27 नवंबर 2009

Another Birth

My whole being is a dark chant
which will carry you
perpetuating you
to the dawn of eternal growths and blossoming
in this chant I sighed you sighed
in this chant
I grafted you to the tree to the water to the fire.

Life is perhaps
a long street through which a woman holding
a basket passes every day

Life is perhaps
a rope with which a man hangs himself from a branch
life is perhaps a child returning home from school.

Life is perhaps lighting up a cigarette
in the narcotic repose between two love-makings
or the absent gaze of a passerby
who takes off his hat to another passerby
with a meaningless smile and a good morning .

Life is perhaps that enclosed moment
when my gaze destroys itself in the pupil of your eyes
and it is in the feeling
which I will put into the Moon's impression
and the Night's perception.

In a room as big as loneliness
my heart
which is as big as love
looks at the simple pretexts of its happiness
at the beautiful decay of flowers in the vase
at the sapling you planted in our garden
and the song of canaries
which sing to the size of a window.

Ah
this is my lot
this is my lot
my lot is
a sky which is taken away at the drop of a curtain
my lot is going down a flight of disused stairs
a regain something amid putrefaction and nostalgia
my lot is a sad promenade in the garden of memories
and dying in the grief of a voice which tells me
I love
your hands.

I will plant my hands in the garden
I will grow I know I know I know
and swallows will lay eggs
in the hollow of my ink-stained hands.

I shall wear
a pair of twin cherries as ear-rings
and I shall put dahlia petals on my finger-nails
there is an alley
where the boys who were in love with me
still loiter with the same unkempt hair
thin necks and bony legs
and think of the innocent smiles of a little girl
who was blown away by the wind one night.

There is an alley
which my heart has stolen
from the streets of my childhood.

The journey of a form along the line of time
inseminating the line of time with the form
a form conscious of an image
coming back from a feast in a mirror

And it is in this way
that someone dies
and someone lives on.

No fisherman shall ever find a pearl in a small brook
which empties into a pool.

I know a sad little fairy
who lives in an ocean
and ever so softly
plays her heart into a magic flute
a sad little fairy
who dies with one kiss each night
and is reborn with one kiss each dawn.

--- By Forugh Farrokhzad
Karim Emami Az Past O Bolande Targomeh Page 19-21

Change we believe in

One year ago Hafiz Saeed was free,
One year later Hafiz Saeed is still free.

One year ago RR Patil was the Home Minister of Maharashtra,
One year later RR Patil is still the Home Minister of Maharashtra.

One year ago the News Channels were playing clips from the 26/11 attacks,
One year later the News Channels are still playing clips from the 26/11 attacks.

One year ago Kasab was alive,
One year later Kasab is still alive.

Congratulations everybody!
We simply changed the date and time,
From 26/11/2008 to 26/11/2009!

Cited From this source without permission.

