जी, यही मेरा घर है
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था
इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को
इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला
पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !
विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
‘अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !
वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे
ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह
रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...
और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी
---केदारनाथ सिंह
May 12, 2012
Apr 27, 2012
जय बोल बेईमान की
मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !
--- काका हाथरसी
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !
--- काका हाथरसी
Apr 13, 2012
विफलता : शोध की मंज़िले
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे ! – लोकनायक जयप्रकाश नारायण
(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे ! – लोकनायक जयप्रकाश नारायण
(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)
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