यक़ीन मानिए
इस आदमख़ोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
लगता है कि अभी बस अभी
ठकुराइसी मेड़ चीख़ेगी
मैं अधशौच ही
खेत से उठ आऊँगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी से भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खाँसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बाँध मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा
---मलखान सिंह
Sep 30, 2019
Sep 18, 2019
कोसल में विचारों की कमी है!
महाराज बधाई हो!
महाराज की जय हो।
युद्ध नहीं हुआ
लौट गए शत्रु।
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी!
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएँ,
दस सहस्र अश्व,
लगभग इतने ही हाथी।
कोई कसर न थी!
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता।
न उनके पास अस्त्र थे,
न अश्व,
न हाथी,
युद्ध हो भी कैसे सकता था?
निहत्थे थे वे।
उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है!
जो भी हो,
जय यह आपकी है!
बधाई हो!
राजसूय पूरा हुआ,
आप चक्रवर्ती हुए
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह :
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!
--- श्रीकांत वर्मा
महाराज की जय हो।
युद्ध नहीं हुआ
लौट गए शत्रु।
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी!
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएँ,
दस सहस्र अश्व,
लगभग इतने ही हाथी।
कोई कसर न थी!
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता।
न उनके पास अस्त्र थे,
न अश्व,
न हाथी,
युद्ध हो भी कैसे सकता था?
निहत्थे थे वे।
उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है!
जो भी हो,
जय यह आपकी है!
बधाई हो!
राजसूय पूरा हुआ,
आप चक्रवर्ती हुए
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह :
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!
--- श्रीकांत वर्मा
Sep 15, 2019
कितना चौड़ा पाट नदी का
कितना चौड़ा पाट नदी का,
कितनी भारी शाम,
कितने खोए–खोए से हम,
कितना तट निष्काम,
कितनी बहकी–बहकी सी
दूरागत–वंशी–टेर,
कितनी टूटी–टूटी सी
नभ पर विहगों की फेर,
कितनी सहमी–सहमी–सी
जल पर तट–तरु–अभिलाषा,
कितनी चुप–चुप गयी रोशनी,
छिप छिप आई रात,
कितनी सिहर–सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात,
चार नयन मुस्काए, खोए,
भीगे, फिर पथराए,
कितनी बड़ी विवशता,
जीवन की, कितनी कह पाए!
~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
कितनी भारी शाम,
कितने खोए–खोए से हम,
कितना तट निष्काम,
कितनी बहकी–बहकी सी
दूरागत–वंशी–टेर,
कितनी टूटी–टूटी सी
नभ पर विहगों की फेर,
कितनी सहमी–सहमी–सी
जल पर तट–तरु–अभिलाषा,
कितनी चुप–चुप गयी रोशनी,
छिप छिप आई रात,
कितनी सिहर–सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात,
चार नयन मुस्काए, खोए,
भीगे, फिर पथराए,
कितनी बड़ी विवशता,
जीवन की, कितनी कह पाए!
~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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