Of the familiar words, that men repeat
At parting in the street.
Ah yes, till then! but when death intervening
Rends us asunder, with what ceaseless pain
We wait for the Again!
The friends who leave us do not feel the sorrow
Of parting, as we feel it, who must stay
Lamenting day by day,
And knowing, when we wake upon the morrow,
We shall not find in its accustomed place
The one beloved face.
It were a double grief, if the departed,
Being released from earth, should still retain
A sense of earthly pain;
It were a double grief, if the true-hearted,
Who loved us here, should on the farther shore
Remember us no more.
Believing, in the midst of our afflictions,
That death is a beginning, not an end,
We cry to them, and send
Farewells, that better might be called predictions,
Being fore-shadowings of the future, thrown
Into the vast Unknown.
Faith overleaps the confines of our reason,
And if by faith, as in old times was said,
Women received their dead
Raised up to life, then only for a season
Our partings are, nor shall we wait in vain
Until we meet again!
--- Henry Wadsworth Longfellow (Written in memory of the Poet's long time friend and publisher, Mr James T. Fields..)
15 मई 2010
आंसू
आंखों में पानी देख
कहीं तुम्हे
रोने का भ्रम ना हो जाए
तुम नहीं जानते
कि
रोते हुए ,
आंसू
बाहर नहीं
अन्दर गिरते हैं
--- गुरमीत बराङ
4 मई 2010
Concert in the Garden
Concert in the Garden
It rained.
The hour is an enormous eye.
Inside it we come and go like reflections.
The river of music
enters my blood.
If I say body, it answers wind.
If I say earth, it answers where?
The world, a double blossom, opens:
sadness of having come,
joy of being here.
I walk lost in my own center.
by Octavio Paz
from The Collected Poems 1957-1987;
Carcanet Press Limited
Concierto en el Jardín
Llovío.
La hora es un ojo inmenso.
En ella andamos como reflejos.
El río de la música
entra en mi sangre.
Si digo: cuerpo, contesta: viento.
Si digo: tierra, contesta: ¿dónde?
Se abre, flor doble, el mundo:
tristeza de haber venido,
alegría de estar aquí.
Ando perdido en mi propio centro.
Octavio Paz
It rained.
The hour is an enormous eye.
Inside it we come and go like reflections.
The river of music
enters my blood.
If I say body, it answers wind.
If I say earth, it answers where?
The world, a double blossom, opens:
sadness of having come,
joy of being here.
I walk lost in my own center.
by Octavio Paz
from The Collected Poems 1957-1987;
Carcanet Press Limited
Concierto en el Jardín
Llovío.
La hora es un ojo inmenso.
En ella andamos como reflejos.
El río de la música
entra en mi sangre.
Si digo: cuerpo, contesta: viento.
Si digo: tierra, contesta: ¿dónde?
Se abre, flor doble, el mundo:
tristeza de haber venido,
alegría de estar aquí.
Ando perdido en mi propio centro.
Octavio Paz
1 मई 2010
कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया
कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया ।
बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ॥
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को ।
क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया ?
किस लिए जीते हैं हम, किसके लिए जीते हैं ?
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया ॥
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर, ऐ दोस्त !
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया ॥
--- Sahir ludhianvi
बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ॥
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को ।
क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया ?
किस लिए जीते हैं हम, किसके लिए जीते हैं ?
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया ॥
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर, ऐ दोस्त !
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया ॥
--- Sahir ludhianvi
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम |
--- Firaq Gorakhpuri
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम |
--- Firaq Gorakhpuri
I Don't Wield Weapons:
I Don't Wield Weapons:
Mother
When I came out of your
womb no sword was gifted
nor gun
nor bomb;
you endowed me only a life.
Now
should I protest in regret
Condemning you
Pulling you out of the
grave!
--- Thoudam Netrajit Singh
Mother
When I came out of your
womb no sword was gifted
nor gun
nor bomb;
you endowed me only a life.
Now
should I protest in regret
Condemning you
Pulling you out of the
grave!
--- Thoudam Netrajit Singh
Khwaab Martay Naheen
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा[1] हुए तो बिखर जाएँगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएँगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं[2] हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नहीं
रोशनी और नवा के अलम
मक़्तलों[3] में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़[4] हैं
ख़्वाब तो नूर[5] हैं
ख़्वाब सुक़रात [6] हैं
ख़्वाब मंसूर[7]हैं.
--- अहमद फ़राज़
1-↑ कण-कण
2-↑ आवाज़
3-↑ वधस्थल
4-↑ अक्षर
5-↑ प्रकाश
6-↑ जिन्हें सच कहने के लिए ज़ह्र का प्याला पीना पड़ा था
7- ↑ एक वली(महात्मा) जिन्होंने ‘अनलहक़’ (मैं ईश्वर हूँ) कहा था और इस अपराध के लिए उनकी गर्दन काट डाली गई थी
(Dreams Do Not Die)
Dreams are not heart, nor eyes or breath
Which shattered, will scatter (or)
Die with the death of the body.
Dreams do not die.
But dreams are light, voice, wind,
Which cannot be stopped by mountains black,
Which do not perish in the hells of cruelty,
Ensigns of light and voice and wind,
Bow not, even in abattoirs.
But dreams are letters,
But dreams are illumination,
Dreams are Socrates,
Dreams - Divine Victory!'
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा[1] हुए तो बिखर जाएँगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएँगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं[2] हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नहीं
रोशनी और नवा के अलम
मक़्तलों[3] में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़[4] हैं
ख़्वाब तो नूर[5] हैं
ख़्वाब सुक़रात [6] हैं
ख़्वाब मंसूर[7]हैं.
--- अहमद फ़राज़
1-↑ कण-कण
2-↑ आवाज़
3-↑ वधस्थल
4-↑ अक्षर
5-↑ प्रकाश
6-↑ जिन्हें सच कहने के लिए ज़ह्र का प्याला पीना पड़ा था
7- ↑ एक वली(महात्मा) जिन्होंने ‘अनलहक़’ (मैं ईश्वर हूँ) कहा था और इस अपराध के लिए उनकी गर्दन काट डाली गई थी
(Dreams Do Not Die)
Dreams are not heart, nor eyes or breath
Which shattered, will scatter (or)
Die with the death of the body.
Dreams do not die.
But dreams are light, voice, wind,
Which cannot be stopped by mountains black,
Which do not perish in the hells of cruelty,
Ensigns of light and voice and wind,
Bow not, even in abattoirs.
But dreams are letters,
But dreams are illumination,
Dreams are Socrates,
Dreams - Divine Victory!'
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