Sometimes I feel that all those fallen soldiers, Who never left the bloody battle zones, Have not been buried to decay and molder, But turned into white cranes that softly groan.
And thus, until these days since those bygone times They have been flying calling us with cries. Isn’t it why we often hear those sad chimes And calmly freeze, while looking in the skies?
A tired flock of cranes still flies – their wings flap. Birds glide into the twilight, roaming free. In their formation I can see a small gap – It might be so, that space is meant for me.
The day shall come, when in the mist of ashen My final rest among those cranes I’ll find, From the skies calling – in a bird-like fashion – All those of you, who I’ll have left behind.
Sometimes I feel that all those fallen soldiers, Who never left the bloody battle zones, Have not been buried to decay and molder, But turned into white cranes that softly groan…
--- Rasul Gazmatov (English translation by an American poet, Leo Schwartzberg)
हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी, हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब। हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे, हमनी के कबले कलेसवा उठाइब। पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां, बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब। हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे, बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।
खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले। धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै, परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले। मरले रवनवां कै पलले भभिखना के, कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले। कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब, डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।
हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां, दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि। ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी, हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि। हाकिमे के लसकरि उतरल बानी, जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि। मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी, ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।
बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां, ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि। सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां, अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि। भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां, पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब। अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां, घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।
हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै; ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी। ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे सगरै इलकवा भइलैं जजमानी। हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां, पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी। पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं, हमनी के एतनी काही के हलकानी।।
--- कवि हीरा डोम ( सितम्बर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित)
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है इस शब्द के अर्थ खेतों के उन बेटों में है जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से वक़्त मापते है उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं और वह भूख लगने पर अपने अंग भी चबा सकते है उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है और मौत के अर्थ है मुक्ति जब भी कोई समूचे भारत की 'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है तो मेरा दिल चाहता है -- उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ उसे बताऊँ के भारत के अर्थ किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं वरन खेत में दायर है जहाँ अन्न उगता है जहाँ सेंध लगती है