11 सितंबर 2020

तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएं
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहां
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

--- दुष्यंत कुमार

8 सितंबर 2020

The Moment

The moment when, after many years
of hard work and a long voyage
you stand in the centre of your room,
house, half-acre, square mile, island country,
knowing at last how you got there,
and say, I own this,

Is the same moment when the trees unloose
their soft arms from around you,
the birds take back their language,
the cliffs fissure and collapse,
the air moves back from you like a wave
and you can't breathe.

No, they whisper. You own nothing.
You were a visitor, time after time
climbing the hill, planting the flag, proclaiming.
We never belonged to you.
You never found us.
It was always the other way round.

~ Margaret Atwood

5 सितंबर 2020

शम्बूक

शम्बूक
हम जानते हैं तुम इतिहास पुरुष नहीं हो
वरना कोई लिख देता
तुम्हें भी पूर्वजन्म का ब्राह्मण
स्वर्ग की कामना से
राम के हाथों मृत्यु का याचक

लेकिन शम्बूक
तुम इतिहास का सच हो
राजतन्त्रों में जन्मती
असंख्य दलित चेतनाओं का प्रतीक
व्यवस्था और मानव के संघर्ष का विम्ब

शम्बूक
तुम हिन्दुत्व के ज्ञात इतिहास के
किसी भी काल का सच हो सकते हो
शम्बूक जो तुम्हारा नाम नहीं है
क्योंकि तुम घोघा नहीं थे,
घृणा का शब्द है जो दलित चेतना को
व्यवस्था के रक्षकों ने दिया था

शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम उलटे होकर तपस्या नहीं कर रहे थे
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम्हारी तपस्या एक आन्दोलन थी
जो व्यवस्था को उलट रही थी

शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हें सदेह स्वर्ग जाने की कामना नहीं थी,
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम अभिव्यक्ति दे रहे थे
राज्याश्रित अध्यात्म में उपेक्षित देह के यथार्थ को

शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हारी तपस्या से
ब्राह्मण का बालक नहीं मरा था
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा
मरा था ब्राह्मणवाद
मरा था उसका भवितव्य।

शम्बूक
सिर्फ़ इसलिए राम ने तुम्हारी हत्या की थी।
तुम्हें मालूम नहीं
जिस मुहूर्त में तुम धराशायी हुए थे
उसी मुहूर्त में जी उठा था
ब्राह्मण-बालक
यानी ब्राह्मणवाद
यानी उसका भवितव्य

शम्बूक
तुम्हें मालूम नहीं
तुम्हारे वध पर
देवताओं ने पुष्प-वर्षा की थी
कहा था-- बहुत ठीक, बहुत ठीक
क्योंकि तुम्हारी हत्या
दलित चेतना की हत्या थी,
स्वतन्त्रता, समानता, न्यायबोध की हत्या थी

किन्तु, शम्बूक
तुम आज भी सच हो
आज भी दे रहे हो शहादत
सामाजिक-परिवर्तन के यज्ञ में

---कंवल_भारती

23 अगस्त 2020

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या

क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है
या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या

ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या

--- मीर तक़ी मीर

21 अगस्त 2020

अरे यायावर! रहेगा याद?

पार्श्व गिरि का नम्र, 
चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। 
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। 
विहग-शिशु मौन नीड़ों में। 

 मैं ने आँख भर देखा। 
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। 
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!) 
क्षितिज ने पलक-सी खोली, 
 तमक कर दामिनी बोली-
 'अरे यायावर! रहेगा याद?' 

 माफ्लङ् (शिलङ्), 22 सितम्बर, 1947

As I Grew Older

It was a long time ago.
I have almost forgotten my dream.
But it was there then,
In front of me,
Bright like a sun—
My dream.
And then the wall rose,
Rose slowly,
Slowly,
Between me and my dream.
Rose until it touched the sky—
The wall.
Shadow.
I am black.
I lie down in the shadow.
No longer the light of my dream before me,
Above me.
Only the thick wall.
Only the shadow.
My hands!
My dark hands!
Break through the wall!
Find my dream!
Help me to shatter this darkness,
To smash this night,
To break this shadow
Into a thousand lights of sun,
Into a thousand whirling dreams
Of sun!

---Langston Hughes

18 अगस्त 2020

ज़िन्दगी है कश लगा

ज़िन्दगी है कश लगा
ज़िन्दगी है कश लगा
हसरतो की राख उड़ा
यह जहाँ पानी है
बुलबुला है पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या
पानियों में बहता जा बहता जा

कश लगा
कश लगा
कश लगा
कश लगा

जलती है तन्हाईयाँ
तापी है रात रात जाग जाग के
उड़ती है चिंगारियाँ
गुच्छे है लाल लाल गिली आग के
ओह खिलती है जैसे जलते
जुगनु हो बेरियों में
आँखें लगी हो जैसे
उपलों की ढेरियों में
दो दिन का आग है यह
सारा जहाँ धुआँ

दो दिन की ज़िन्दगी में
दोनों जहाँ का धुआँ

यह जहाँ पानी है
बुलबुला है पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या
पानियों में बहता जा बहता जा

कश लगा
कश लगा
कश लगा
कश लगा

छोड़ी हुई बस्तियां
जाता हूँ बार बार
घूम घूम के
मिलते नहीं वह निशाँ
छोड़े थे दहलीज़
चूम चूम के
चौपाए चर जायेंगे
जंगल की क्यारियाँ हैं
पगडंडियों पर मिलना
दो दिन की यारियां है
क्या जाने कौन जाये
आरी से बारी आये
हम भी कतार में है
जब भी सवारी आये
यह जहाँ पानी है
बुलबुला है पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या
पानियों में बहता जा बहता जा

कश लगा
कश लगा
कश लगा
कश लगा

---गुलज़ार