मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
--- दुष्यंत कुमार
7 दिसंबर 2023
1 दिसंबर 2023
गुलाम
वो तो देवयानी का ही मर्तबा था,
कि सह लिया सांच की आंच,
वरना बहुत लंबी नाक थी ययाति की।
और जंग कुछ ऐसा मचाया कि तंग दुनिया हो गई,
और मरने वाले की चिता पर जिंदा औरत सो गई।
और तब बजे घडि़याल,
पड़े शंख-घंटे घनघनाये,
फौजों ने भोंपू बजाये, पुलिस भी तुरही बजाये।
मंत्रोच्चारण यूं हुआ कि मंगल में औरत रचती हो,
जीते जी जलती रहे जिस भी औरत के पति हो।
तब बने बाज़ार और बाज़ार में सामान आये,
और बाद में सामान की गिनती में खुल्ला बिकते थे गुलाम,
सीरिया और काहिरा में पट्टा होते थे गुलाम,
वेतलहम-येरूशलम में गिरवी होते थे गुलाम,
रोम में और कापुआ में रेहन होते थे गुलाम,
मंचूरिया-शंघाई में नीलाम होते थे गुलाम,
मगध-कोशल-काशी में बेनामी होते थे गुलाम,
और सारी दुनिया में किराए पर उठते गुलाम,
पर वाह रे मेरा जमाना और वाह रे भगवा हुकूमत!
अब सरे बाजार में ख़ैरात बंटते हैं गुलाम।
कि सह लिया सांच की आंच,
वरना बहुत लंबी नाक थी ययाति की।
नाक में नासूर है और नाक की फुफकार है,
नाक विद्रोही की भी शमशीर है, तलवार है।
जज़्बात कुछ ऐसा, कि बस सातों समंदर पार है,
ये सर नहीं गुंबद है कोई, पीसा की मीनार है।
नाक विद्रोही की भी शमशीर है, तलवार है।
जज़्बात कुछ ऐसा, कि बस सातों समंदर पार है,
ये सर नहीं गुंबद है कोई, पीसा की मीनार है।
और ये गिरे तो आदमीयत का मकीदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो बलंदियों का पेंदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो मोहब्बत का घरौंदा गिर पड़ेगा,
इश्क और हुश्न का दोनों की दीदा गिर पड़ेगा।
इसलिए रहता हूं जिंदा
वरना कबका मर चुका हूं,
मैं सिर्फ काशी में ही नहीं
ये गिरा तो बलंदियों का पेंदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो मोहब्बत का घरौंदा गिर पड़ेगा,
इश्क और हुश्न का दोनों की दीदा गिर पड़ेगा।
इसलिए रहता हूं जिंदा
वरना कबका मर चुका हूं,
मैं सिर्फ काशी में ही नहीं
रूमान में भी बिक चुका हूं।
हर जगह ऐसी ही जिल्लत,
हर जगह ऐसी ही जहालत,
हर जगह पर है पुलिस,
और हर जगह है अदालत।
हर जगह पर है पुरोहित,
हर जगह नरमेध है,
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है।
सूलियां ही हर जगह हैं, निज़ामों की निशान,
हर जगह पर फांसियां लटकाये जाते हैं गुलाम।
हर जगह औरतों को मारा-पीटा जा रहा है,
जिंदा जलाया जा रहा है,
खोदा-गाड़ा जा रहा है।
हर जगह पर खून है और हर जगह आंसू बिछे हैं,
ये कलम है, सरहदों के पार भी नगमे लिखे हैं।
आपको बतलाऊं मैं इतिहास की शुरुआत को,
और किसलिए बारात दरवाजे पर आई रात को,
और ले गई दुल्हन उठाकर
और मंडप को गिराकर,
एक दुल्हन के लिए आये कई दूल्हे मिलाकर।
हर जगह ऐसी ही जिल्लत,
हर जगह ऐसी ही जहालत,
हर जगह पर है पुलिस,
और हर जगह है अदालत।
हर जगह पर है पुरोहित,
हर जगह नरमेध है,
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है।
सूलियां ही हर जगह हैं, निज़ामों की निशान,
हर जगह पर फांसियां लटकाये जाते हैं गुलाम।
हर जगह औरतों को मारा-पीटा जा रहा है,
जिंदा जलाया जा रहा है,
खोदा-गाड़ा जा रहा है।
हर जगह पर खून है और हर जगह आंसू बिछे हैं,
ये कलम है, सरहदों के पार भी नगमे लिखे हैं।
आपको बतलाऊं मैं इतिहास की शुरुआत को,
और किसलिए बारात दरवाजे पर आई रात को,
और ले गई दुल्हन उठाकर
और मंडप को गिराकर,
एक दुल्हन के लिए आये कई दूल्हे मिलाकर।
और जंग कुछ ऐसा मचाया कि तंग दुनिया हो गई,
और मरने वाले की चिता पर जिंदा औरत सो गई।
और तब बजे घडि़याल,
पड़े शंख-घंटे घनघनाये,
