आज इस वक्त आप हैं,हम हैं
कल कहां होंगे कह नहीं सकते।
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
वक्त मुश्किल है कुछ सरल बनिये
प्यास पथरा गई तरल बनिये।
जिसको पीने से कृष्ण मिलता हो,
आप मीरा का वह गरल बनिये।
जिसको जो होना है वही होगा,
जो भी होगा वही सही होगा।
किसलिये होते हो उदास यहाँ,
जो नहीं होना है नहीं होगा।।
आपने चाहा हम चले आये,
आप कह देंगे हम लौट जायेंगे।
एक दिन होगा हम नहीं होंगे,
आप चाहेंगे हम न आयेंगे॥
---रमानाथ अवस्थी
15 जुलाई 2014
9 जुलाई 2014
Time
This line is the present.
That line you just read is the past
(It fell behind after you read it)
The rest of the poem is the future,
existing outside your
awareness.
The words
are here, whether you read them
or not. And nothing in the world
can change that.
--- Joan Brossa, Translated by A.Z. Foreman.
That line you just read is the past
(It fell behind after you read it)
The rest of the poem is the future,
existing outside your
awareness.
The words
are here, whether you read them
or not. And nothing in the world
can change that.
--- Joan Brossa, Translated by A.Z. Foreman.
2 जुलाई 2014
THE SECOND COMING
Turning and turning in the widening gyre
The falcon cannot hear the falconer;
Things fall apart; the centre cannot hold;
Mere anarchy is loosed upon the world,
The blood-dimmed tide is loosed, and everywhere
The ceremony of innocence is drowned;
The best lack all conviction, while the worst
Are full of passionate intensity.
Surely some revelation is at hand;
Surely the Second Coming is at hand.
The Second Coming! Hardly are those words out
When a vast image out of Spiritus Mundi
Troubles my sight: a waste of desert sand;
A shape with lion body and the head of a man,
A gaze blank and pitiless as the sun,
Is moving its slow thighs, while all about it
Wind shadows of the indignant desert birds.
The darkness drops again but now I know
That twenty centuries of stony sleep
Were vexed to nightmare by a rocking cradle,
And what rough beast, its hour come round at last,
Slouches towards Bethlehem to be born?
--: W.B. Yeats
1 जुलाई 2014
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
आंसू नहीं छलकने देंगे
ऐसी कसम उठा रखी है
होंठ नहीं दाबे दांतों से
हमने चीख दबा रखी है।
माथे पर पत्थर सहते हैं,
छाती पर खंजर सहते हैं
पर कहते पूनम को पूनम
मावस को मावस कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हमने तो खुद्दार जिंदगी के
माने इतने ही माने
जितनी गहरी चोट अधर पर
उतनी ही गहरी मुस्कानें।
फ़ाके वाले दिन को, पावन
एकादशी समझते हैं
पर मुखिया की देहरी पर
जाकर आदाब नहीं कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हम स्वर हैं झोपड़पट्टी के
रंगमहल के राग नहीं हैं
आत्मकथा बागी लहरों की
गंधर्वों के फ़ाग नहीं हैं।
हम चिराग हैं, रात-रात भर
दुनिया की खातिर जलते हैं
अपनी तो धारा उलटी है
धारा में मुर्दे बहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
--- शिवओम ‘अम्बर’ फ़र्रुखाबाद
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
आंसू नहीं छलकने देंगे
ऐसी कसम उठा रखी है
होंठ नहीं दाबे दांतों से
हमने चीख दबा रखी है।
माथे पर पत्थर सहते हैं,
छाती पर खंजर सहते हैं
पर कहते पूनम को पूनम
मावस को मावस कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हमने तो खुद्दार जिंदगी के
माने इतने ही माने
जितनी गहरी चोट अधर पर
उतनी ही गहरी मुस्कानें।
फ़ाके वाले दिन को, पावन
एकादशी समझते हैं
पर मुखिया की देहरी पर
जाकर आदाब नहीं कहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
हम स्वर हैं झोपड़पट्टी के
रंगमहल के राग नहीं हैं
आत्मकथा बागी लहरों की
गंधर्वों के फ़ाग नहीं हैं।
हम चिराग हैं, रात-रात भर
दुनिया की खातिर जलते हैं
अपनी तो धारा उलटी है
धारा में मुर्दे बहते हैं।
अपनी आदत , चुप रहते हैं,
या फिर बहुत खरा कहते हैं।
हमसे लोग खफ़ा रहते हैं॥
--- शिवओम ‘अम्बर’ फ़र्रुखाबाद
30 जून 2014
गरीबदास का शून्य
-अच्छा सामने देख
आसमान दिखता है?
