1 सितंबर 2012

Slip

I count up the corpses and aircraft
Falling in pieces from the news
I count the bullets that are exhumed,
The bullets that are buried
And the bullets preparing
To be shot loose.
I follow the ritual of food.
I finish my plate
By eating the plate
After a day of hard labor.

When did I get this heartless?
Tomorrow, I'll make room in a corner of your chest
Where I can cry
And I just might exhume the corpse out of my chest
And prepare a ritual
Of proper burial.

---By Nawal Naffaa
Translated by A.Z. Foreman

24 अगस्त 2012

Negah Kon

Listen!

(1)

The bad year,
The sad year,
The windy year,
The tearful year,
The year of overwhelming doubts.

The year,
whose days were running too long,
and its patience-falling too short.

The year that Pride,
the year that Sense of Pride,
begged at their knees.

The year of plight,
The lowly year,
The year of shadow-
and sorrow.

The year Poury cried;
The year of Morteza’s blood;
The resigning leap year…

(2)

Life is not a trap.
Love is not a trap.
Not even death has ever been a trap-
a trap to me.
For the dearly loved-
and the dearly dead,
fly free, fly in freedom,
fine and whole.

(3)

I found my love in the bad year,
in the sad year,
and it repeats to me-
again and again:
“Do not give in!”

I found my hope in the ocean of despair,
My silvery moonlight in the dark night,
My love in the year of plight,
And exactly when-
I was about to turn into ash-
I went on fire.

Life was spiteful to me-
but somehow-
I could just smile.

This earth was cruel to me-
but somehow-
I could just lay unafraid-
on the ground.

For perhaps,
looking inside-
I could somehow decide-
that life is not dark,
and Earth is neat.

***
I was bad.
But I was not evil.
I escaped from Evil.
And the whole world cursed me.

Then,
the bad year,
the sad year arrived:
The year Poury cried;
The year of Morteza’s blood;
The year of gloom.

But somehow,
somewhere-
in that year-
I found the stars,
I found the sublime,
I found the good.
And I bloomed.

You are fine.
And it is a confession.

I have already-
confessed and cried-
many times.

Now,
I can somehow-
confess and smile.
Perhaps for I could decide-
the first and the last,
the dark and the light,
and days and nights,
are meant to merge.

(4)

You are fine.
And I was not evil.
I found you somewhere in this world-
and my might,
and my words,
my flesh and my soul,
all turned into poem.

Even the hardest rocks-
turned into poem.

And,
Evil turned into a verse,
And the verse turned into beauty.

So the Heavens sang,
the birds sang,
and water danced.

I asked you:
“Be my small sparrow and I become-
by your return, next spring-
a blossomed tree.”

The snow melted,
flowers beamed.
And Sun smiled.

And I watched,
And I somehow changed.
To you,
I now confess:
“You are swell,
and the bad year,
the sad year, well,
is gone.”

You smiled.
And I came back-
to Life.

(5)

I want to be good.
I want to be you!
This is all I can now confess.

Listen!
Stay with me!
Stay forever- if you please!


By Ahmad Shamlou
Translation: Maryam Dilmaghani, July 2009, New Brunswick

Translated from the poem "Negah Kon" first published in the anthology Havay-e Tazeh (Fresh Air) 1957, Tehran.

15 अगस्त 2012

यही बाकी निशां होगा !

अरूजे कामयाबी पर कभी तो हिन्दुस्तां होगा ।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियां हेागा ।।

चखायेगे मजा बरबादिये गुलशन का गुलची को ।
बहार आयेगी उस दिन जब कि अपना बागवां होगा ।।

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है ।
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तहां होगा ।।

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दें वतन हरगिज ।
न जाने बाद मुर्दन मैं कहां.. और तू कहां होगा ।।

यह आये दिन को छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे कातिल !
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा ।।

शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगें हर बरस मेले ।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।

इलाही वह भी दिन होगा जब अपना राज्य देखेंगे ।
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा ।।

--- पं० जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी'

This poem is wrongly attributed to RamPrasad Bismil while its author was Pandit Jagdamba Prasad Mishra 'Hiteshi'.

किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है?

किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्‍कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्‍चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्‍बीस
उसीका पन्‍द्रह अगस्‍त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्‍त है...

कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्‍त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्‍त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्‍त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्‍त है

पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्‍टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्‍चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्‍ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्‍छों नहीं! कुच्‍छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्‍ते हैं, पत्‍तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्‍छों नहीं, कुच्‍छों नहीं...
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्‍त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्‍त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्‍त है...

---नागार्जुन

10 अगस्त 2012

तानाशाह

वह अभी तक सोचता है
कि तानाशाह बिल्‍कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा

यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्‍ले-तमगे और
भीड़ को सम्‍मोहित करने की वाकपटुता

जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्‍ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्‍त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्‍चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा|

---उदयप्रकाश

31 जुलाई 2012

"लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदा-ए-लखनऊ"

"ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क का वतन
यही तो वो मकाम है
जहाँ अवध की शाम है
जवां-जवां, हसीं-हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये एहल-ए-इल्म का नगर
है मंजिलों की गोद में
यहाँ की हर एक रहगुज़र
ये शहर लालाज़ार है
यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

यहाँ की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर एहल-ए-दिल यहाँ
गरीब जां-निसार हैं
हर इक शाख पर यहाँ
हैं बुलबुलों के चहचहे
गली गली में ज़िन्दगी
क़दम क़दम पे कहकहे
हर इक नज़ारा दिलनशीं
ये लखनऊ की सरज़मीं

यहाँ के दोस्त बा-वफ़ा
मोहब्बतों से आशना
किसी के हो गए अगर
रहे उसी के उम्र भर
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबान भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती का हो यकीं

ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ कि सरज़मीं"

-- शकील बदायुनी

7 जून 2012

ये मेघ साहसिक सैलानी!

ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत साँसों से लालसा भरे,
ये ढीठ समीरण के झोंके,
कंटकित हुए रोएँ तन के
किन अदृश करों से आलोड़ित
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर-झर झर-झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!

झर -
नदी कूल के झर नरसल
झर - उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल

झर -
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करुण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की साँसों में सिहरी,
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी-सी आँखड़ियाँ
झर! सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!

झर -
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया-सा भूरा पानी
थिगलियाँ-भरे-छीजे आँचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी,
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर-झर झर-झर
द्रुत मंद स्वर
आए दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!

कंपित फरास की ध्वनि सर-सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर -
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!

ओ कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हाँ कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली,
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरुथल के रेणुक कण रुखे!
झर-जीवन गाति आनी जानी
उठती गिरतीं सूनी साँसें
लोचन अंतस प्यासे भूखे

अलमस्त चल दिए छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!

- अज्ञेय