My sister doesn't write poems,
and it's unlikely that she'll suddenly start writing poems.
She takes after her mother, who didn't write poems,
and also her father, who likewise didn't write poems.
I feel safe beneath my sister's roof:
my sister's husband would rather die than write poems.
And, even though this is starting to sound as
repetitive as Peter Piper,
the truth is, none of my relatives write poems.
My sister's desk drawers don't hold old poems,
and her handbag doesn't hold new ones.
When my sister asks me over for lunch,
I know she doesn't want to read me her poems.
Her soups are delicious without ulterior motives.
Her coffee doesn't spill on manuscripts.
There are many families in which nobody writes poems,
but once it starts up it's hard to quarantine.
Sometimes poetry cascades down through the generations,
creating fatal whirlpools where family love may founder.
My sister has tackled oral prose with some success,
but her entire written opus consists of postcards from vacations
whose text is only the same promise every year:
when she gets back, she'll have
so much
much
much to tell.
--- Wislawa Szymborska
30 जनवरी 2011
कर्मवीर
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुये जो दिन गंवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये ।
व्योम को छूते हुये दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुयी ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।
---अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुये जो दिन गंवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये ।
व्योम को छूते हुये दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुयी ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।
---अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
28 जनवरी 2011
सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है
सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है
सुख़न की शम्ओ जलाओ बहुत अँधेरा है
चमक उठेंगी सियहबख्तियां जमाने की
नवा-ए-दर्द सुनाओ, बहुत अँधेरा है
हर इक चराग से हर तीरगी नहीं मिटती
चराग़े-अश्क जलाओ बहुत अँधेरा है
दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूंढने जाओ बहुत अँधेरा है
ये रात वो है के सूझे जहाँ न हाथ को हाथ
ख़्यालों दूर न जाओ बहुत अँधेरा है
वो ख़ुद नहीं जो सरे बज़्मे ग़म तो आज उसके
तबस्सुमों को बुलाओ बहुत अँधेरा है
पसे-गुनाह जो ठहरे थे चश्में आदम में
उन आंसुओ को बहाओ बहुत अँधेरा है
हवाए नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम
नक़ाब रुख़ से उठाओ बहुत अँधेरा है
शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात
क़दम संभल के उठाओ बहुत अँधेरा है
गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अँधेरा है
थी एक उचटती हुई नींद ज़िंदगी उसकी
'फ़िराक़' को न जगाओ बहुत अँधेरा है
--- Firaq Gorakhpuri
सुख़न की शम्ओ जलाओ बहुत अँधेरा है
चमक उठेंगी सियहबख्तियां जमाने की
नवा-ए-दर्द सुनाओ, बहुत अँधेरा है
हर इक चराग से हर तीरगी नहीं मिटती
चराग़े-अश्क जलाओ बहुत अँधेरा है
दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूंढने जाओ बहुत अँधेरा है
ये रात वो है के सूझे जहाँ न हाथ को हाथ
ख़्यालों दूर न जाओ बहुत अँधेरा है
वो ख़ुद नहीं जो सरे बज़्मे ग़म तो आज उसके
तबस्सुमों को बुलाओ बहुत अँधेरा है
पसे-गुनाह जो ठहरे थे चश्में आदम में
उन आंसुओ को बहाओ बहुत अँधेरा है
हवाए नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम
नक़ाब रुख़ से उठाओ बहुत अँधेरा है
शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात
क़दम संभल के उठाओ बहुत अँधेरा है
गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अँधेरा है
थी एक उचटती हुई नींद ज़िंदगी उसकी
'फ़िराक़' को न जगाओ बहुत अँधेरा है
--- Firaq Gorakhpuri
21 जनवरी 2011
दिल की बात लबों पर लाकर
दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं|
बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली,
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आँसू बहते हैं|
एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं|
जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं|