- दिखता है।
- धरती दिखती है?
- दिखती है।
- ये दोनों जहाँ मिलते हैं
वो लाइन दिखती है?
- दिखती है साब।
इसे तो बहुत बार देखा है।
- बस ग़रीबदास
यही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएँगे
तू दौड़ता जाएगा, दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहाँ तक
कभी नहीं पहुँच पाएगा।
और जब, पहुँच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा?
जहाँ हैं, वहीं का वहीं रह जाएगा।
गरीबदास!
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती,
हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।
---अशोक चक्रधर
आसमान दिखता है?
- दिखता है।
- धरती दिखती है?
- दिखती है।
- ये दोनों जहाँ मिलते हैं
वो लाइन दिखती है?
- दिखती है साब।
इसे तो बहुत बार देखा है।
- बस ग़रीबदास
यही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएँगे
तू दौड़ता जाएगा, दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहाँ तक
कभी नहीं पहुँच पाएगा।
और जब, पहुँच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा?
जहाँ हैं, वहीं का वहीं रह जाएगा।
गरीबदास!
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती,
हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।
---अशोक चक्रधर
25 जून 2014
So you want to be a writer?
So you want to be a writer?
if it doesn’t come bursting out of you
in spite of everything,
don’t do it.
unless it comes unasked out of your
heart and your mind and your mouth
and your gut,
don’t do it.
if you have to sit for hours
staring at your computer screen
or hunched over your
typewriter
searching for words,
don’t do it.
if you’re doing it for money or
fame,
don’t do it.
if you’re doing it because you want
women in your bed,
don’t do it.
if you have to sit there and
rewrite it again and again,
don’t do it.
if it’s hard work just thinking about doing it,
don’t do it.
if you’re trying to write like somebody
else,
forget about it.
if you have to wait for it to roar out of
you,
then wait patiently.
if it never does roar out of you,
do something else.
if you first have to read it to your wife
or your girlfriend or your boyfriend
or your parents or to anybody at all,
you’re not ready.
don’t be like so many writers,
don’t be like so many thousands of
people who call themselves writers,
don’t be dull and boring and
pretentious, don’t be consumed with self-
love.
the libraries of the world have
yawned themselves to
sleep
over your kind.
don’t add to that.
don’t do it.
unless it comes out of
your soul like a rocket,
unless being still would
drive you to madness or
suicide or murder,
don’t do it.
unless the sun inside you is
burning your gut,
don’t do it.
when it is truly time,
and if you have been chosen,
it will do it by
itself and it will keep on doing it
until you die or it dies in you.
there is no other way.
and there never was.
