2 नवंबर 2020

उस जनपद का कवि हूँ

उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता
सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।

--- त्रिलोचन

25 अक्टूबर 2020

मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ

मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
फिर ऐसा कोई ख़ास कलम वर नहीं हूँ मैं
लेकिन वतन की ख़ाक से बाहर नहीं हूँ मैं

कोई पयाम ए हक़ हो वो सब है मेरे लिए
दुनिया का हर बुलंद अदब है मेरे लिए
वो राम जिसका नाम है जादू लिए हुए
लीला है जिसकी ॐ की खुशबू लिए हुए
अवतार बन के आयी थी ग़ैरत शबाब की
भारत में सबसे पहली किरण इंक़लाब की

मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ

हर गाम जिसका सच का फरेरा ही बन गया
वनवास ज़िन्दगी का सवेरा ही बन गया
एक तर्ज एक एक बात है हर ख़ास ओ आम से
मिलते हैं कैसे कैसे सबक हमको राम से
ऊंचा उठे तो फ़र्क़ न लाये सऊर में
कोई बढ़े न हद से ज्यादा गुरुर में
जंगल में भी खिला तो रही फूल की महक
गुदरी में रह के लाल की जाती नहीं चमक
दिल से कभी ये प्यार निकाला न जायेगा
माँ बाप का ख्याल भी टाला न जायेगा
बेटा वही जो माँ बाप की फरमान मान ले
शौहर वही जो लाज पे मरने की ठान ले
और बाप वो जो बेटों को लव - कुश बना सके
उनको जगत में जीने के सब गुण सिखा सके
भाई जो चाहे भाई को तलवार की तरह
जरनल जो रखे फ़ौज को परिवार की तरह
राजा वही गरीब से इन्साफ कर सके
दलदल से जात पात से हरदम उबर सके
जो वर्ण भेद भाव के चक्कर को तोड़ दे
शबरी के बेर खा के ज़माने को मोड़ दे
इंसान हक़ की राह में हरदम जमा रहे
ये बात फिर फिजूल की लश्कर बड़ा रहे
ईमान हो तो सोने का अम्बार कुछ नहीं
हो आत्मबल तो लोहे के हथियार कुछ नहीं

रावण की मैंने माना की हस्ती नहीं रही
रावण का कारोबार है फैला हुआ अभी
छाया हर एक सिम जो अँधेरा घना हुआ
हिन्दुस्तान आज है लंका बना हुआ
जो जुल्म से डरे वो उपासक हो राम का
सोने पे जान दे वो उपासक हो राम का
वो राम जिसने जुल्म की बुनियाद ढाई थी
जिसके भगत ने सोने की लंका जलाई थी
हर आदमी ये सोचे जो होशो हवास है
वो राम के करीब है रावण के पास है
लोगों को राम से जो मोहब्बत है आज कल
पूजा नहीं अमल की जरुरत है आज कल


मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ

--- शम्सी मीनाई

15 अक्टूबर 2020

सफेद हाथी

गाँव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है।
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।
कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।

---मलखान सिंह

12 अक्टूबर 2020

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी

सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी

हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी

रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी

ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी

--- निदा फ़ाज़ली

9 अक्टूबर 2020

ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के

ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
 चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के, 

 वैसे भी ये बड़े लोग हैं अक्सर धूप चढ़े जगते हैं,
 व्यवहारों से कहीं अधिक तस्वीरों में अच्छे लगते हैं,
 इनका है इतिहास गवाही जैसे सोए वैसे जागे, 
इनके स्वार्थ सचिव चलते हैं नयी सुबह के रथ के आगे,
 माना कल तक तुम सोये थे लेकिन ये तो जाग रहे थे,
 फिर भी कहाँ चले जाते थे जाने सब उपहार चमन के, 

 ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के, 
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,

 इनके हित औ अहित अलग हैं इन्हें चमन से क्या मतलब है,
 राम कृपा से इनके घर में जो कुछ होता है वह सब है, 
संघर्षों में नहीं जूझते साथ समय के बहते भर हैं, 
वैसे ये हैं नहीं चमन के सिर्फ चमन में रहते भर हैं,
 इनका धर्म स्वयं अपने आडम्बर से हल्का पड़ता हैं, 
शुभचिंतक बनने को आतुर बैठे हैं ग़द्दार चमन के, 

 ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के, 
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के, 

 सूरज को क्या पड़ी भला जो दस्तक देकर तुम्हें पुकारे, 
गर्ज़ पड़े सौ बार तुम्हारी खोलो अपने बंद किवाड़े, 
नयी रोशनी गले लगाओ आदर सहित कहीं बैठाओ, 
ठिठुरी उदासीनता ओढ़े सोया वातावरण जगाओ, 
हो चैतन्य ऊंघती आँखें फिर कुछ बातें करो काम की, 
कैसे कौन चुका सकता है कितने कब उपकार चमन के, 

ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के, 
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के, 

 धरे हाथ पर हाथ न बैठो कोई नया विकल्प निकालो, 
ज़ंग लगे हौंसले माँज लो बुझा हुआ पुरुषार्थ जगा लो, 
उपवन के पत्ते पत्ते पर लिख दो युग की नयी ऋचाएँ, 
वे ही माली कहलाएँगे जो हाथों में ज़ख्म दिखाएँ, 
जिनका ख़ुशबूदार पसीना रूमालों को हुआ समर्पित, 
उनको क्या अधिकार कि पाएं वे महंगे सत्कार चमन के, 

 ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के, 
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के, 

 जिनको आदत है सोने की उपवन की अनुकूल हवा में, 
उनका अस्थि शेष भी उड़ जाता है बनकर धूल हवा में, 
लेकिन जो संघर्षों का सुख सिरहाने रखकर सोते हैं, 
युग के अंगड़ाई लेने पर वे ही पैग़म्बर होते हैं, 
जो अपने को बीज बनाकर मिटटी में मिलना सीखे हैं, 
सदियों तक उनके साँचे में ढलते हैं व्यवहार चमन के, 

 ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के, 
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के, 

5 अक्टूबर 2020

Start Close In

Start close in, 
don’t take the second step or the third, 
start with the first thing close in, 
the step you don’t want to take. 

Start with the ground you know, 
the pale ground beneath your feet, 
your own way to begin the conversation. 

Start with your own question, 
give up on other people’s questions, 
don’t let them smother something simple. 

To hear another’s voice, 
follow your own voice, 
wait until that voice 
 becomes an intimate private ear 
that can really listen to another. 

Start right now take a small step
you can call your own 
don’t follow someone else’s heroics, 
be humble and focused, start close in, 
don’t mistake that other for your own. 

 Start close in, 
don’t take the second step or the third, 
start with the first thing close in,
 the step you don’t want to take. 

 --- David Whyte A poem from River Flow: New & Selected Poems Many Rivers Press

2 अक्टूबर 2020

वसीयत

गांधी के मरने के बाद
चश्मा मिला
अंधी जनता को
घड़ी ले गए अंग्रेज़
धोती और सिद्धांत
जल गए चिता के साथ
गांधीजनों ने पाया
राजघाट
संस्थाओं ने आत्मकथा
और डंडा
नेताओं ने हथियाया
और हांक रहे हैं
देश को
गांधी से पूछे बिना
गांधी को बांट लिया हमने
अपनी अपनी तरह से

--- हूबनाथ पांडेय