August 21, 2025

ऐ उम्र..! कुछ कहा मैंने

ऐ उम्र..!

कुछ कहा मैंने,
पर शायद तूने सुना नहीं..
तू छीन सकती है बचपन मेरा,
पर बचपना नहीं..!!

हर बात का कोई जवाब नहीं होता
हर इश्क का नाम खराब नहीं होता…
यूं तो झूम लेते है नशे में पीनेवाले
मगर हर नशे का नाम शराब नहीं होता…

खामोश चेहरे पर हजारों पहरे होते हैं
हंसती आँखों में भी जख्म गहरे होते हैं
जिनसे अक्सर रूठ जाते हैं हम,
असल में उनसे ही रिश्ते गहरे होते हैं…

किसी ने खुदा से दुआ मांगी
दुआ में अपनी मौत मांगी,
खुदा ने कहा, मौत तो तुझे दे दूँ मगर,
उसे क्या कहूं जिसने तेरी जिंदगी की दुआ मांगी…

हर इन्सान का दिल बुरा नहीं होता
हर एक इन्सान बुरा नहीं होता
बुझ जाते है दीये कभी तेल की कमी से…
हर बार कुसूर हवा का नहीं होता !!!

August 15, 2025

ये दाढ़ियाँ ये तिलक धारियाँ नहीं चलतीं

ये दाढ़ियाँ ये तिलक धारियाँ नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियाँ नहीं चलतीं
 
क़बीले वालों के दिल जोड़िए मिरे सरदार
सरों को काट के सरदारियाँ नहीं चलतीं
 
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे
दिलों के खेल में ख़ुद्दारियाँ नहीं चलतीं
 
छलक छलक पड़ीं आँखों की गागरें अक्सर
सँभल सँभल के ये पनहारियाँ नहीं चलतीं
 
जनाब-ए-'कैफ़' ये दिल्ली है 'मीर' ओ 'ग़ालिब' की
यहाँ किसी की तरफ़-दारियाँ नहीं चलतीं

--- कैफ़ भोपाली

August 9, 2025

रक्षाबंधन विशेष: 'मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी'

चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी
सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी
बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी
सलोनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी
न पहुँचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी

अयाँ है अब तो राखी भी चमन भी गुल भी शबनम भी
झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी
तमाशा है अहा हा-हा ग़नीमत है ये आलम भी
उठाना हाथ प्यारे वाह-वा टुक देख लें हम भी
तुम्हारी मोतियों की और ज़री के तार की राखी

मची है हर तरफ़ क्या क्या सलोनों की बहार अब तो
हर इक गुल-रू फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो
हवस जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह मैं तुम को
यही आता है जी में बन के बाम्हन, आज तो यारो
मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी

हुई है ज़ेब-ओ-ज़ीनत और ख़ूबाँ को तो राखी से
व-लेकिन तुम से ऐ जाँ और कुछ राखी के गुल फूले
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके
तुम्हारे हाथ ने मेहंदी ने अंगुश्तों ने नाख़ुन ने
गुलिस्ताँ की चमन की बाग़ की गुलज़ार की राखी

अदा से हाथ उठते हैं गुल-ए-राखी जो हिलते हैं
कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं
कहाँ नाज़ुक ये पहुँचे और कहाँ ये रंग मिलते हैं
चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं
जो कुछ ख़ूबी में है उस शोख़-ए-गुल-रुख़्सार की राखी

फिरें हैं राखियाँ बाँधे जो हर दम हुस्न के तारे
तो उन की राखियों को देख ऐ जाँ चाव के मारे
पहन ज़ुन्नार और क़श्क़ा लगा माथे उपर बारे
'नज़ीर' आया है बाम्हन बन के राखी बाँधने प्यारे
बँधा लो उस से तुम हँस कर अब इस त्यौहार की राखी

--- नज़ीर अकबराबादी

August 4, 2025

उस शहर में मत जाओ

उस शहर में मत जाओ
जहाँ तुम्हारा बचपन गुज़रा
अब वो वैसा नहीं मिलेगा
जिस घर में तुम किराएदार थे
वहाँ कोई और होगा
तुम उजबक की तरह
खपरैल वाले उस घर के दरवाजे पर खड़े होगे और
कोई तुम्हें पहचान नहीं पाएगा !

— विनय सौरभ

August 1, 2025

स्थानीयता के संघर्ष

आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना
मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल
विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है
लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।

अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है
हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना
थोड़ा मेहनत का काम
बड़े पावर प्लांट का विरोध करना
एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं
लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए
ट्रैक्टर की शिकायत जानलेवा है।

स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं
भले ही वे कविता में हों या जीवन में।

--- प्रदीप सैनी