सच है ये शून्य हैं -
और तुम एक हो l
बड़े शक्तिशाली हो,
क्योंकि शून्य के पहले
उसके दुर्भाग्य-से खड़े हो l
अपनी आकांक्षा के क़ुतुब बने सांख्य !
मत भूलो -
तुम भी आंकड़े हो l
मत भूलो -
तुम केवल एक हो
शून्य ही दहाई हैं, शून्य ही असंख्य हैं l
शून्य नहीं धब्बे हैं,
आंसू की बूंदों-से,
लोहू के कतरों-से, शून्य ये सच्चे हैं l
संख्या के बच्चे हैं l
शून्यों से मुंह फेर खड़े होने वाले !
शून्य अगर हट जाएं
ठूठे की अंगुली से केवल रह जाओगे l
मत भूलो -
शून्य शक्ति है, शून्य प्रजा है l
---श्रीकांत वर्मा
15 अगस्त 2017
9 अगस्त 2017
हम जरूर जिएंगे ही, पठार की तरह निडर
पठारी क्षेत्र में तुमने
हमें (असुरों को) जन्म दिया
पर जिंदा रहने के लिए रास्ता नहीं बतलाया
पठारी क्षेत्र में तुमने
हमें (असुरों को) मजदूर बनाया
पर स्कूल जाने के लिए पैसा नहीं दिया
हमें आगे बढऩे के लिए रास्ता नहीं बतलाया
अब तो हमारे पास भाषा नहीं है
अब तो हमारे पास संस्कृति नहीं है
हम तुम्हें कैसे पुकारें
हम तुम्हें किस विधि से याद करें
हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
तुम्हारे भोजन की जिम्मेवारी जंगल की थी
तुम्हारी मजूरी खेत की जिम्मेवारी थी
यहां से वहां तक फैला पठार ही तुम्हारी पाठशाला थी
पहाड़-झरने तुम्हें रास्ता बताते थे
हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
तुम सब नहीं जानते थे कचिया-ढिबा (रुपया-पैसा)
तुम सब नहीं जानते थे परजीविता
हम तुम्हें दोष नहीं देते
हम तुम्हें अपनी असहायता के लिए
कोर्ट-कचहरी नहीं करते
पर जब कंपनी धम-धम आती है
पर जब सरकार दम-दम बेदम करती है
हम किसको गोहराएं
हम किस छाती में आसरा ढूंढे
हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
हम सीखेंगे तुम्हारी तरह बोलना
हम सीखेंगे तुम्हारी तरह नाचना
हम करेंगे शिकार तुम्हारी तरह
उन सभी जानवरों का
जो असुरों के घर खोद रहे हैं
जो हमारे झरनों को फुसला-बहला रहे हैं
जिन्हें धरती और इंसान खाने की लत है
हम जरूर जिएंगे तुम्हारी तरह ही
पठार की तरह निश्चिंत-निश्छल
तुम्हारे रचे इस असुर दिसुम में
--- सुषमा असुर
हमें (असुरों को) जन्म दिया
पर जिंदा रहने के लिए रास्ता नहीं बतलाया
पठारी क्षेत्र में तुमने
हमें (असुरों को) मजदूर बनाया
पर स्कूल जाने के लिए पैसा नहीं दिया
हमें आगे बढऩे के लिए रास्ता नहीं बतलाया
अब तो हमारे पास भाषा नहीं है
अब तो हमारे पास संस्कृति नहीं है
हम तुम्हें कैसे पुकारें
हम तुम्हें किस विधि से याद करें
हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
तुम्हारे भोजन की जिम्मेवारी जंगल की थी
तुम्हारी मजूरी खेत की जिम्मेवारी थी
यहां से वहां तक फैला पठार ही तुम्हारी पाठशाला थी
पहाड़-झरने तुम्हें रास्ता बताते थे
हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
तुम सब नहीं जानते थे कचिया-ढिबा (रुपया-पैसा)
तुम सब नहीं जानते थे परजीविता
हम तुम्हें दोष नहीं देते
हम तुम्हें अपनी असहायता के लिए
कोर्ट-कचहरी नहीं करते
पर जब कंपनी धम-धम आती है
पर जब सरकार दम-दम बेदम करती है
हम किसको गोहराएं
हम किस छाती में आसरा ढूंढे
हे धरती के पुरखो, हे आसमान के पुरखो
ओ हमारे माता-पिता, ओ सभी असुर बूढ़े-बूढिय़ो
हम सीखेंगे तुम्हारी तरह बोलना
हम सीखेंगे तुम्हारी तरह नाचना
हम करेंगे शिकार तुम्हारी तरह
उन सभी जानवरों का
जो असुरों के घर खोद रहे हैं
जो हमारे झरनों को फुसला-बहला रहे हैं
जिन्हें धरती और इंसान खाने की लत है
हम जरूर जिएंगे तुम्हारी तरह ही
पठार की तरह निश्चिंत-निश्छल
तुम्हारे रचे इस असुर दिसुम में
--- सुषमा असुर
5 अगस्त 2017
यह 1857 की तोप
कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !
