20 सितंबर 2017

The Development Set

‘Excuse me, friends, I must catch my jet
I’m off to join the Development Set;
My bags are packed, and I’ve had all my shots
I have traveller’s checks and pills for the trots!

The Development Set is bright and noble
Our thoughts are deep and our vision global;
Although we move with the better classes
Our thoughts are always with the masses.

In Sheraton Hotels in scattered nations
We damn multi-national corporations;
injustice seems easy to protest
In such seething hotbeds of social rest.

We discuss malnutrition over steaks
And plan hunger talks during coffee breaks.
Whether Asian floods or African drought,
We face each issue with open mouth.

We bring in consultants whose circumlocution
Raises difficulties for every solution –
Thus guaranteeing continued good eating
By showing the need for another meeting.

The language of the Development Set
Stretches the English alphabet;
We use swell words like “epigenetic”
“Micro”, “macro”, and “logarithmetic”

It pleasures us to be esoteric –
It’s so intellectually atmospheric!
And although establishments may be unmoved,
Our vocabularies are much improved.

When the talk gets deep and you’re feeling numb,
You can keep your shame to a minimum:
To show that you, too, are intelligent
Smugly ask, “Is it really development?”

Or say, “That’s fine in practice, but don’t you see:
It doesn’t work out in theory!”
A few may find this incomprehensible,
But most will admire you as deep and sensible.

Development set homes are extremely chic,
Full of carvings, curios, and draped with batik.
Eye-level photographs subtly assure
That your host is at home with the great and the poor.

Enough of these verses – on with the mission!
Our task is as broad as the human condition!
Just pray god the biblical promise is true:
The poor ye shall always have with you.’

- Ross Coggins

5 सितंबर 2017

प्रश्नपत्र

अकवि क्या है:

वह, जो ताबूत और अस्थि-कलश की दलाली करता है?

एक जनरल, जो खुद के बारे में ही निश्चित नहीं है?

एक पादरी, जिसे किसी चीज पर आस्था नहीं है?

एक सैलानी, जिसके लिए हर चीज अजीब है; वृद्धावस्था और मृत्यु भी?

एक वक्ता, जिस पर आप विश्वास नहीं कर सकते?

खड़ी-चट्टान की कोर पर खड़ी एक नर्तकी ?

एक आत्ममुग्ध, जो हर किसी से प्यार करता है?

एक जोकर, जो गाल बजाता है

और बेवज़ह यूँ ही बुरा बनता है ?

एक कवि जो कुर्सी पर सोता है?

आधुनिक समय का एक कीमियागर?

एक आरामतलब क्रांतिकारी?

एक पेटी-बुर्जुआ?

एक जालसाज?

एक ईश्वर?

एक मासूम?

सैंटियागो, चिली का एक किसान?

सही उत्तर को रेखांकित करें.

अकविता क्या है:

चाय की प्याली में एक तूफ़ान?

चट्टान पर बर्फ का एक धब्बा?

मानव-मल से ऊपर तक भरा एक पतीला,

जैसा कि फादर साल्वेतियेरा मानता है?

एक आइना, जो झूठ नहीं बोलता?

लेखक-संगठन के अध्यक्ष के गाल पर पड़ा एक तमाचा?

(ईश्वर उनके आत्मा की रक्षा करे!)

युवा कवियों को एक चेतावनी?

जेट-चालित एक ताबूत?

एक ताबूत, जो वायुमंडलीय दायरे से बाहर परिक्रमा करता है?

एक ताबूत, जो कि केरोसिन से चलता है?

एक शवदाह-गृह, जहाँ कोई शव नहीं है?

सही उत्तर के सामने X चिन्हित करें.

---निकानोर पार्रा (उदय शंकर द्वारा अनुदित)

31 अगस्त 2017

आओ, आज के दिन हम हो जाएं जला चेहरा

तुमने ठीक ही कहा
तुम बस्तर
और आदिवासी भारत का
जला हुआ चेहरा हो
पर यह चेहरा जुगनुओं की मानिंद
हत्यारों के स्याह चेहरों पर
टिमटिमा रहा है
सूरज की हजारों हजार किरणों की
गरमी और आभा लिए
अपने आंचल में सहेज रहा है देश
तुम्हारी गरमी तुम्हारा ऊर्जा
तुम अपने दीप्त खूबसूरत चेहरे के साथ
हमेशा उमड़ती रहोगी देश के ह्दय में
जब भी मुक्ति का प्रसंग आएगा
अणु अणु जुगनुओं सा मुस्कुराता तुम्हारा चेहरा
देश को बदल देगा एक पहाड़ में

