1 अप्रैल 2011

आरज़ू

जाने किसकी तलाश उनकी आँखों मे थी,
आरज़ू के मुसाफिर भटकते रहे,
जितने भी वो चले उतने ही बिछ गए राह में फासले,
ख्वाब मंजिलें थे और मंजिलें ख्वाब थी,
रास्तों से निकलते रहे रास्ते जाने किसके वास्ते,
आरज़ू के मुसाफिर भटकते रहे...

कोई पुरानी याद मेरा रास्ता रोककर मुझसे कहती है
इतनी जलती धुप में यूँ कब तक बैठोगे
आओ चल के बीते दिनों की छाव में बैठे
उस लम्हे की बात करे जिसमे कोई फूल खिला था
उस लम्हे की बात करे जिसमे किसी की आवाज की चांदी खनक उठी थी
उस लम्हे की बात करे जिसमे किसी की नजरो के मोती बरसे थे
कोई पुरानी याद मेरा रास्ता रोके...

सच तो यह है की कसूर अपना था,
चाँद को छूने की तमन्ना की,
आसमान को ज़मीन पर माँगा,
फूल, चाहा की पत्थरों में खिलें,
कांटो में की तलाश खुशबू की,
आरज़ू थी की आग ठंडक दे,
बर्फ में ढूंढते रहे गर्मी,
ख्वाब जो देखा चाहा सच हो जाये,
इसकी हमको सज़ा तो मिलनी ही थी,
सच तो यह है कसूर अपना ही था...

---जावेद अख़्तर

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