फौजों ने भोंपू बजाये, पुलिस भी तुरही बजाये।
मंत्रोच्चारण यूं हुआ कि मंगल में औरत रचती हो,
जीते जी जलती रहे जिस भी औरत के पति हो।
तब बने बाज़ार और बाज़ार में सामान आये,
और बाद में सामान की गिनती में खुल्ला बिकते थे गुलाम,
सीरिया और काहिरा में पट्टा होते थे गुलाम,
वेतलहम-येरूशलम में गिरवी होते थे गुलाम,
रोम में और कापुआ में रेहन होते थे गुलाम,
मंचूरिया-शंघाई में नीलाम होते थे गुलाम,
मगध-कोशल-काशी में बेनामी होते थे गुलाम,
और सारी दुनिया में किराए पर उठते गुलाम,
पर वाह रे मेरा जमाना और वाह रे भगवा हुकूमत!
अब सरे बाजार में ख़ैरात बंटते हैं गुलाम।
27 नवंबर 2023
Night
I wish the night was short, like my hair,
And that it was bright, like my heart,
And I could tie the distance between us with my life.
These tears are nothing but drops from my eyes,
And now I'm being rusted by them.
Yet the night is long, like my thoughts,
And horrifying, like my dreams,
And the distance as endless as my longing.
The sun is drunk, on the other side of the long pass where I came from,
Embraced by the night.
My hair has grayed,
But the night has remained dark.
Half of my hair is gone,
But the night is as thick as before.
— Abdushukur Muhammet ( Uyghur poet)
And that it was bright, like my heart,
And I could tie the distance between us with my life.
These tears are nothing but drops from my eyes,
And now I'm being rusted by them.
Yet the night is long, like my thoughts,
And horrifying, like my dreams,
And the distance as endless as my longing.
The sun is drunk, on the other side of the long pass where I came from,
Embraced by the night.
My hair has grayed,
But the night has remained dark.
Half of my hair is gone,
But the night is as thick as before.
— Abdushukur Muhammet ( Uyghur poet)
21 नवंबर 2023
बेख़बर कुर्सियाँ आँख मलती रहीं
बेख़बर कुर्सियां आँख मलती रहीं
बस्तियाँ बेगुनाहों की जलती रहीं
आदमियत मोहब्बत शराफ़त वफ़ा
नागिनें आस्तीनों में पलती रहीं
दो बदन जितने नज़दीक होते गए
कुर्बतें फ़ासलों में बदलती रहीं
जब मिरी ज़िंदगी में अँधेरा हुआ
मेरे चारों तरफ़ शम्मे जलती रहीं
ज़हर पानी बना मछलियों के लिए
पंछियों को हवाएँ मसलती रहीं
ज़िंदगी तेरी नाज़ुक बदन लड़कियाँ
आग की शाहराहों पे चलती रहीं
--- बशीर बद्र
बस्तियाँ बेगुनाहों की जलती रहीं
आदमियत मोहब्बत शराफ़त वफ़ा
नागिनें आस्तीनों में पलती रहीं
दो बदन जितने नज़दीक होते गए
कुर्बतें फ़ासलों में बदलती रहीं
जब मिरी ज़िंदगी में अँधेरा हुआ
मेरे चारों तरफ़ शम्मे जलती रहीं
ज़हर पानी बना मछलियों के लिए
पंछियों को हवाएँ मसलती रहीं
ज़िंदगी तेरी नाज़ुक बदन लड़कियाँ
आग की शाहराहों पे चलती रहीं
--- बशीर बद्र
17 नवंबर 2023
पक गई हैं आदतें, बातों से सर होंगी नहीं
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं
इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं
बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है
ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं
आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं
इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं
बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है
ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं
आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं
13 नवंबर 2023
I grant you refuge
1.