- वंदना टेटे

15 अगस्त 2017

संख्या के बच्चे

सच है ये शून्य हैं -
और तुम एक हो l
बड़े शक्तिशाली हो,
क्योंकि शून्य के पहले
उसके दुर्भाग्य-से खड़े हो l
अपनी आकांक्षा के क़ुतुब बने सांख्य !
मत भूलो -
तुम भी आंकड़े हो l

मत भूलो -
तुम केवल एक हो
शून्य ही दहाई हैं, शून्य ही असंख्य हैं l
शून्य नहीं धब्बे हैं,
आंसू की बूंदों-से,
लोहू के कतरों-से, शून्य ये सच्चे हैं l
संख्या के बच्चे हैं l

शून्यों से मुंह फेर खड़े होने वाले !
शून्य अगर हट जाएं
ठूठे की अंगुली से केवल रह जाओगे l
मत भूलो -
शून्य शक्ति है, शून्य प्रजा है l

---श्रीकांत वर्मा

9 अगस्त 2017

हम जरूर जिएंगे ही, पठार की तरह निडर

पठारी क्षेत्र में तुमने
हमें (असुरों को) जन्म दिया
पर जिंदा रहने के लिए रास्ता नहीं बतलाया
पठारी क्षेत्र में तुमने
हमें (असुरों को) मजदूर बनाया
पर स्कूल जाने के लिए पैसा नहीं दिया
हमें आगे बढऩे के लिए रास्ता नहीं बतलाया

अब तो हमारे पास भाषा नहीं है
अब तो हमारे पास संस्कृति नहीं है
हम तुम्हें कैसे पुकारें
हम तुम्हें किस विधि से याद करें

हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
तुम्हारे भोजन की जिम्मेवारी जंगल की थी
तुम्हारी मजूरी खेत की जिम्मेवारी थी
यहां से वहां तक फैला पठार ही तुम्हारी पाठशाला थी
पहाड़-झरने तुम्हें रास्ता बताते थे

हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
तुम सब नहीं जानते थे कचिया-ढिबा (रुपया-पैसा)
तुम सब नहीं जानते थे परजीविता

हम तुम्हें दोष नहीं देते
हम तुम्हें अपनी असहायता के लिए
कोर्ट-कचहरी नहीं करते
पर जब कंपनी धम-धम आती है
पर जब सरकार दम-दम बेदम करती है
हम किसको गोहराएं
हम किस छाती में आसरा ढूंढे

हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
हम सीखेंगे तुम्हारी तरह बोलना
हम सीखेंगे तुम्हारी तरह नाचना
हम करेंगे शिकार तुम्हारी तरह
उन सभी जानवरों का
जो असुरों के घर खोद रहे हैं
जो हमारे झरनों को फुसला-बहला रहे हैं
जिन्हें धरती और इंसान खाने की लत है
हम जरूर जिएंगे तुम्हारी तरह ही
पठार की तरह निश्चिंत-निश्छल
तुम्हारे रचे इस असुर दिसुम में

--- सुषमा असुर

5 अगस्त 2017

यह 1857 की तोप

कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !

---वीरेन डंगवाल

29 जुलाई 2017

Making Peace

A voice from the dark called out,
“The poets must give us
imagination of peace, to oust the intense, familiar
imagination of disaster. Peace, not only
the absence of war.”
But peace, like a poem,
is not there ahead of itself,
can’t be imagined before it is made,
can’t be known except
in the words of its making,
grammar of justice,
syntax of mutual aid.
A feeling towards it,
dimly sensing a rhythm, is all we have
until we begin to utter its metaphors,
learning them as we speak.
A line of peace might appear
if we restructured the sentence our lives are making,
revoked its reaffirmation of profit and power,
questioned our needs, allowed
long pauses. . . .
A cadence of peace might balance its weight
on that different fulcrum; peace, a presence,
an energy field more intense than war,
might pulse then,
stanza by stanza into the world,
each act of living
one of its words, each word
a vibration of light–facets
of the forming crystal.

--- Denise Levertov