not to
Close off too tight for too long

I’m sick of mediating with your worst self
On behalf of your better selves

I am sick
Of having to remind you
To breathe
Before you suffocate
Your own fool self

Forget it
Stretch or drown
Evolve or die

The bridge I must be
Is the bridge to my own power
I must translate
My own fears
Mediate
My own weaknesses

I must be the bridge to nowhere
But my true self
And then
I will be useful

---by Donna Kate Rushin

From This Bridge Called My Back: Writings by Radical Women of Color by Cherrie Moraga & Gloria Anzaldua, New York: Kitchen Table Press, 1983.