I grant you refuge
in invocation and prayer.
I bless the neighborhood and the minaret
to guard them
from the rocket
from the moment
it is a general’s command
until it becomes
a raid.
I grant you and the little ones refuge,
the little ones who
change the rocket’s course
before it lands
with their smiles.
2.
I grant you and the little ones refuge,
the little ones now asleep like chicks in a nest.
They don’t walk in their sleep toward dreams.
They know death lurks outside the house.
Their mothers’ tears are now doves
following them, trailing behind
every coffin.
3.
I grant the father refuge,
the little ones’ father who holds the house upright
when it tilts after the bombs.
He implores the moment of death:
“Have mercy. Spare me a little while.
For their sake, I’ve learned to love my life.
Grant them a death
as beautiful as they are.”
4.
I grant you refuge
from hurt and death,
refuge in the glory of our siege,
here in the belly of the whale.
Our streets exalt God with every bomb.
They pray for the mosques and the houses.
And every time the bombing begins in the North,
our supplications rise in the South.
5.
I grant you refuge
from hurt and suffering.
With words of sacred scripture
I shield the oranges from the sting of phosphorous
and the shades of cloud from the smog.
I grant you refuge in knowing
that the dust will clear,
and they who fell in love and died together
will one day laugh.
I grant you refuge
in invocation and prayer.
I bless the neighborhood and the minaret
to guard them
from the rocket
from the moment
it is a general’s command
until it becomes
a raid.
I grant you and the little ones refuge,
the little ones who
change the rocket’s course
before it lands
with their smiles.
2.
I grant you and the little ones refuge,
the little ones now asleep like chicks in a nest.
They don’t walk in their sleep toward dreams.
They know death lurks outside the house.
Their mothers’ tears are now doves
following them, trailing behind
every coffin.
3.
I grant the father refuge,
the little ones’ father who holds the house upright
when it tilts after the bombs.
He implores the moment of death:
“Have mercy. Spare me a little while.
For their sake, I’ve learned to love my life.
Grant them a death
as beautiful as they are.”
4.
I grant you refuge
from hurt and death,
refuge in the glory of our siege,
here in the belly of the whale.
Our streets exalt God with every bomb.
They pray for the mosques and the houses.
And every time the bombing begins in the North,
our supplications rise in the South.
5.
I grant you refuge
from hurt and suffering.
With words of sacred scripture
I shield the oranges from the sting of phosphorous
and the shades of cloud from the smog.
I grant you refuge in knowing
that the dust will clear,
and they who fell in love and died together
will one day laugh.
--- Hiba Abu Nada
(trans. Huda Fakhreddine)Source: Protean Magazine
10 नवंबर 2023
INTERPRETATIONS
A poet sits in a coffee shop, writing.
The old lady
thinks he is writing a letter to his mother,
the young woman
thinks he is writing a letter to his girlfriend,
the child
thinks he is drawing,
the businessman
thinks he is considering a deal,
the tourist
thinks he is writing a postcard,
the employee
thinks he is calculating his debts.
The secret policeman
walks, slowly, towards him.
- Mourid Barghouti
The old lady
thinks he is writing a letter to his mother,
the young woman
thinks he is writing a letter to his girlfriend,
the child
thinks he is drawing,
the businessman
thinks he is considering a deal,
the tourist
thinks he is writing a postcard,
the employee
thinks he is calculating his debts.
The secret policeman
walks, slowly, towards him.
- Mourid Barghouti
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