---वीरेन डंगवाल
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !
---वीरेन डंगवाल
29 जुलाई 2017
Making Peace
A voice from the dark called out,
“The poets must give us
imagination of peace, to oust the intense, familiar
imagination of disaster. Peace, not only
the absence of war.”
But peace, like a poem,
is not there ahead of itself,
can’t be imagined before it is made,
can’t be known except
in the words of its making,
grammar of justice,
syntax of mutual aid.
A feeling towards it,
dimly sensing a rhythm, is all we have
until we begin to utter its metaphors,
learning them as we speak.
A line of peace might appear
if we restructured the sentence our lives are making,
revoked its reaffirmation of profit and power,
questioned our needs, allowed
long pauses. . . .
A cadence of peace might balance its weight
on that different fulcrum; peace, a presence,
an energy field more intense than war,
might pulse then,
stanza by stanza into the world,
each act of living
one of its words, each word
a vibration of light–facets
of the forming crystal.
--- Denise Levertov
“The poets must give us
imagination of peace, to oust the intense, familiar
imagination of disaster. Peace, not only
the absence of war.”
But peace, like a poem,
is not there ahead of itself,
can’t be imagined before it is made,
can’t be known except
in the words of its making,
grammar of justice,
syntax of mutual aid.
A feeling towards it,
dimly sensing a rhythm, is all we have
until we begin to utter its metaphors,
learning them as we speak.
A line of peace might appear
if we restructured the sentence our lives are making,
revoked its reaffirmation of profit and power,
questioned our needs, allowed
long pauses. . . .
A cadence of peace might balance its weight
on that different fulcrum; peace, a presence,
an energy field more intense than war,
might pulse then,
stanza by stanza into the world,
each act of living
one of its words, each word
a vibration of light–facets
of the forming crystal.
--- Denise Levertov
1 मई 2017
सपने
सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुयी
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते|
--- अवतार सिंह संधू "पाश"
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुयी
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते|
--- अवतार सिंह संधू "पाश"
21 अप्रैल 2017
उर्दू है मेरा नाम
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
दक्कन के वली ने मुझे गोदी में खिलाया
सौदा के क़सीदों ने मेरा हुस्न बढ़ाया
है मीर की अज़्मत कि मुझे चलना सिखाया
मैं दाग़ के आंगन में खिली बन के चमेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
ग़ालिब ने बुलंदी का सफ़र मुझको सिखाया
हाली ने मुरव्वत का सबक़ याद दिलाया
इक़बाल ने आईना-ए-हक़ मुझको दिखाया
मोमिन ने सजायी मेरे ख़्वाबों की हवेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
है ज़ौक़ की अज़्मत कि दिये मुझको सहारे
चकबस्त की उल्फ़त ने मेरे ख़्वाब संवारे
फ़ानी ने सजाये मेरी पलकों पे सितारे
अकबर ने रचायी मेरी बेरंग हथेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
क्यूं मुझको बनाते हो तआस्सुब का निशाना
मैंने तो कभी ख़ुद को मुसलमां नहीं माना
देखा था कभी मैंने भी ख़ुशियों का ज़माना
अपने ही वतन में हूं मगर आज अकेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
✒ इक़बाल अशहर
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
दक्कन के वली ने मुझे गोदी में खिलाया
सौदा के क़सीदों ने मेरा हुस्न बढ़ाया
है मीर की अज़्मत कि मुझे चलना सिखाया
मैं दाग़ के आंगन में खिली बन के चमेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
ग़ालिब ने बुलंदी का सफ़र मुझको सिखाया
हाली ने मुरव्वत का सबक़ याद दिलाया
इक़बाल ने आईना-ए-हक़ मुझको दिखाया
मोमिन ने सजायी मेरे ख़्वाबों की हवेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
है ज़ौक़ की अज़्मत कि दिये मुझको सहारे
चकबस्त की उल्फ़त ने मेरे ख़्वाब संवारे
फ़ानी ने सजाये मेरी पलकों पे सितारे
अकबर ने रचायी मेरी बेरंग हथेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
क्यूं मुझको बनाते हो तआस्सुब का निशाना
मैंने तो कभी ख़ुद को मुसलमां नहीं माना
देखा था कभी मैंने भी ख़ुशियों का ज़माना
अपने ही वतन में हूं मगर आज अकेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
✒ इक़बाल अशहर
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