~ Charles Bukowski
if it doesn’t come bursting out of you
in spite of everything,
don’t do it.
unless it comes unasked out of your
heart and your mind and your mouth
and your gut,
don’t do it.
if you have to sit for hours
staring at your computer screen
or hunched over your
typewriter
searching for words,
don’t do it.
if you’re doing it for money or
fame,
don’t do it.
if you’re doing it because you want
women in your bed,
don’t do it.
if you have to sit there and
rewrite it again and again,
don’t do it.
if it’s hard work just thinking about doing it,
don’t do it.
if you’re trying to write like somebody
else,
forget about it.
if you have to wait for it to roar out of
you,
then wait patiently.
if it never does roar out of you,
do something else.
if you first have to read it to your wife
or your girlfriend or your boyfriend
or your parents or to anybody at all,
you’re not ready.
don’t be like so many writers,
don’t be like so many thousands of
people who call themselves writers,
don’t be dull and boring and
pretentious, don’t be consumed with self-
love.
the libraries of the world have
yawned themselves to
sleep
over your kind.
don’t add to that.
don’t do it.
unless it comes out of
your soul like a rocket,
unless being still would
drive you to madness or
suicide or murder,
don’t do it.
unless the sun inside you is
burning your gut,
don’t do it.
when it is truly time,
and if you have been chosen,
it will do it by
itself and it will keep on doing it
until you die or it dies in you.
there is no other way.
and there never was.
~ Charles Bukowski
20 जून 2014
My favourite poetry
1- वो दौर भी देखा है, तारीख की आंखों ने, लमहे ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।
2- लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो, शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गये | - दुश्यंत कुमार
3- गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या क्या है, मैं आ गया हूँ बता इंतिज़ाम क्या क्या है | - राहत इंदौरी
4- जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते, सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है | - राहत इंदौरी
5- मुसलसल हादिसों से बस मुझे इतनी शिकायत है, कि ये आंसू बहाने की भी तो मोहलत नहीं देते | - वसीम बरेलवी
6- ये बात तो इस बाग़ के हक़ में नहीं जाती, कुछ फूल भी काँटों की हिमायत में खड़े हैं | - वसीम बरेलवी
7- ये अपनी मस्ती है जिसने मचाई है हलचल, नशा शराब में होता तो नाचती बोतल | - आरिफ़ जलाली
8- इसी सबब से हैं शायद अज़ाब जितने हैं, झटक के फेंक दो पल्कों पे ख़्वाब जितने हैं | -जां निसार अख़्तर
9- ज़माने में कभी भी क़िस्मतें बदला नहीं करतीं, उमीदों से भरोसों से दिलासों से सहारों से | - कैफ़ भोपाली
10- मुद्दतें गुज़रीं तिरी याद भी आई न हमें, और तुझे भूल गये हों कभी ऐसा भी नहीं | - फ़िराक़ गोरखपुरी
11- फ़ुरसतें चाट रही हैं मेरी हस्ती का लहू, मुंतज़िर हूं के मुझे कोई बुलाने आये | - राहत इन्दौरी
12- इश्क़ का ज़ौक़ ए नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है, हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए | - मजाज़ लखनवी
13- दुनिया में आदमी को मुसीबत कहां नहीं, वो कौन सी ज़मीं है, जहां आसमां नहीं | - दाग़
