मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाय?
शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाय!
नील आकाश, तैरते-से-मेघ के टुकड़े,
खुली घासों में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदी : पारदर्शी पानी,
धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो-
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाय!
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाय!
--- अज्ञेय
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