वो जो अभी रहगुज़र से, चाक-ए-गरेबाँ गुज़रा था,
उस आवारा दीवाने को 'ज़लिब'-'ज़लिब' कहते हैं|
---हबीब जालिब
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं|
बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली,
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आँसू बहते हैं|
एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं|
जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं|
वो जो अभी रहगुज़र से, चाक-ए-गरेबाँ गुज़रा था,
उस आवारा दीवाने को 'ज़लिब'-'ज़लिब' कहते हैं|
---हबीब जालिब
20 जनवरी 2011
इस शहर-ए-खराबी में
इस शहर-ए-खराबी में गम-ए-इश्क के मारे
ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे
ये हंसता हुआ लिखना ये पुरनूर सितारे
ताबिंदा-ओ-पा_इन्दा हैं ज़र्रों के सहारे
हसरत है कोई गुंचा हमें प्यार से देखे
अरमां है कोई फूल हमें दिल से पुकारे
हर सुबह मेरी सुबह पे रोती रही शबनम
हर रात मेरी रात पे हँसते रहे तारे
कुछ और भी हैं काम हमें ए गम-ए-जानां
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे
---हबीब जालिब
ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे
ये हंसता हुआ लिखना ये पुरनूर सितारे
ताबिंदा-ओ-पा_इन्दा हैं ज़र्रों के सहारे
हसरत है कोई गुंचा हमें प्यार से देखे
अरमां है कोई फूल हमें दिल से पुकारे
हर सुबह मेरी सुबह पे रोती रही शबनम
हर रात मेरी रात पे हँसते रहे तारे
कुछ और भी हैं काम हमें ए गम-ए-जानां
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे
---हबीब जालिब
10 जनवरी 2011
Chiraagh-e-dair
May Heaven keep the grandeur of Benaras
Arbour of this meadow of joy;
For oft returning souls -their journey’s end.
In this weary Temple land of the world,
Safe from the whirlwind of Time,
Benaras is forever Spring.
Where autumn turns into the touch of sandal
On fair foreheads,
Springtide wears the sacred thread of flower waves,
And the splash of twilight is the crimson mark
of Kashi’s dust on heaven’s brow.
The Kaaba of Hind;
This conch blowers dell;
Its icons and idols are made of the Light,
That once flashed on Mount Sinai.
These radiant idolations naids,
Set the pious Brahmins afire, when their faces glow
Like moving lamps..on the Ganges banks.
Morning and Moonrise,
My lady Kashi,
Picks up the Ganga mirror
To see her gracious beauty,
Glimmer and shine.
Said I one night to a pristine seer
(who knew the secrets of whirling time)
‘Sir, you will perceive
That goodness and faith, fidelity and love
Have all departed from the sorry land.
Father and son are at each other’s throat;
Brother fights brother.
Unity and federation are undermined.
Despite these ominous signs
Why has doomsday not come?
Why does the Last trumpet not sound?
Who holds the reigns of the final catastrophe?’
The hoary old man of lucent ken
Pointed towards Kashi and gently smiled.
‘The Architect’, he said, is fond of this edifice
Because of which there is colour in life.
He would not like it to perish and fall.’
Hearing this, the pride of Benaras soared to an eminence, untouched by the wings of thought.
- Mirza Ghalib
Translated by Pavan Verma from Ghalib: The Man and the Times Published by Penguin India. Ghalib stayed at Benaras during his way to Kolkata and wrote a 108 couplet long poem in Persian and called it, “chiraaGh-e-dair”.
Arbour of this meadow of joy;
For oft returning souls -their journey’s end.
In this weary Temple land of the world,
Safe from the whirlwind of Time,
Benaras is forever Spring.
Where autumn turns into the touch of sandal
On fair foreheads,
Springtide wears the sacred thread of flower waves,
And the splash of twilight is the crimson mark
of Kashi’s dust on heaven’s brow.
The Kaaba of Hind;
This conch blowers dell;
Its icons and idols are made of the Light,
That once flashed on Mount Sinai.
These radiant idolations naids,
Set the pious Brahmins afire, when their faces glow
Like moving lamps..on the Ganges banks.
Morning and Moonrise,
My lady Kashi,
Picks up the Ganga mirror
To see her gracious beauty,
Glimmer and shine.
