लोहे के पैरों में भारी बूट
कन्धे से लटकती बन्दूक
कानून अपना रास्ता पकड़ेगा
हथकड़ियाँ डालकर हाथों में
तमाम ताकत से उन्हें
जेलों की ओर खींचता हुआ
गुजरेगा विचार और श्रम के बीच से
श्रम से फल को अलग करता
रखता हुआ चीजों को
पहले से तय की हुई
जगहों पर
मसलन अपराधी को
न्यायाधीश की, ग़लत को सही की
और पूँजी के दलाल को
शासक की जगह पर
रखता हुआ
चलेगा
मजदूरों पर गोली की रफ्तार से
भुखमरी की रफ्तार से किसानों पर
विरोध की जुबान पर
चाकू की तरह चलेगा
व्याख्या नहीं देगा
बहते हुए ख़ून की
कानून व्याख्या से परे कहा जायेगा
देखते-देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
खौफ बनकर समा जायेगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ्तार करेगा
जनता के नाम पर
बेच देगा देश
सुरक्षा के नाम पर
असुरक्षित करेगा
अगर कभी वह आधी रात को
आपका दरवाजा खटखटायेगा
तो फिर समझिये कि आपका
पता नहीं चल पायेगा
खबरों में इसे मुठभेड़ कहा जायेगा
पैदा होकर मिल्कियत की कोख से
बहसा जायेगा
संसद में और कचहरियों में
झूठ की सुनहली पालिश से
चमकाकर
तब तक लोहे के पैरों
चलाया जायेगा कानून
जब तक तमाम ताकत से
तोड़ा नहीं जायेगा।
(1980)
--- गोरख पाण्डेय
1 मार्च 2016
14 फ़रवरी 2016
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
थककर बैठो नहीं प्रतीक्षा कर रहा कोई कहीं
हारे नहीं जब हौसले
तब कम हुये सब फासले
दूरी कहीं कोई नहीं केवल समर्पण चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
हर दर्द झूठा लग रहा सहकर मजा आता नहीं
आँसू वही आँखें वही
कुछ है ग़लत कुछ है सही
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
राहें पुरानी पड़ गईं आख़िर मुसाफ़िर क्या करे !
सम्भोग से सन्यास तक
आवास से आकाश तक
भटके हुये इन्सान को कुछ और जीवन चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
कोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज़ दें !
इस पार क्या उस पार क्या !
पतवार क्या मँझधार क्या !!
हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
कैसे जियें कैसे मरें यह तो पुरानी बात है !
जो कर सकें आओ करें
बदनामियों से क्यों डरें
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिए!
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
---रमानाथ अवस्थी
थककर बैठो नहीं प्रतीक्षा कर रहा कोई कहीं
हारे नहीं जब हौसले
तब कम हुये सब फासले
दूरी कहीं कोई नहीं केवल समर्पण चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
हर दर्द झूठा लग रहा सहकर मजा आता नहीं
आँसू वही आँखें वही
कुछ है ग़लत कुछ है सही
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
राहें पुरानी पड़ गईं आख़िर मुसाफ़िर क्या करे !
सम्भोग से सन्यास तक
आवास से आकाश तक
भटके हुये इन्सान को कुछ और जीवन चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
कोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज़ दें !
इस पार क्या उस पार क्या !
पतवार क्या मँझधार क्या !!
हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
कैसे जियें कैसे मरें यह तो पुरानी बात है !
जो कर सकें आओ करें
बदनामियों से क्यों डरें
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिए!
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
---रमानाथ अवस्थी
25 दिसंबर 2015
Gods
The ivory gods,
And the ebony gods,
And the gods of diamond and jade,
Sit silently on their temple shelves
While the people
Are afraid.
Yet the ivory gods,
And the ebony gods,
And the gods of diamond-jade,
Are only silly puppet gods
That the people themselves
Have made.
--- Langston Hughes
And the ebony gods,
And the gods of diamond and jade,
Sit silently on their temple shelves
While the people
Are afraid.
Yet the ivory gods,
And the ebony gods,
And the gods of diamond-jade,
Are only silly puppet gods
That the people themselves
Have made.
