Feb 13, 2011

एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

---अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

Feb 12, 2011

कभी मोम बन के पिघल गया

कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया
वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया

उसे रोकता भी तो किस तरह के वो शख़्स इतना अजीब था
कभी तड़प उठा मेरी आह से कभी अश्क़ से न पिघल सका

सरे-राह मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका

वो चला गया जहाँ छोड़ के मैं वहाँ से फिर न पलट सका
वो सँभल गया था 'फ़राज़' मगर मैं बिखर के न सिमट सका

---अहमद फ़राज़ 

कुछ न किसी से बोलेंगे

कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे

हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे

ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन
तेरे भेद न खोलेंगे

जीवन ज़हर भरा साग़र
कब तक अमृत घोलेंगे

नींद तो क्या आयेगी "फ़राज़"
मौत आई तो सो लेंगे

---अहमद फ़राज़