14- मिरी मुफ़लिसी से बचकर कहीं और जानेवाले, ये सुकूं न मिल सकेगा तुझे रेशमी कफ़न में | - क़तील शिफ़ाई
15- अजीब लोग थे, क़ब्रों पे जान देते थे, सड़क की लाश का कोई भी दावेदार न था | - वसीम बरेलवी
16- उसे क्या मिलेगी मंज़िल रहे ज़िन्दगी में 'रज़्मी ', जो क़दम क़दम पे पूछे अभी कितना फ़ासला है | - मुज़फ़्फ़र रज़्मी
17- गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो, अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो | -नासिर काज़मी
18- दिल उजड़ी हुई एक सराय की तरह है, अब लोग यहां रात बिताने नहीं आते | - बशीर बद्र
19- ये सोच कर के दरख़्तों में छांव होती है, यहां बबूल के साये में आके बैठ गये | - दुश्यंत कुमार
20- नाउमीदी बढ गई है इस क़दर, आरज़ू की आरज़ू होने लगी | - दाग़
21- ज़रूरत ही नहीं अहसास को अलफ़ाज़ की कोई, समंदर की तरह अहसास में शिद्दत ही काफ़ी है।
22- मैं भी सुकरात हूँ सच बोल दिया है मैंने, ज़हर सारा मेरे होंटों के हवाले कर दे। - मुनव्वर राना
23- हज़ार खौफ़ हों पर ज़ुबां हो सच की रफ़ीक, यही रहा है अजल से कलंदरों का तरीक | - मोहानी
24- जम्हूरियत वो तर्ज़े-हुकूमत है, कि जिस में, बन्दों को गिना जाता हैं, तोला नहीं जाता |
25- मैं ख़ुदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तों, ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जायेगा। ~बशीर बद्र
26- नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है, हम भी ऐसे ही थे जब आये थे वीराने में | - अहमद मुश्ताक़
27- अब तो चलते हैं, बुतकदे से मीर, फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया | - मीर तक़ी 'मीर'
28- कैसा तौहीने लफ़्ज़ हस्ती है, जीने वालों ये कैसी बस्ती है, मौत को लोग यहां देते हैं कांधा, ज़िन्दगी रहम को तरसती है | - वसीम बरेलवी
29- गुलों ने ख़ारों के छेडने पर, सिवा ख़ामोशी के दम न मारा, शरीफ़ उलझें अगर किसी से तो फिर शराफ़त कहाँ रहेगी | - शाद अज़ीमाबादी
30- हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे, वो फ़लाने से, फ़लाने से, फ़लाने से मिले | - कैफ़ भोपाली
31- पहले रग रग से मेरी ख़ून निचोडा उसने, अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी पीली है | - मुज़फ़्फ़र वारसी
32- नतीजा एक ही निकला कि थी क़िस्मत में नाकामी, कभी कुछ कह के पछताये, कभी चुप रह के पछताये। - 'आरज़ू’ लखनवी
33- कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो | - बशीर ‘बद्र’
34- कुर्सी है कोई आपका जनाज़ा तो नहीं है, कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते |
35- 'शुजा' मौत से पहले ज़रूर जी लेना, ये काम भूल न जाना, बडा ज़रूरी है | - शुजा ख़ाविर
36- सच घटे या बडे तो सच न रहे, झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं, जड दो चांदी में चाहे सोने में, आईना झूठ बोलता ही नहीं | - कृष्ण बिहारी नूर
37- तुम अभी शहर में क्या नए आये हो, रुक गए राह में हादिसा देख कर | - बशीर बद्र
38- हम ख़ुदा के कभी क़ाइल ही न थे, उनको देखा तो ख़ुदा याद आया | - मीर तक़ी 'मीर'
39- एक पल के रुकने से दूर हो गई मंज़िल, सिर्फ़ हम नहीं चलते रास्ते भी चलते हैं | - शाहिद सिद्दीक़ी
40- मुहब्बत में बिछडने का हुनर सबको नहीं आता, किसी को छोडना हो तो मुलाक़ातें बडी करना | - वसीम बरेलवी
41- नहीं चलने लगी यूं मेरे पीछे, ये दुनिया मैंने ठुकराई बहुत है | - वसीम बरेलवी
42- पाल ले कोई रोग नादां ज़िन्दगी के वास्ते, सिर्फ़ सेहत के सहारे ज़िन्दगी कटती नहीं | -फ़िराक़ गोरखपुरी
43- जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन, बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की ।
44- ये कहां की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह, कोई चारसाज़ होता, कोई ग़म्गुसार होता ।
45- शाम भी थी धुआं धुआं, हुस्न भी था उदास उदास, दिल को कई कहानियां याद सी आ के रह गई | -फ़िराक़ गोरखपुरी
46- रात भारी सही कटेगी ज़रूर, दिन कडा था मगर गुज़र के रहा | - अहमद नदीम क़ासिमी
47- लो देख लो, ये इश्क़ है ये वस्ल है, ये हिज्र, अब लौट चलें आओ, बहुत काम पडा है | -जावेद अख़्तर
48- अपने ही ग़म से नहीं मिलती नजात, इस बिना पे फ़िक्रे आलम क्या करें | - दाग़ देहलवी
49- माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके, कुछ ख़ार कम तो कर गए, गुज़रे जिधर से हम | - साहिर लुधिआनवी
50 - ठोकरे खा कर भी ना संभले तो, मुसाफिर का नसीब, वरना पत्थरों ने तो, अपना फ़र्ज़ निभा दिया। |
Source - My favourite poetry
2- लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो, शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गये | - दुश्यंत कुमार
3- गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या क्या है, मैं आ गया हूँ बता इंतिज़ाम क्या क्या है | - राहत इंदौरी
4- जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते, सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है | - राहत इंदौरी
5- मुसलसल हादिसों से बस मुझे इतनी शिकायत है, कि ये आंसू बहाने की भी तो मोहलत नहीं देते | - वसीम बरेलवी
6- ये बात तो इस बाग़ के हक़ में नहीं जाती, कुछ फूल भी काँटों की हिमायत में खड़े हैं | - वसीम बरेलवी
7- ये अपनी मस्ती है जिसने मचाई है हलचल, नशा शराब में होता तो नाचती बोतल | - आरिफ़ जलाली
8- इसी सबब से हैं शायद अज़ाब जितने हैं, झटक के फेंक दो पल्कों पे ख़्वाब जितने हैं | -जां निसार अख़्तर
9- ज़माने में कभी भी क़िस्मतें बदला नहीं करतीं, उमीदों से भरोसों से दिलासों से सहारों से | - कैफ़ भोपाली
10- मुद्दतें गुज़रीं तिरी याद भी आई न हमें, और तुझे भूल गये हों कभी ऐसा भी नहीं | - फ़िराक़ गोरखपुरी
11- फ़ुरसतें चाट रही हैं मेरी हस्ती का लहू, मुंतज़िर हूं के मुझे कोई बुलाने आये | - राहत इन्दौरी
12- इश्क़ का ज़ौक़ ए नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है, हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए | - मजाज़ लखनवी
13- दुनिया में आदमी को मुसीबत कहां नहीं, वो कौन सी ज़मीं है, जहां आसमां नहीं | - दाग़
14- मिरी मुफ़लिसी से बचकर कहीं और जानेवाले, ये सुकूं न मिल सकेगा तुझे रेशमी कफ़न में | - क़तील शिफ़ाई
15- अजीब लोग थे, क़ब्रों पे जान देते थे, सड़क की लाश का कोई भी दावेदार न था | - वसीम बरेलवी
16- उसे क्या मिलेगी मंज़िल रहे ज़िन्दगी में 'रज़्मी ', जो क़दम क़दम पे पूछे अभी कितना फ़ासला है | - मुज़फ़्फ़र रज़्मी
17- गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो, अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो | -नासिर काज़मी
18- दिल उजड़ी हुई एक सराय की तरह है, अब लोग यहां रात बिताने नहीं आते | - बशीर बद्र
19- ये सोच कर के दरख़्तों में छांव होती है, यहां बबूल के साये में आके बैठ गये | - दुश्यंत कुमार
20- नाउमीदी बढ गई है इस क़दर, आरज़ू की आरज़ू होने लगी | - दाग़
21- ज़रूरत ही नहीं अहसास को अलफ़ाज़ की कोई, समंदर की तरह अहसास में शिद्दत ही काफ़ी है।
22- मैं भी सुकरात हूँ सच बोल दिया है मैंने, ज़हर सारा मेरे होंटों के हवाले कर दे। - मुनव्वर राना