Said I one night to a pristine seer
(who knew the secrets of whirling time)
‘Sir, you will perceive
That goodness and faith, fidelity and love
Have all departed from the sorry land.
Father and son are at each other’s throat;
Brother fights brother.
Unity and federation are undermined.
Despite these ominous signs
Why has doomsday not come?
Why does the Last trumpet not sound?
Who holds the reigns of the final catastrophe?’
The hoary old man of lucent ken
Pointed towards Kashi and gently smiled.
‘The Architect’, he said, is fond of this edifice
Because of which there is colour in life.
He would not like it to perish and fall.’
Hearing this, the pride of Benaras soared to an eminence, untouched by the wings of thought.
- Mirza Ghalib
Translated by Pavan Verma from Ghalib: The Man and the Times Published by Penguin India. Ghalib stayed at Benaras during his way to Kolkata and wrote a 108 couplet long poem in Persian and called it, “chiraaGh-e-dair”.
4 जनवरी 2011
Stanzas Written in Dejection, near Naples
The sun is warm, the sky is clear,
The waves are dancing fast and bright,
Blue isles and snowy mountains wear
The purple noon's transparent might,
The breath of the moist earth is light,
Around its unexpanded buds;
Like many a voice of one delight,
The winds, the birds, the ocean floods,
The City's voice itself, is soft like Solitude's.
I see the Deep's untrampled floor
With green and purple seaweeds strown;
I see the waves upon the shore,
Like light dissolved in star-showers, thrown:
I sit upon the sands alone,—
The lightning of the noontide ocean
Is flashing round me, and a tone
Arises from its measured motion,
How sweet! did any heart now share in my emotion.
Alas! I have nor hope nor health,
Nor peace within nor calm around,
Nor that content surpassing wealth
The sage in meditation found,
And walked with inward glory crowned—
Nor fame, nor power, nor love, nor leisure.
Others I see whom these surround—
Smiling they live, and call life pleasure;
To me that cup has been dealt in another measure.
Yet now despair itself is mild,
Even as the winds and waters are;
I could lie down like a tired child,
And weep away the life of care
Which I have borne and yet must bear,
Till death like sleep might steal on me,
And I might feel in the warm air
My cheek grow cold, and hear the sea
Breathe o'er my dying brain its last monotony.
Some might lament that I were cold,
As I, when this sweet day is gone,
Which my lost heart, too soon grown old,
Insults with this untimely moan;
They might lament—for I am one
Whom men love not,—and yet regret,
Unlike this day, which, when the sun
Shall on its stainless glory set,
Will linger, though enjoyed, like joy in memory yet.
--- P B Shelley
The waves are dancing fast and bright,
Blue isles and snowy mountains wear
The purple noon's transparent might,
The breath of the moist earth is light,
Around its unexpanded buds;
Like many a voice of one delight,
The winds, the birds, the ocean floods,
The City's voice itself, is soft like Solitude's.
I see the Deep's untrampled floor
With green and purple seaweeds strown;
I see the waves upon the shore,
Like light dissolved in star-showers, thrown:
I sit upon the sands alone,—
The lightning of the noontide ocean
Is flashing round me, and a tone
Arises from its measured motion,
How sweet! did any heart now share in my emotion.
Alas! I have nor hope nor health,
Nor peace within nor calm around,
Nor that content surpassing wealth
The sage in meditation found,
And walked with inward glory crowned—
Nor fame, nor power, nor love, nor leisure.
Others I see whom these surround—
Smiling they live, and call life pleasure;
To me that cup has been dealt in another measure.
Yet now despair itself is mild,
Even as the winds and waters are;
I could lie down like a tired child,
And weep away the life of care
Which I have borne and yet must bear,
Till death like sleep might steal on me,
And I might feel in the warm air
My cheek grow cold, and hear the sea
Breathe o'er my dying brain its last monotony.
Some might lament that I were cold,
As I, when this sweet day is gone,
Which my lost heart, too soon grown old,
Insults with this untimely moan;
They might lament—for I am one
Whom men love not,—and yet regret,
Unlike this day, which, when the sun
Shall on its stainless glory set,
Will linger, though enjoyed, like joy in memory yet.
--- P B Shelley
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