28 मई 2025

भले दिनों की बात थी

भले दिनों की बात थी
भली सी एक शक्ल थी
ना ये कि हुस्ने ताम हो
ना देखने में आम सी

ना ये कि वो चले तो कहकशां सी रहगुजर लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे

कोई भी रुत हो उसकी छब
फ़जा का रंग रूप थी
वो गर्मियों की छांव थी
वो सर्दियों की धूप थी

ना मुद्दतों जुदा रहे
ना साथ सुबहो शाम हो
ना रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
ना ये कि इज्ने आम हो

ना ऐसी खुश लिबासियां
कि सादगी हया करे
ना इतनी बेतकल्लुफ़ी
की आईना हया करे

ना इखतिलात में वो रम
कि बदमजा हो ख्वाहिशें
ना इस कदर सुपुर्दगी
कि ज़िच करे नवाजिशें

ना आशिकी ज़ुनून की
कि ज़िन्दगी अजाब हो
ना इस कदर कठोरपन
कि दोस्ती खराब हो

कभी तो बात भी खफ़ी
कभी सुकूत भी सुखन
कभी तो किश्ते ज़ाफ़रां
कभी उदासियों का बन

सुना है एक उम्र है
मुआमलाते दिल की भी
विसाले-जाँफ़िजा तो क्या
फ़िराके-जाँ-गुसल की भी

सो एक रोज क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क को अमर कहूं
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई

मैं इश्क का असीर था
वो इश्क को कफ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बदतर अज़ हवस कहे

शजर हजर नहीं कि हम
हमेशा पा ब गिल रहें
ना ढोर हैं कि रस्सियां
गले में मुस्तकिल रहें

मोहब्बतें की वुसअतें
हमारे दस्तो पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगाने-बावफ़ा में हैं

मैं कोई पेन्टिंग नहीं
कि एक फ़्रेम में रहूं
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूं

तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिजाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं

न उसको मुझपे मान था
न मुझको उसपे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई ना हो
तो क्या गमे शिकस्तगी

सो अपना अपना रास्ता
हंसी खुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी
भली सी उसकी दोस्ती
अब उसकी याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी

---  अहमद फ़राज़ 

हुस्न ताम - पूरा शबाब, कहकशां - आकाशगंगा, इज्ने आम - सभी को इजाजत

हया - शर्म, इखतिलात - दोस्ती, रम - वहशत, खफ़ी - छिपी हुई, चुप्पी

किश्ते ज़ाफ़राँ - केसर की क्यारी, विसाले जाँफ़िजा - प्राणवर्धक मिलन,

फ़िराके जाँ गुसिल - प्राण घातक दूरी, असीर - कैदी, कफ़स - पिन्जरा, कैद खाना,

अज हवस - हवस से भी खराब, शजर - पेड, हजर - पत्थर, पा-ब-गिल - विवश

मुस्तकिल - लगातार, वुसअतें - लम्बाई, चौड़ाई, दस्तो-पा - हाथ, पैर, निस्बतें - संबन्ध

सगाने-बावफ़ा - वफ़ादार कुत्ते, ज़ोम - गुमान, अहद - वचन बद्धता, गमे शिकस्तगी - टूटने का गम

22 मई 2025

जंगल जंगल बात चली है (Jungle Book) (Old Doordarshan Serial Title Song)

जंगल जंगल बात चली है
पता चला है.. 
जंगल जंगल बात चली है। 
पता चला है..

अरे चड्डी पहन के फूल खिला है
फूल खिला है 
अरे चड्डी पहन के फूल खिला हैं 
फूल खिला है

जंगल जंगल पता चला है, 
चड्डी पहन के फूल खिला है 
जंगल जंगल पता चला है, 
चड्डी पहन के फूल खिला है

एक परिंदा है शर्मिंदा, 
था वो नंगा
भाई इससे तो अंडे के अंदर, 
था वो चंगा

सोच रहा है 
बाहर आखिर क्यों निकला है 
अरे चड्डी पहन के फूल खिला है 
फूल खिला है


 

17 मई 2025

अछूत की शिकायत (भोजपुरी कविता)

हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब।
हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइब।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब।
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,
बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।

खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै,
परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां कै पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब,
डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।

हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे के लसकरि उतरल बानी,
जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी,
ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।

बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां,
ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां,
अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।
भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब।
अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां,
घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।

हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै;
ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी।
ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के एतनी काही के हलकानी।।

--- कवि हीरा डोम ( सितम्बर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित)

11 मई 2025

'भारत'

मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से
वक़्त मापते है
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते है
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ है मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है --
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
उसे बताऊँ
के भारत के अर्थ
किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं
वरन खेत में दायर है
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है

--- पाश

6 मई 2025

A poem from the anthology 'The country without a post office'

Yes, I remember it,
the day I’ll die, I broadcast the crimson,

so long of that sky, its spread air,
its rushing dyes, and a piece of earth

bleeding, apart from the shore, as we went
on the day I’ll die, past the guards, and he,

two yards he rowed me into the sunset,
past all pain. On everyone’s lips was news

of my death but only that beloved couplet,
broken, on his:

“If there is a paradise on earth,
It is this, it is this, it is this.”

(for Vidur Wazir)


30 अप्रैल 2025

Gullak (गुल्लक) Theme Song

कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी

कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी
थोड़ी अकड़ी थी, थोड़ी जकड़ी थी
पर लपक के हमने पकड़ी थी

थोड़ी गीली थी, थोड़ी dry थी
कभी low सी थी, कभी high थी
घुल जाए तो इलायची
घिस जाती तो अदरक थी

ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी गुल्लक सी

बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला
बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला

हाँ, ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी
छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी
ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी

छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी 
बातों की दातुन से चलती
Unlimited WiFi थी
फ़ुरसत का petrol पड़ा के

Slowly, slowly भगाई थी
हम सब के हिस्से आई थी
हम सब ने गले लगाई थी
एक चम्मच थी, पर too much थी

ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी, गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
ज़िंदगी गुल्लक सी

25 अप्रैल 2025

ना नर में कोई राम बचा

ना नर में कोई राम बचा,
नारी में ना कोई सीता है !
ना धरा बचाने के खातिर,
विष कोई शंकर पीता है !!

ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,
किसी में ज्ञान बचा है!
ना हरिश्चंद्र सा सत्य,
किसी के अंदर रचा बसा है !!

न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,
न नानक जी सा परम त्याग !
बस नाच रही है नर के भीतर
प्रतिशोध की कुटिल आग !!

फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,
क्या अंश बाकि तुम में !
कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…

तुम भीष्म पितामह की भांति,
अपने ही जिद पर अड़े रहे !
तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,
तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!

एक दुर्योधन फिर,
सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !
कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर
थोड़ा धर्म जगाता है !!

फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की
चिंगारी से आग लगाकर!
चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…

--- शुभम शाम