--- Langston Hughes
16 दिसंबर 2015
नया शिवाला
सच कह दूँ ऐ बिरहमन[1] गर तू बुरा न माने
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल[2] सिखाया वाइज़[3] को भी ख़ुदा ने
तंग आके मैंने आख़िर दैर-ओ-हरम[4] को छोड़ा
वाइज़ का वाज़[5] छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरियत[6] के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्माँ से इस का कलस मिला दें
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे- मीठे
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें
शक्ती[7] भी शान्ती[8] भी भक्तों के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ती[9] पिरीत[10] में है
--- अल्लामा इक़बाल
1 ↑ ब्राह्मण
2 ↑ दंगा-फ़साद
3 ↑ उपदेशक
4 ↑ मंदिर-मस्जिद
5 ↑ उपदेश
6 ↑ अपरिचय
7 ↑ शक्ति
8 ↑ शांति
9 ↑ मुक्ति
10 ↑ प्रीत
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल[2] सिखाया वाइज़[3] को भी ख़ुदा ने
तंग आके मैंने आख़िर दैर-ओ-हरम[4] को छोड़ा
वाइज़ का वाज़[5] छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरियत[6] के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्माँ से इस का कलस मिला दें
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे- मीठे
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें
शक्ती[7] भी शान्ती[8] भी भक्तों के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ती[9] पिरीत[10] में है
--- अल्लामा इक़बाल
1 ↑ ब्राह्मण
2 ↑ दंगा-फ़साद
3 ↑ उपदेशक
4 ↑ मंदिर-मस्जिद
5 ↑ उपदेश
6 ↑ अपरिचय
7 ↑ शक्ति
8 ↑ शांति
9 ↑ मुक्ति
10 ↑ प्रीत
6 दिसंबर 2015
भीड़ मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ
मौका-ए-वारदात पर तमाम चश्मदीद गवाहों के बावजूद भी
मुझे तुम्हारे बेगुनाह होने पर यकीन है
मैने देखा है तुम्हारा बिल्कुल निष्क्रिय रहने का हुनर
जो बहुत लगन से सीखा है तुमने
तुम तमाम बुरी ख़बरें अपने घर परिवार के साथ
टी वी के सामने बैठ कर देख सकती हो
मैने देखा है, कैसे किसानों की आत्महत्या जैसे विषय
तुम्हारे लिए बेहद उबाऊ हैं
और अगर पास की बहुमंज़िली इमारत में आग लग जाये
तो तुम इत्मिनान से अपने खिड़की दरवाज़े बंद कर देती हो
नहीं मैने नहीं देखा तुम्हें विचलित होते हुए भूकंप से
या ख़राब मौसम की भविष्यवाणी से
तमाम एक भीड़ के कुचले जाने पर भी तुम उफ़ नहीं करती
फिर वह कुम्भ में हो या हज में
मैने नहीं देखी तुम्हारी दिलचस्पी कहीं भी
तुमने तो अफ़वाह फैलाना तक बंद कर दिया है
फिर मैं कैसे मान लूँ कि किसी ने तुम्हें इतना उकसा दिया
कि तुम हत्यारे हो गए?
तुम बेगुनाह तो हो, पर नशे में हो
जातिवाचक से व्यक्तिवाचक बनने के ख्वाब में
तुम्हें तो पता भी नहीं कि जिस हथियार से ख़ून हुआ
उसपर तुम्हारे उँगलियों के निशान थे
क्या अपनी पैरवी नहीं करोगी, नहीं ढूँढोगी कोई अच्छा वक़ील?
जो तुम्हें कोई नाम दिए जाने से बचा ले, और कड़ी से कड़ी सज़ा तुम्हें ना सुनाई जाये?
तुम गुनहगारों को ना पहचानो ना सही
तुम क्या खुद के निर्दोष होने की गुहार भी नहीं लगाओगी?
अपनी निष्क्रियता में क्या तुमसे इतना भी नहीं होगा,
कि असली मुजरिम को पहचानने की कोशिश तो शुरु होगी?
--- Beji Jaison
मुझे तुम्हारे बेगुनाह होने पर यकीन है
मैने देखा है तुम्हारा बिल्कुल निष्क्रिय रहने का हुनर
जो बहुत लगन से सीखा है तुमने
तुम तमाम बुरी ख़बरें अपने घर परिवार के साथ
टी वी के सामने बैठ कर देख सकती हो
मैने देखा है, कैसे किसानों की आत्महत्या जैसे विषय
तुम्हारे लिए बेहद उबाऊ हैं
और अगर पास की बहुमंज़िली इमारत में आग लग जाये
तो तुम इत्मिनान से अपने खिड़की दरवाज़े बंद कर देती हो
नहीं मैने नहीं देखा तुम्हें विचलित होते हुए भूकंप से
या ख़राब मौसम की भविष्यवाणी से
तमाम एक भीड़ के कुचले जाने पर भी तुम उफ़ नहीं करती
फिर वह कुम्भ में हो या हज में
मैने नहीं देखी तुम्हारी दिलचस्पी कहीं भी
तुमने तो अफ़वाह फैलाना तक बंद कर दिया है
फिर मैं कैसे मान लूँ कि किसी ने तुम्हें इतना उकसा दिया
कि तुम हत्यारे हो गए?