23- हज़ार खौफ़ हों पर ज़ुबां हो सच की रफ़ीक, यही रहा है अजल से कलंदरों का तरीक | - मोहानी
24- जम्हूरियत वो तर्ज़े-हुकूमत है, कि जिस में, बन्दों को गिना जाता हैं, तोला नहीं जाता |
25- मैं ख़ुदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तों, ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जायेगा। ~बशीर बद्र
26- नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है, हम भी ऐसे ही थे जब आये थे वीराने में | - अहमद मुश्ताक़
27- अब तो चलते हैं, बुतकदे से मीर, फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया | - मीर तक़ी 'मीर'
28- कैसा तौहीने लफ़्ज़ हस्ती है, जीने वालों ये कैसी बस्ती है, मौत को लोग यहां देते हैं कांधा, ज़िन्दगी रहम को तरसती है | - वसीम बरेलवी
29- गुलों ने ख़ारों के छेडने पर, सिवा ख़ामोशी के दम न मारा, शरीफ़ उलझें अगर किसी से तो फिर शराफ़त कहाँ रहेगी | - शाद अज़ीमाबादी
30- हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे, वो फ़लाने से, फ़लाने से, फ़लाने से मिले | - कैफ़ भोपाली
31- पहले रग रग से मेरी ख़ून निचोडा उसने, अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी पीली है | - मुज़फ़्फ़र वारसी
32- नतीजा एक ही निकला कि थी क़िस्मत में नाकामी, कभी कुछ कह के पछताये, कभी चुप रह के पछताये। - 'आरज़ू’ लखनवी
33- कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो | - बशीर ‘बद्र’
34- कुर्सी है कोई आपका जनाज़ा तो नहीं है, कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते |
35- 'शुजा' मौत से पहले ज़रूर जी लेना, ये काम भूल न जाना, बडा ज़रूरी है | - शुजा ख़ाविर
36- सच घटे या बडे तो सच न रहे, झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं, जड दो चांदी में चाहे सोने में, आईना झूठ बोलता ही नहीं | - कृष्ण बिहारी नूर
37- तुम अभी शहर में क्या नए आये हो, रुक गए राह में हादिसा देख कर | - बशीर बद्र
38- हम ख़ुदा के कभी क़ाइल ही न थे, उनको देखा तो ख़ुदा याद आया | - मीर तक़ी 'मीर'
39- एक पल के रुकने से दूर हो गई मंज़िल, सिर्फ़ हम नहीं चलते रास्ते भी चलते हैं | - शाहिद सिद्दीक़ी
40- मुहब्बत में बिछडने का हुनर सबको नहीं आता, किसी को छोडना हो तो मुलाक़ातें बडी करना | - वसीम बरेलवी
41- नहीं चलने लगी यूं मेरे पीछे, ये दुनिया मैंने ठुकराई बहुत है | - वसीम बरेलवी
42- पाल ले कोई रोग नादां ज़िन्दगी के वास्ते, सिर्फ़ सेहत के सहारे ज़िन्दगी कटती नहीं | -फ़िराक़ गोरखपुरी
43- जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन, बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की ।
44- ये कहां की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह, कोई चारसाज़ होता, कोई ग़म्गुसार होता ।
45- शाम भी थी धुआं धुआं, हुस्न भी था उदास उदास, दिल को कई कहानियां याद सी आ के रह गई | -फ़िराक़ गोरखपुरी
46- रात भारी सही कटेगी ज़रूर, दिन कडा था मगर गुज़र के रहा | - अहमद नदीम क़ासिमी
47- लो देख लो, ये इश्क़ है ये वस्ल है, ये हिज्र, अब लौट चलें आओ, बहुत काम पडा है | -जावेद अख़्तर
48- अपने ही ग़म से नहीं मिलती नजात, इस बिना पे फ़िक्रे आलम क्या करें | - दाग़ देहलवी
49- माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके, कुछ ख़ार कम तो कर गए, गुज़रे जिधर से हम | - साहिर लुधिआनवी
50 - ठोकरे खा कर भी ना संभले तो, मुसाफिर का नसीब, वरना पत्थरों ने तो, अपना फ़र्ज़ निभा दिया। |
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