29 दिसंबर 2011

ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे

ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे
मगर हम यहाँ से गुज़र जाएँगे

इसी खौफ से नींद आती नहीं
कि हम ख्वाब देखेंगे डर जाएँगे

डराता बहुत है समन्दर हमें
समन्दर में इक दिन उतर जाएँगे

जो रोकेगी रस्ता कभी मंज़िलें
घड़ी दो घड़ी को ठहर जाएँगे

कहाँ देर तक रात ठहरी कोई
किसी तरह ये दिन गुज़र जाएँगे

इसी खुशगुमानी ने तनहा किया
जिधर जाऊँगा, हमसफ़र जाएँगे

बदलता है सब कुछ तो 'आलम' कभी
ज़मीं पर सितारे बिखर जाएँगे

--'आलम खुर्शीद'

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