18 नवंबर 2009

मंत्र कविता

ॐ शब्द ही ब्रह्म है
ॐ शब्द और शब्द और शब्द और शब्द
ॐ प्रणव, ॐ नाद, ॐ मुद्राएँ
ॐ वक्तव्य, ॐ उद्गार, ॐ घोषणाएँ
ॐ भाषण…
ॐ प्रवचन…
ॐ हुंकार, ॐ फटकार, ॐ शीत्कार
ॐ फुस-फुस, ॐ फुत्कार, ॐ चित्कार
ॐ आस्फालन, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे और नारे और नारे और नारे
ॐ सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ
ॐ कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं
ॐ पत्थर पर की दूब, खरगोश के सींग
ॐ नमक-तेल-हल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेंड़ी, कनेर के पात
ॐ डायन की चीख, औघड़ की अटपट बात
ॐ कोयला-इस्पात-पेट्रोल
ॐ हमीं हम ठोस, बाकी सब फूटे ढोल
ॐ इदमन्नं, इमा आप:, इदमाज्यम, इदं हवि
ॐ यजमान, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ कवि:
ॐ क्रांति: क्रांति: क्रांति: सर्वग्वम् क्रांति:
ॐ शांति: शांति: शांति: सर्वग्वम् शांति:
ॐ भ्रांति: भ्रांति: भ्रांति: सर्वग्वम् भ्रांति:
ॐ बचाओ बचाओ बचाओ बचाओ
ॐ हटाओ हटाओ हटाओ हटाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ
ॐ दलों में एक दल अपना दल, ॐ
ॐ अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण
ॐ मुष्टीकरण, तुष्टीकरण, पुष्टीकरण
ॐ एतराज़, आक्षेप, अनुशासन
ॐ गद्दी पर आजन्म वज्रासन
ॐ ट्रिब्यूनल ॐ आश्वासन
ॐ गुट-निरपेक्ष सत्ता-सापेक्ष जोड़-तोड़
ॐ छल-छंद, ॐ मिथ्या, ॐ होड़महोड़
ॐ बकवास, ॐ उद्घाटन
ॐ मारण-मोहन-उच्चाटन
ॐ काली काली काली महाकाली महाकाली
ॐ मार मार मार, वार न जाए खाली
ॐ अपनी खुशहाली
ॐ दुश्मनों की पामाली
ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजिशन के मुंड बनें तेरे गले का हार
ॐ ऐं हीं वलीं हूँ ॐ
ॐ हम चबाएंगे तिलक और गांधी की टांग
ॐ बूढे की आँख, छोकरी का काजल
ॐ तुलसीदल, बिल्वपत्र, चंदन, रोली, अक्षत, गंगाजल
ॐ शेर के दाँत, भालू के नाखून, मरकत का फोता
ॐ हमेशा हमेशा हमेशा करेगा राज मेरा पोता
ॐ छू: छू: फू: फू: फट फिट फुट
ॐ शत्रुओं की छाती पर लोहा कुट
ॐ भैरो, भैरो, भैरो, ॐ बजरंगबली
ॐ बन्दूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ॐ डालर, ॐ रूबल, ॐ
ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड
ॐ ॐ ॐ
ॐ धरती, धरती, धरती, व्योम् व्योम् व्योम्
ॐ अष्टधातुओं की ईंटों के भट्ठे
ॐ महामहिम, महामहो, उल्लू के पट्ठे
ॐ दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ॐ इसी पेट के अदंर समा जाए सर्वहारा
हरि: ॐ तत्सत् हरि: ॐ तत्सत्
********
नागार्जुन

बादल को घिरते देखा है |

अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है
बादलों को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं
उनके श्यामल-नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिस-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती
निशाकाल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकवी का
बंद हुआ क्रंदन; फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

दुर्गम बर्फ़ानी घाटी में
शत्-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल
-के पीछे धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का
ढूंढा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर
जाने दो; वह कवि-कल्पित था
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कानन में
शोणित धवल भोज-पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में
कानों में कुवलय लटकाए
शतदल लाल कमल वेणी में
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान-पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपुटी पर
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।
********
नागार्जुन

वर दे वीणावादिनी

वरदे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मंद्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।
********
सूर्य कांत त्रिपाठी, निराला

वह तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर --
वह तोड़ती पत्थर ।

कोई न छायादार
पेड़, वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार;
सामने तरु - मालिका, अट्टालिका, प्राकार ।

चड़ रही थी धूप
गरमियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गयी

प्रायः हुई दुपहर,
वह तोड़ती पत्थर ।

देखते देखा, मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्न-तार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोयी नहीं
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार ।
एक छन के बाद वह काँपी सुघर,
दुलक माथे से गिरे सीकार,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा --
"मैं तोड़ती पत्थर"
********
सूर्य कांत त्रिपाठी, निराला

12 नवंबर 2009

नज़्म की चोरी

एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था
---
गुलज़ार