तुम बेगुनाह तो हो, पर नशे में हो
जातिवाचक से व्यक्तिवाचक बनने के ख्वाब में
तुम्हें तो पता भी नहीं कि जिस हथियार से ख़ून हुआ
उसपर तुम्हारे उँगलियों के निशान थे
क्या अपनी पैरवी नहीं करोगी, नहीं ढूँढोगी कोई अच्छा वक़ील?
जो तुम्हें कोई नाम दिए जाने से बचा ले, और कड़ी से कड़ी सज़ा तुम्हें ना सुनाई जाये?
तुम गुनहगारों को ना पहचानो ना सही
तुम क्या खुद के निर्दोष होने की गुहार भी नहीं लगाओगी?
अपनी निष्क्रियता में क्या तुमसे इतना भी नहीं होगा,
कि असली मुजरिम को पहचानने की कोशिश तो शुरु होगी?
--- Beji Jaison
27 नवंबर 2015
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझ को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा गा़एबाना क्या
क्या क्या उलझता है तिरी ज़ुल्फों के तार से
बख़िया-तलब है सीना-ए-सद-चाक-शाना क्या
ज़ेर-ए-जमीं से आता है जो गुल सो ज़र-ब-कफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया ख़जाना क्या
उड़ता है शौक़-ए-राहत-ए-मंज़िल से अस्प-ए-उम्र
महमेज़ कहते हैंगे किसे ताज़ियाना क्या
ज़ीना सबा ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बुलंद यार का है आस्ताना क्या
चारों तरफ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवा गर
दिल साफ़ हो तिरा तो है आईना-ख़ाना क्या
सय्याद असीर-ए-दाम-ए-रग-ए-गुल है अंदलीब
दिखला रहा है छु के उसे दाम ओ दाना क्या
तब्ल-ओ-अलम ही पास है अपने न मुल्क ओ माल
हम से खिलाफ हो के करेगा ज़माना क्या
आती है किस तरह से मिरे क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या
होता है जर्द सुन के जो ना-मर्द मुद्दई
रूस्तम की दास्ताँ है हमारा फ़साना क्या
तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़े तो अड़ेगा निशाना क्या
सय्याद-ए-गुल अज़ार दिखाता है सैर-ए-ब़ाग
बुलबुल क़फ़स में याद करे आशियाना क्या
बे-ताब है कमाल हमारा दिल-ए-हज़ीं
मेहमाँ सरा-ए-जिस्म का होगा रवाना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे
‘आतिश’ ग़जल ये तू ने कही आशिक़ाना क्या
--- हैदर अली 'आतिश'
कहती है तुझ को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा गा़एबाना क्या
क्या क्या उलझता है तिरी ज़ुल्फों के तार से
बख़िया-तलब है सीना-ए-सद-चाक-शाना क्या
ज़ेर-ए-जमीं से आता है जो गुल सो ज़र-ब-कफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया ख़जाना क्या
उड़ता है शौक़-ए-राहत-ए-मंज़िल से अस्प-ए-उम्र
महमेज़ कहते हैंगे किसे ताज़ियाना क्या
ज़ीना सबा ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बुलंद यार का है आस्ताना क्या
चारों तरफ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवा गर
दिल साफ़ हो तिरा तो है आईना-ख़ाना क्या
सय्याद असीर-ए-दाम-ए-रग-ए-गुल है अंदलीब
दिखला रहा है छु के उसे दाम ओ दाना क्या
तब्ल-ओ-अलम ही पास है अपने न मुल्क ओ माल
हम से खिलाफ हो के करेगा ज़माना क्या
आती है किस तरह से मिरे क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या
होता है जर्द सुन के जो ना-मर्द मुद्दई
रूस्तम की दास्ताँ है हमारा फ़साना क्या
तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़े तो अड़ेगा निशाना क्या
सय्याद-ए-गुल अज़ार दिखाता है सैर-ए-ब़ाग
बुलबुल क़फ़स में याद करे आशियाना क्या
बे-ताब है कमाल हमारा दिल-ए-हज़ीं
मेहमाँ सरा-ए-जिस्म का होगा रवाना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे
‘आतिश’ ग़जल ये तू ने कही आशिक़ाना क्या
--- हैदर अली 'आतिश'
14 नवंबर 2015
A child
A child with its ear to the rails
is listening for the train.
Lost in the omnipresent music
it cares little
whether the train is coming or going away ...
But you were always expecting someone,
always parting from someone,
until you found yourself and are no longer anywhere
---Vladimír Holan
is listening for the train.
Lost in the omnipresent music
it cares little
whether the train is coming or going away ...
But you were always expecting someone,
always parting from someone,
until you found yourself and are no longer anywhere
---Vladimír Holan
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