May 16, 2020

है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए.

है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए

रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उन का निकलना चाहिए

अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए

फूल बन कर जो जिया है वो यहां मसला गया
ज़ीस्त को फ़ौलाद के सांचे में ढलना चाहिए

छीनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आंख से आंसू नहीं शोला निकलना चाहिए

दिल जवां सपने जवां मौसम जवां शब भी जवां
तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए

--- गोपाल दास नीरज

May 15, 2020

मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर

मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर
मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर
फूलों की खुशबू भी काफ़िर
शब्दों का जादू भी काफ़िर

यह भी काफिर, वह भी काफिर
फ़ैज़ भी और मंटो भी काफ़िर
नूरजहां का गाना काफिर
मैकडोनैल्ड का खाना काफिर

बर्गर काफिर, कोक भी काफ़िर
हंसी गुनाह, जोक भी काफ़िर
तबला काफ़िर, ढोल भी काफ़िर
प्यार भरे दो बोल भी काफ़िर

सुर भी काफिर, ताल भी काफ़िर
भांगरा, नाच, धमाल भी काफ़िर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफ़िर
काफी और खयाल भी काफ़िर

वारिस शाह की हीर भी काफ़िर
चाहत की जंजीर भी काफ़िर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफ़िर
भेंट नियाज़ की खीर भी काफ़िर

बेटे का बस्ता भी काफ़िर
बेटी की गुड़िया भी काफ़िर
हंसना-रोना कुफ़्र का सौदा
गम काफ़िर, खुशियां भी काफ़िर

जींस भी और गिटार भी काफ़िर
टखनों से नीचे बांधो तो
अपनी यह सलवार भी काफ़िर
कला और कलाकार भी काफ़िर

जो मेरी धमकी न छापे
वह सारे अखबार भी काफ़िर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफ़िर
डार्विन भाई का बंदर काफ़िर

फ्रायड पढ़ाने वाले काफ़िर
मार्क्स के सबसे मतवाले काफ़िर
मेले-ठेले कुफ़्र का धंधा
गाने-बाजे सारे फंदा

मंदिर में तो बुत होता है
मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफ़िर
कुछ मस्जिद में अंदर काफ़िर
मुस्लिम देश में अक्सर काफ़िर

काफ़िर काफ़िर मैं भी काफ़िर
काफ़िर काफ़िर तू भी काफ़िर!

---सलमान हैदर

May 7, 2020

अकाल

फूटकर चलते फिरते छेद
भूमि की पर्त गयी है सूख
औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ।

लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दाँत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फ़र्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।

पीटकर कृष्णा के तटबन्ध
लौटकर पानी जाता डूब
रात होते उठती है धुन्ध
ऊपरी आमदनी की ऊब।

जोड़कर हाथ काढ़कर ख़ीस
खड़ा है बूढ़ा रामगुलाम
सामने आकर के हो गये
प्रतिष्ठित पंडित राजाराम।

मारते वही जिलाते वही
वही दुर्भिक्ष वही अनुदान
विधायक वही, वही जनसभा
सचिव वह, वही पुलिस कप्तान।

दया से देख रहे हैं दृश्य
गुसलखा़ने की खिड़की खोल
मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल !
रह गया कुछ कम ईसपगोल!
(1967)---रघुवीर सहाय